बुधवार, 31 अगस्त 2011

कहीं मजाक तो नहीं है यह लोकपाल?

एक पेड़ है। बहुत मोटा। संयोग या दुर्योग जो कहें कि वह नुकसानदेह है, फायदेमंद नहीं क्योंकि उसके फल जहरीले हैं। जब छोटा था तब सारा खाद-पानी इसी ने ले लिया और मोटा होता गया। और अब बहुत मोटा हो गया है। इस जहरीले फल को खत्म करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? आप अलग-अलग समाधान सोच सकते हैं। लेकिन इसके समाधान के कुछ और तरीके हैं। जैसे उसके चारों ओर एक रस्सी बाँध दी गई है ताकि वह पेड़ बँधा रहे। लेकिन सब जानते हैं कि इस पेड़ को बाँधने का सम्बन्ध इसके फल को या इस पेड़ को खत्म करने से बिलकुल नहीं होगा। 

लोकपाल के नहीं रहने पर



















शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

रामशलाका के बाद अब अन्ना शलाका


तो यह है अन्नाशलाका। तुलसीदास की रामशलाका तो आपने सुनी होगी। अब इस अन्नामय माहौल में जरा अन्नाशलाका भी देख लीजिए।


अन्ना शलाका का हर वर्ग नीचे की नौ चौपाइयों से संबद्ध है, जिसमें आपके लिए एक सुझाव छुपा हुआ है।  अन्ना का स्मरण कर आँखें मूंदकर (खोलकर भी चलेगा) किसी भी ख़ाने पर उंगली रखें। ध्यान रहे अंगूठा नहीं। फिर उस वर्ग यानि खाने से आगे नवें खाने पर जाएँ। उस खाने में लिखे वर्ण या शब्दांश को लिख लें या याद रख लें। मात्रा भी ठीक से ध्यान रखें। जैसे के बाद आए तो इसका अर्थ का होगा। यह नवें खाने तक जाने का क्रम तब तक जारी रखें जब तक आप शुरु के खाने तक (जिसे आपने शुरु में चुना था) वापस आ न जाएँ। यह काम पूरी श्रद्धा के साथ करें वरना फल खट्टा भी हो सकता है

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-1)


राहुल सांकृत्यायन भारत ही नहीं संसार के लेखन-जगत में एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक साथ बहुत से क्षेत्रों में असाधारण विद्वत्ता के स्वामी लेखकों और चिंतकों में उनका नाम पहली पँक्ति के लेखकों-चिंतकों में भी शायद सबसे पहले ही लिया जा सकता है। रामकृष्ण परमहंस को सब धर्मों की उपासना के लिए जाना जाता है लेकिन एक चेतन यात्रा का जो दर्शन राहुल जी में होता है, वह परमहंस में नहीं। राहुल जी की यात्रा एक सगुणोपासक संन्यासी से निर्गुणोपासक तक और फिर बौद्ध से मार्क्स तक आती है। ऐसी यात्रा का दूसरा उदाहरण और वह भी इस अन्दाज में कि मनुष्य और समाज की समझ विकसित होती जाये, शायद ही है।
आज से यहाँ उनके उपर उर्मिलेश की किताब को प्रकाशित किया जा रहा है। अन्त में उसे पीडीएफ़ में उपलब्ध करा दिया जाएगा। आज किताब में शुरु में दिए गए वक्तव्य और भूमिका से शुरु करते हैं।

योद्धा महापंडित:

राहुल सांकृत्यायन

लेखक- उर्मिलेश

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
प्रकाशन वर्ष- 1994



वक्तव्य

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

देख तमाशा अनशन का


अनवरत पर इस लेख को पढ़ा तो टिप्पणी लिखते-लिखते यह लेख लिख दिया।

अन्ना से सरकार की अनबन और अन्ना के अनशन का खेल रोज दिख रहा है। तानाशाही तरीका अपनाना कहीं से न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। अन्ना के साथ जो हुआ, वह निश्चय ही ठीक नहीं लेकिन कुछ सवाल और समस्याएँ तो हैं ही।
मोमबत्ती जलाने से कुछ होगा? यह तो एक नकल मात्र है। दिवाली के दिन दिये कम नहीं जलते। और लोगों को एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि क्या अन्ना इतने प्रसिद्ध नहीं होते तब उनके साथ यही व्यवहार किया जाता? यानि आप किसी बात के लिए अनशन करेंगे तो आपके साथ सरकार और पुलिस इतने आदर से पेश आएंगे। आदर का अर्थ कि सरकार ने अन्ना को परेशान तो बिलकुल नहीं किया। जतिन दास जैसा आदमी मर जाता है लेकिन कुछ लोग अन्ना को न मरने देंगे, न खुद जाएंगे। अन्ना को आगे भेज कर अर्जुन जैसे कायर किस्म के लोग महाभारत का कौन सा हिस्सा लिख रहे हैं? मरें अन्ना, अनशन करें अन्ना और रेमन मैगसेसे किसी और को।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

