(यह कहानी मूलतः तब लिखी गई थी जब इसे लिखने वाला पंद्रह साल का था। और अब आंशिक संशोधन के साथ पोस्ट की जा रही है।)
“ अब भी तुम किताबें ही लिखते रहोगे या हमारे लिए कुछ करोगे भी? हम भूख से मर रहे हैं और तुम हो कि बस, जब देखो कुछ-न-कुछ लिखते रहते हो। आखिर कब तक लिखोगे तुम? लिखने से क्या तुम्हारी ग़रीबी दूर हो जायेगी? तुम अपना समय लिखने में लगा रहे हो पर कोई लाभ तो हो नहीं रहा है। मेरी मानो तो तुम लिखना छोड़ दो।” ग़रीबी की मार असह्य होने पर लक्ष्मी ने कहा।
“क्या करूँ, दिन भर तो ईंट ढ़ोते-ढ़ोते खून की तरह पसीने बहाता रहता हूँ। रात को थोड़ी देर कुछ लिखने से क्या हमारी ग़रीबी ख़त्म हो जायेगी, जो न लिखूँ। मेरा स्वभाव ही बन गया है यह। जब भी शाम को थका-हारा घर आता हूँ, इस फटी-चिथड़ी पुरानी चटाई पर बैठते ही हाथ ख़ुद ही आगे बढ़ जाते हैं, कुछ-न-कुछ लिखने के लिए। आख़िर नहीं लिखने से क्या हम सेठ बन जाएंगे? जाओ मुझे लिखने दो।” खीझे मन से धनपत ने कहा।
धनपत कहानियाँ लिखता था। उपन्यास, कविताएँ, ग़ज़ल आदि भी लिखा करता था। उसकी लेखनी में प्रेमचंद-सी शक्ति थी। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत गद्य की अभिव्यक्ति और मानवीय समाज की समस्याओं को उज़ागर करना ही धनपत की लेखनी का मूल उद्देश्य था। उसके कहानियों को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता था मानो मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ हों।
उसके साहित्यकार बनने की कहानी यों है।
एक बहुत ग़रीब परिवार में एक विधवा रहती थी। एक पाँच-छ: साल का लड़का था उसे, नाम था- धनपत। किसी तरह उस विधवा ने उसका पालन-पोषण किया। धनाभाव उसके लिए एक बड़ी समस्या थी। धनपत इसी कारण गाँव के ही विद्यालय में किसी तरह सातवाँ तक पढ़ गया पाया था।
भगवान् ने उस धनपत को अद्भुत सौंदर्य प्रदान किया था। इतना सुंदर था वो कि पूर्णिमा के चंद्रमा का सौंदर्य भी फींका पड़ जाता था। स्वास्थ्य भी ठीक था। उसका शरीर एकदम फूला हुआ था। माँ किसी तरह अपने आधा पेट खाकर भी पुत्र को पूरा भोजन तथा सुख देने के लिए लालायित रहती थी।
उनलोगों के पास थोड़ी-सी जमीन थी, जिसपर वे खेती करते थे। पर, उस खेती से दो व्यक्तियों का पेट भला से कहाँ भर सकता था? धनपत की माँ को मज़ूरी भी करनी पड़ती थी। मज़ूरी में भी ज़मींदार बहुत कम पैसे देते थे। फ़िर भी दो व्यक्तियों के लिए भोजन वह मुश्किल से जुटा पाती थी।
