(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद (कु)तर्कों को चुनौती देते हुए जब बोलता है तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधान' से लिया गया है। इसे देखिए, लोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)
वैज्ञानिक उधार खाता
हमारी भाषाओं में इस प्रकार का साहित्य पहले हो और तब वे शिक्षा का माध्यम बनाई जायँ, यह बात किसी से यह कहने के समान है कि तैरना पहले सीख लो और पानी में पीछे घुसो।
(यह एक ऐसा तर्क है जिसका जवाब शब्द से शायद ही दिया जा सके। गाँधी जी ने भी यही कहा था कि बिना पाठ्यक्रम और किताबों के इन्तजार के अपनी भाषा लाओ, बाद में किताबें पीछे-पीछे आ जाएंगी। - प्रस्तुतकर्ता)
इस प्रश्न के एक पहलू और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू पर अबतक लोगों की दृष्टि नहीं गई है। विज्ञान का इतिहास हमें यह बताता है कि नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों की खोज और नये-नये यन्त्रों का निर्माण विश्वविद्यालय से उपाधि-प्राप्त विद्यार्थियों ने इतना नहीं किया है, जितना कि उन लोगों ने किया है, जिन्हें कि जीवन में स्वयं की समस्याएँ स्वयं अपनी प्रतिभा से सुलझानी पड़ती हैं, अर्थात् श्रमिकों ने और शिल्पियों ने। हम यह समझे बैठे हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में जो पाठ पढ़ाये जाते हैं, उन्हीं के सहारे इन विश्वविद्यालयों के स्नातक हमारी सब यान्त्रिक और आर्थिक समस्याओं का हल कर लेंगे। एक प्रकार से देखा जाय, तो विज्ञान के क्षेत्र में भी हम इसी भरोसे बैठे हैं कि पाश्चात्य जगत् से मिले वैज्ञानिक उधार-खाते से हमारा उसी प्रकार काम चल जायगा, जिस प्रकार कि आर्थिक क्षेत्र में विदेशी धन के उधार-खाते से हम चला रहे हैं।
(आज के स्थिति की तुलना भी करके देख लीजिए। पचास साल पहले की जो स्थिति थी, आज भी कुछ वैसी ही है। - प्रस्तुतकर्ता)
किन्तु, भारत के भौगोलिक वातावरण से और भारत के प्राकृतिक परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए केवल पाश्चात्य जगत् के उधार के उधार से हमारा काम नहीं चलने का और यदि किसी सीमा तक चल भी जाय तो, हम अपने देश को विज्ञान के उस स्तर तक नहीं ला सकेंगे, जिस स्तर तक कि अन्य देश अपनी नई-नई खोजों को, नये-नये यन्त्र-निर्माण के द्वारा पहुँच गये हैं और आगे भी पहुँचेंगे। यदि हम वैज्ञानिक जगत् में दूसरों के समकक्ष बनना चाहते हैं, तो हमें स्वयं नई-नई वैज्ञानिक खोजें और नये-नये प्रकार के यन्त्र-निर्माण करने होंगे और यह सब हम पाश्चात्य जगत् की जूठन से नहीं कर पायेंगे।
(यहाँ ध्यान दें कि ये बातें एक आवेश में कही गई बात नहीं है, बल्कि विज्ञान के विकास की प्रक्रिया को समझने के बाद कही गई हैं। - प्रस्तुतकर्ता)
इसके लिए यह आवश्यक होगा कि हमारा प्रत्येक श्रमिक, प्रत्येक कृषक, प्रत्येक नर-नारी इस बात के लिए सचेष्ट हो जाय कि जो समस्याएँ उसके सामने आती हैं उनके समाधान के लिए अहर्निश नई-नई युक्तियाँ सोचे, नये-नये यन्त्र निकाले और इस प्रकार नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों का पता चलाये। आवश्यकता नवनिर्माण अथवा उत्पत्ति की जननी है(Necessity is the mother invention)। जब जीवन की चुनौती हम स्वीकार करते हैं, तभी हम नये सत्य खोज निकालते हैं, नये यन्त्र, नई युक्तियाँ बना पाते हैं। स्पष्ट है कि हम अपने देश के निन्यानबे प्रतिशत वासियों को यह अवसर इस कारण प्रदान नहीं कर पा रहे कि हम अँगरेजी से चिपटे हुए हैं और अपने इस देश में हमने यह भ्रम फैला रखा है जिसे अँगरेजी नहीं आती, वह किसी प्रकार की वैज्ञानिक खोज या वैज्ञानिक निर्माण नहीं कर सकता। विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा पढ़ने के लिए अपने युवकों को मजबूर करके हमने उनकी प्रतिभा को तो कुण्ठित कर ही दिया है, उनको रट्टू मण्डूक बना ही दिया है, साथ ही हमने अपने देश के साधारण जन में भी असहायता की, विचारशून्यता की प्रवृत्ति पैदा कर दी है और ज्ञान के स्रोत हर प्रकार से अवरुद्ध कर दिये हैं। हमारा आर्थिक तन्त्र आज लँगड़ी