भारतीय राजनीति और हिन्दी व्याकरण -1

कुछ अजीब तो नहीं लग रहा कि हिन्दी व्याकरण से राजनीति का सम्बन्ध क्या है। बात तो हर भारतीय भाषा के व्याकरण की, की जा सकती है लेकिन फिलहाल हम हिन्दी भाषी होते हुए, हिन्दी व्याकरण की ही बात करेंगे।
      व्याकरण नियम, भाषा और शब्द का ही दूसरा नाम है। व्याकरण में शब्दकोश, काल, सर्वनाम, अपवाद, संधि, समास, कारक, प्रत्यय, उपसर्ग, वचन, चिन्ह, छंद आदि तो होंगे ही। आइये शुरु करते हैं, हिन्दी व्याकरण में राजनीति का खेल।

रविवार, 14 अगस्त 2011

आजादी (कविता)


कुछ लोग कहेंगे, बकवास कविता है। कुछ कहेंगे, जब देखो रोता रहता है। कुछ कहेंगे, क्या घिसी पिटी बात दुहराकर कविता बना रहे हो। कुछ कहेंगे, बहुत कविताएँ देखी हैं ऐसी, कुछ अलग लिखो। कुछ लोग कहेंगे, क्या आजादी के दिन खुशी मनाना छोड़कर यह विलाप शुरु कर दिया। कुछ कहेंगे, चोरी की कविता है। कुछ कहेंगे, रहा नहीं गया तो कुछ छापना आवश्यक था क्या। और कुछ और कुछ-कुछ कहेंगे। फिर भी यह एक कविता है और इसे आज नहीं पाँच साल पहले पंद्रह अगस्त 2006 को लिखा था एक रास्ते से गुजरते एक लड़के ने। पता नहीं क्यों लिखा था? उसे खोजकर पूछना है कि क्यों लिखा था इसे? कोई काम-धाम नहीं था क्या? अब आप बताइए कि क्या पूछें उससे? और क्यों पूछें उससे? क्या आपको या मुझे हक है कि संगणक (कम्प्यूटर) पर चलाती अंगुलियों से और घर में बैठकर खा-पीकर आराम से  उससे यह पूछें कि किसके लिए लिखा था उसने?

शनिवार, 13 अगस्त 2011

अंग्रेजी के खिलाफ़ जब बोले श्री सेठ गोविन्ददास( चौथा और अन्तिम भाग):- अवश्य पढ़ें

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद  (कु)तर्कों  को चुनौती देते हुए जब बोलता है तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधान' से लिया गया है। इसे देखिए, लोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)


पहला भाग        दूसरा भाग        तीसरा भाग



अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का आधार अँगरेजी: एक भ्रमजाल

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

अभिनेता भी थे भगतसिंह


भगत सिंह के क्रांतिकारी रूप से तो सभी परिचित हैं लेकिन वह एक कुशल अभिनेता भी थे। भगत सिंह के अभिनेता रूप से परिचित करा रहे हैं- राजशेखर व्यास।

गत सिंह और अभिनय-! निश्चय ही यह बात सारे लोगों को चौंका सकती है क्योंकि उनसे बड़ा यथार्थवादी क्रांतिकारी तो भारत में दूसरा नहीं हुआ फिर भला वह अभिनय कैसे कर सकते थे? लेकिन जीवन को रंगशाला समझनेवाले महानायक जीवन को भी एक अभिनय से ज्यादा नहीं समझते थे।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

अंग्रेजी के खिलाफ़ जब बोले श्री सेठ गोविन्ददास(भाग-3):- अवश्य पढ़ें

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद  (कु)तर्कों  को चुनौती देते हुए जब बोलता है तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधान' से लिया गया है। इसे देखिए, लोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)



वैज्ञानिक उधार खाता

रविवार, 7 अगस्त 2011

अंग्रेजी के खिलाफ़ जब बोले श्री सेठ गोविन्ददास(भाग-2):- अवश्य पढ़ें

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद (कु)तर्कों  को चुनौती देते हुए जब बोलता है तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधानसे लिया गया है। इसे देखिएलोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

अंग्रेजी के खिलाफ़ जब बोले श्री सेठ गोविन्ददास(भाग-1):- अवश्य पढ़ें

(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद (कु)तर्कों  को चुनौती देते हुए जब बोलता है तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधान' से लिया गया है। इसे देखिए, लोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)