उन दिनों बाल-विवाह की प्रथा चल रही थी। उसकी माता ने भी उसकी शादी बारह बरस की उम्र में कर दी। कुछ वर्षों बाद धनपत की माँ बीमार पड़ गई। इलाज़ के लिए पैसे की ज़रूरत थी। पैसे नहीं होने से इलाज़ भी नहीं हुआ। वह स्वर्ग-सिधार गई। बाद में दो बेटे तथा तथा एक बेटी भी धनपत को हुए।(शायद यह प्रयोग हिन्दी में गलत है, लेकिन उस समय यही लिखा था) अब धनपत पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके परिवार में पाँच सदस्य हो गये। अब तो आर्थिक दुर्दशा और बिगड़ गई।
बाद में वह गाँव छोड़कर शहर की तरफ़ मुड़ा। शहर में धनपत अज़नबी था। रात-दिन घूमता रहता। कड़ी धूप में बेचारा दिन-भर इधर-उधर दौड़ता रहता। पर, किसी को भी दया नहीं आई। कोई ठौर-ठिकाना नहीं पा सका। थका-हारा धनपत बेचारा एक पुस्तकालय के बाहर बैठा था। पुस्तकालयाध्यक्ष थोड़ी देर बाद बाहर आए। उस महाशय को दया आ गई। उन्होंने धनपत की पूरी ख़बर ली। उन्होंने पुस्तकालय की सफ़ाई करवाने के लिए धनपत को काम पर रख लिया। अब धनपत को एक ठिकाना मिल गया।
जब भी पुस्तकालयाध्यक्ष रात को किताबें पढ़ते तो धनपत को भी किताबें पढ़ने की इच्छा होती। एक दिन उसने उनसे कुछ पुस्तकें मांगी। पुस्तकालयाध्यक्ष बहुत दयालु आदमी थे। उन्होंने धनपत को किताबें पढ़ने की इज़ाज़त दे दी। अब धनपत जब भी खाली समय पाता किताबें पढ़ता। दो-तीन वर्षों में वह बहुत बड़ा विद्वान बन गया। उसमें प्रतिभा छिपी हुई थी।
पर, भला उसके भाग्य में चैन और सुख कहाँ था? पुस्तकालयाध्यक्ष कि मृत्यु हो गई। धनपत उन्हें अध्यक्ष जी कहता तथा बाद में उनसे जुड़ी यादों को स्मरण करता। वह बाद में कहता था-“ज़िंदग़ी में मुझे एक ही ऐसा आदमी मिला जो इंसानियत के दर्दों(शायद यह प्रयोग भी गलत था) से परिचित हो। वे हैं अध्यक्ष जी। अध्यक्ष जी के मरने के बाद उसे पुस्तकालय के अन्य कर्मचारियों ने निकाल दिया। अब वह दर-दर भटकने लगा। उसके पास योग्यता थी। एक प्राध्यापक-सी योग्यता। फ़िर भी वह जहाँ गया उससे प्रमाण-पत्र की मांग की गई। वह तो अब साक्षर धनपत से विद्वान धनपत बन गया था। सिर्फ़ प्रमाण-पत्र के अभाव में उसे कहीं आश्रय नहीं मिल सका। भला हमारी सरकार और समाज को योग्यता से क्या मतलब? उन्हें तो चाहिए बस एक काग़ज़ यानि प्रमाण-पत्र। ऐसे सरकार और समाज से भला धनपत को क्या-कुछ हाथ लगनेवाला था। वह गाँव लौट आया।
गाँव में जाने पर उसे पता चला कि उसकी अनुपस्थिति में ज़मींदार द्वारा उसकी जो थोड़ी जमीन थी ज़ाल फ़रेबी से हड़प ली गयी है। जो थोड़ी उपज़ होती थी वो भी समाप्त हो गयी। अब तो चारों ओर से आर्थिक दुर्दशा ने घेर रखा था धनपत को। न जाने उसका वह अद्भुत सौंदर्य कहाँ लुप्त हो गया? एकदम दुबला हो गया था वो, गरीबी की मार से। लोग तो उसे तीन-चार वर्षों में पहचान भी नहीं पाये।
गाँव में जाकर अब वह ईंट-भठ्ठे पर मज़ूरी करने लगा। दिन भर ईंट ढ़ोना पड़ता था। बहुत कम पैसे देते थे मालिक। भला शोषक वर्ग के मालिकों को मज़दूरों के सुख से क्या मतलब? परिवार का ख़र्च भी ठीक से नहीं चल पाता था। इस आर्थिक दुर्दशा और शोषण के चलते उसके अंदर का कहानीकार जग उठा। अब वह कहानियों और अन्य साहित्यिक विधाओं के माध्यम से अपने अंतर्मन की समस्याओं को प्रकट करने लगा। प्रतिदिन रात को कुछ-न-कुछ लिखा करता था। बहुत मुश्किल से कुछ पैसे बचाकर क़ाग़ज़ ख़रीदकर साहित्य-सृजन करता था। गाँव के जो कुछ थोड़े पढ़े-लिखे लोग थे उन्हें अपनी कहानियाँ सुनाता तो उसे लोग दूसरा प्रेमचंद कहा करते थे। वह कहानियों में मानवीय संवेदनाओं और समाज की समस्याओं का चित्रण तो यों करता मानो किसी दूसरे प्रेमचंद ने जन्म ले लिया हो। लेकिन गाँव का कोई भी आदमी आर्थिक सहायता नहीं करता क्योंकि गाँव के अधिकांश लोगों की ज़िंदग़ी और आर्थिक हालत धनपत सी ही थी।
धनपत में प्रतिभा और योग्यता की कमी नही थी पर योग्यता की पूछ भला कहाँ जो वह सुखी रह सके।
पड़ोसी के इक्के-दुक्के धनी बच्चों के हाथ में खिलौने देखकर उसके बच्चे भी उससे वैसे ही खिलौनों की मांग करते थे, पर बेचारा धनपत क्या करता? शायद हर योग्य व्यक्ति की वर्तमान समाज में ऐसी ही हालत है, क्योंकि योग्य होने पर ऐसा ही सुख मिलता है। रात को बेचारा धनपत ऐसी ही दर्द भरी ज़िंदग़ी की कहानियाँ रोते-रोते लिखा करता था।
धनपत ठीक वैसे ही आर्थिक दुर्दशा से ग़ुज़र रहा था जैसे कि कथा सम्राट् प्रेमचंद ग़ुज़रे थे। नाम भी तो धनपत ही था जो प्रेमचंद का पूर्व नाम था। इस प्रकार उसे दूसरा प्रेमचंद हर क्षेत्र में कहा जा सकता है।
यही कहानी है धनपत के साहित्यकार बनने की। इसी कारण लक्ष्मी उससे ऐसी बातें कह रही थी ताकि काग़ज़ से होने वाले ख़र्च तो बच सकेंगे पर धनपत के अनुसार उस बचत से गरीबी खत्म नहीं होगी।
एक दिन ऐसे ही लक्ष्मी की बात पर खीझकर धनपत ने कहा-“क्या आशुलिपि सीख लूँ, ताकि काग़ज पर पैसे कम ख़र्च होंगे। जब देखो, क़ाग़ज़ के पैसे पर भिड़ी रहती है।”
धनपत आर्थिक रूप से कमज़ोर था। उसके परिवार के ख़र्चे के लिए भी पैसे नहीं मिल पाते थे। इसी कारण धनपत के साहित्य-सृजन से खिन्न होकर, उसकी पत्नी ने उसे न लिखने का सलाह दिया। जब भी वह धनपत को लिखते देखती उसे परिवार की स्थिति का ख़याल आ जाता जिससे वह साहित्य पर क्रुद्ध रहती थी। यद्यपि साहित्य का उसकी स्थिति में कोई दोष नहीं था। फ़िर भी मानव मन तो कभी-कभी ऊब ही जाता है।
धीरे-धीरे धनपत के परिवार की आर्थिक स्थिति डाँवाडोल होती जा रही थी पर किसी ने भी उसकी ज़िंदग़ी के ज़ख़्म पर मलहम नहीं लगाया।
इधर जैसे-जैसे बच्चों की आयु बढ़ती जा रही थी ख़र्च भी तेजी से बढ़ता जा रहा था। भूख से सभी की स्थिति दयनीय हो गयी। वह इन सारी हालातों को अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से व्यक्त किया करता था। वह मुख्यत: कहानीकार तथा द्वितीयत: उपन्यासकार था। पर, उसकी एक भी रचना पर आर्थिक सहायता नहीं दी गयी। भला अब के लोगों को साहित्य से क्या मतलब? वे तो सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं। यही हालत हमारी सरकार की भी है।
शायद धनपत के माँ के मरने की घटना की पुनरावृत्ति होने वाली थी। एक दिन लक्ष्मी भी बीमार पड़ गयी। इलाज नहीं हो पाया। भूख से बिलखते वह इस दुनियाँ को छोड़ चली। अब धनपत के अंतर्मन को एक बड़ा भारी धक्का लगा। उसके परिवार में एक-एक करके सभी बेटे-बेटियों को पोषणहीनता का शिकार होना पड़ा। इधर ईंट-भठ्ठा भी बंद हो गया। अब तो चारों ओर बस मुश्किलें और मुसीबत। अब धनपत खेतों में मज़ूरी करने लगा। एक-एक कर सभी बेटे दुनियाँ को छोड़ते गये। बेटी भी इलाज के अभाव में दुनियाँ से विदा हो गई। भगवान् ने बस एक दूसरे प्रेमचंद को कष्ट सहते रहने के लिए ज़िंदा छोड़ दिया। भला धनपत न बचता तो वैसी दु:ख-दर्द भरी कहानी कौन लिखता? अब तो धनपत का दिल पूरी तरह टूट चुका था।
किसी तरह वह दूसरा प्रेमचंद भी कष्ट सहते हुए ज़िंदग़ी का बोझ ढ़ोता(हर जगह ढ नहीं लिखकर ढ़ लिखा हुआ है, वह गलत है) रहा। अब वह गज़ल जो दर्द से भरे होते थे, लिखा करता था। एक दिन वह महान् कथाकार भी बीमारी क शिकार हुआ। अब तो मज़ूरी भी बंद। जीने का एकमात्र सहारा था उसका कठिन शारीरिक श्रम। अब बीमार होने पर वह भी साथ छोड़ चला। एक रात किसी भी तरह वह अपनी अंतिम रचना रच रहा था। वह एक ग़ज़ल लिख रहा था-
ढ़ोता रहा मैं ज़िंदग़ी भर दर्द की गठरी।
ख़ुदा भी ज़ालिम हुआ मेरी खातिर उस घड़ी।
बिना किये ग़ुनाह की सजा पाता रहा,
हाथ में बांधी गयी थी मेरे हथकड़ी।
खाने को रोटी को कौन पूछे “धनपत”
मुझे मिल पायी नहीं घास भी हरी-भरी।
इतने भूख से बेचैन था मैं इससे,
गा न सका अपने दर्द के ग़ज़ल की भी दो कड़ी।
शायद हर ज़िंदग़ी की दास्ताँ है यही,
मची है सबों की ज़िंदग़ी में अफ़रा-तफ़री।
दिल भी बैठ गया मेरा अब पूरा,
ऐसे ज़िंदग़ी की करते-करते चाकरी।
ऐसे ज़िंदग़ी की करते-करते चाकरी……यहीं तक, बस यहीं तक है उस महान् साहित्यकार के अंतिम गजल की अंतिम पँक्ति। इसी पँक्ति के लिखने के बाद हाथ में कलम लिये हुए दूसरे प्रेमचंद का निधन हो गया। इसी पँक्ति के साथ रुक गयी इस भूखे कहानीकार, कवि, लेखक, उपन्यासकार की लेखनी हमेशा के लिए रुक गयी।
अब उसके अंतिम संस्कार के लिए भी पैसे नहीं थे पड़ोसी और गाँव वालों के पास। संयोग से उसके मरने की रात के बाद सुबह ही कुछ सरकारी कर्मचारी उस गाँव में आए। गाँववालों ने उनसे धनपत तथा उसकी रचनाओं के बारे में बतलाया। वे सब उसके घर गये। वहाँ उन्होंने देखा कि तीस-चालीस पुस्तकों की पांडुलिपियाँ रखी हुई हैं। उन्होंने उनमें से कुछ को पढ़ा तथा सभी पुस्तकें शहर ले गये। बाद में उनके द्वारा धनपत की सारी रचनाएँ पढ़ी गयीं। उनको लगा कि सचमुच धनपत एक महान् तथा अद्वितीय कथाकार था। सरकार के द्वारा घोषणा की गयी कि दूसरे प्रेमचंद यानि धनपत को मरणोपरांत काफ़ी धनराशि प्रदान की जायेगी।
उधर दूसरे प्रेमचंद का शव गाँव के परती पर फेंका हुआ था। गिद्ध और चील उसे नोच-नोच कर खा रहे थे। मानो वे ही उसका अंतिम संस्कार कर रह हों।
सरकारी घोषणा तो की गयी पर सरकारी घोषणा तो बस घोषणा तक ही सीमित होती है। उसका यथार्थ के साथ कोई रिश्ता नहीं होता। एक भी रूपया दूसरे प्रेमचंद के श्राद्ध के लिए सरकार के द्वारा नहीं दिया गया। यही है हमारे समाज और हमारे सरकार की व्यवस्था।
मानो दूसरे प्रेमचंद का शव कह रहा था-“आज हमारे समाज में लेखक, साहित्यकार, कहानीकार मेरी तरह ही जीते हैं। जो सम्मान यहाँ साहित्यकारों को दिया जाता है वह पूरी दुनियाँ में मिलना नामुमकिन है। पूरी ज़िंदग़ी एक साहित्यकार दुनियाँ को कुछ-न-कुछ देता ही रहता है। क्योंकि लेना उसने सीखा ही नहीं। दूसरों को सुखी बनाने में ही उसे परम आनंद की अनुभूति होती है। वह अपनी मेहनत से खून की बूंदें टप्-टप् गिराता है, पसीना नहीं। फ़िर भी किसी के द्वारा क़ाग़ज़ तक की क़ीमत नहीं दी जाती।
किसी की योग्यता से भला किसी को क्या मतलब? सब तो अपने में ही मशग़ुल रहते हैं। एक साहित्यकार को उसकी ज़िंदग़ी में याद नहीं किया जाता क्योंकि वह स्वतंत्र होता है। स्वतंत्र रहना चाहता है। उसकी लेखनी आज़ादी की पूजा करती है। वह किसी के आधीन नहीं रहना चाहती। मैं भूख से मरनेवाला भूखा लेखक हूँ। मैं भूख का मारा हूँ। मैं सभी दु:खों-दर्दों का भुक्तभोगी हूँ। इन्हीं शुभ वचनों के साथ पूरी ज़ालिम दुनियाँ को दूसरे प्रेमचंद यानि धनपत का अंतिम प्रणाम!”
वस्तविकता का चित्रण किया है आपने इस कहानी में।
जवाब देंहटाएंअपनी उम्र तो आपने लिख ही दिया है, शायद ऐसा सबके साथ होता है जब व्यक्ति जीवन में पहली बार दीनता और लाचारी को पूरी शिद्दत से महसूस करता है, मानों आशंका से आतंकित मन की चीख.
जवाब देंहटाएंपुस्तकालयाध्यक्ष के बजाय शब्द होगा पुस्तकाध्यक्ष.
कृश्न चन्दर की कहानी सबसे बड़ा लेखक याद आई.
कुछ कुछ फिल्म प्यासा और बागबान की याद दिलाती.
विचारणीय लेख के लिए बधाई
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