चाल से चल रहा है, उसमें जनता के हृदय का स्पंदन नहीं है, उसके पीछे जनबल नहीं है, इस देश का महान् अपरिमित जनबल नहीं है। सच तो यह है कि हमारा अँगरेजी-वर्ग अपने स्वार्थवश यह भूल बैठा है कि इस देश की कितनी हानि इस अँगरेजी के कारण हो रही है। हम अनेक वर्षों तक अपनी राष्ट्रीय महासभा में यह बात अपने संकल्पों, अपने प्रस्तावों द्वारा कहते रहे हैं कि अँगरेजी के कारन हमारे देश का महान् सांस्कृतिक, आर्थिक और नैतिक महापतन हुआ है। जब हम यह बात कहते थे, तब हमारा आशय इतना ही न था कि हमारा पतन इस कारण हुआ कि इस देश में अँगरेज राजतन्त्र के प्रमुख पदों पर आसीन थे और वे उस तन्त्र को अपने स्वार्थ के लिए चलाते थे, वरन् हमारे मन में यह बात भी थी कि इस पतन का कारण वह भाषा भी है, जिसके द्वारा वह अपना शासन इस देश में चला रहे थे। अँगरेजी भाषा के कारण हमारी अपने देश की भाषाएँ पंगु हो गईं। उनको वह दाना-पानी न मिला, जो उनके स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक था। अँगरेजी के कारण हमारे जनसाधारण असहाय हो गये; क्योंकि राज-दरबार में जाने पर वे शासकों से अपनी भाषा में न तो बात कर सकते थे और न शासकों की भाषा समझ सकते थे, अत: उन्हें अपने जीवन की गाढ़ी कमाई शासकों के दलालों को इसलिए देनी पड़ी कि वे दलाल इनकी बात शासकों तक पहुंचा सकें और शासकों के आदेश उन्हें समझा सकें। अँगरेजी के कारण हमारे देश के शिल्पी, हमारे देश के महान् वास्तुकार दर-दर के भिखारी हो गये। जिन लोगों ने कोणार्क जैसे मन्दिर का निर्माण किया था, उनके वैसे ही कुशल वंशज केवल इसलिए रंक हो गये कि वे अँगरेजी न जानते थे और अँगरेजी साम्राज्य के राज-दरबार में केवल वे ही कुशल वास्तुकार माने जाते थे, जिन्होंने किसी अँगरेजी वास्तु-विज्ञान के विद्यालय में शिक्षा पाई थी। अँगरेजी ने हमें प्रगति-पथ पर तो क्या चलाया, हमसे वह विज्ञान, वह शिल्प, वह कला भी बहुत-कुछ छीन ली, जो हम अँगरेजी राज्यकाल के पूर्व अर्जित कर पाये थे। आज भी अँगरेजी से हमारी कितनी हानि हो रही है, इसपर जरा विचार कीजिए। अँगरेजी के मोह के कारण हमारे सहस्रों विद्यार्थी इंग्लैण्ड, अमरीका के विद्यालयों में जाकर पढ़ते हैं और इस प्रकार देश का करोड़ों रुपया विदेशों में खर्च हो रहा है। हमारे यहाँ आज अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक विद्यालयों में भी अनिवार्य कर दी गई है। परिणामत:, हमें अपनी प्राथमिक कक्षाओं के लिए अँगरेजी की पुस्तिकाएँ भी विदेशों से आयात करने के लिए सम्भवत: करोड़ों रुपया खर्च करना पड़ रहा है।
(आज आयात तो नहीं करना पड़ता लेकिन जो लोग अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपने बच्चों की किताबें खरीदते हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि धन का कितना बड़ा अपव्यय देश में हर साल होता है। - प्रस्तुतकर्ता)
आखिर, यह सब क्यों हो रहा है? वह कौन-सी बात है, जिसके लिए प्राथमिक कक्षाओं में अँगरेजी पढ़ानी आवश्यक समझी जा रही है और उसकी पढ़ाई पर धनराशि व्यय की जा रही है? आखिर, प्राथमिक कक्षाओं में इस अँगरेजी-पढ़ाई से हमारे ग्रामीण बालकों को क्या लाभ होता है? इसके अतिरिक्त हमारे देश में अँगरेजी का उच्च स्तर बनाये रखने के लिए एक विशेष संस्था हैदराबाद में कायम की गई है, जिसपर लाखों रुपया खर्च होगा। इस प्रकार, जो धन सर्जनात्मक कार्यों और आर्थिक उत्पादन के लिए काम में लाया जा सकता था, वह आज इस विफल प्रयास में खर्च किया जा रहा है कि इस देश को अँगरेजी-भाषाभाषी बना दिया जाय और यहाँ की भाषाओं का अस्तित्व नष्ट हो जाय। कैसे मजे की बात है कि अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक कक्षाओं से तो अनिवार्य की जा रही है, किन्तु जिस हिन्दी को हमारी प्रभुता-सम्पन्न संविधान-सभा ने संघ की भाषा विहित किया था, उसकी पढ़ाई कई प्रदेशों में अनिवार्य नहीं की गई है और यह पूरा प्रयास किया जा रहा है कि वह उन प्रदेशों में प्रवेश न कर पाये। मैं समझता हूँ कि कुछ लोगों के मन में यह परिकल्पना वर्त्तमान है कि अँगरेजी को प्राथमिक करके इस देश के वासियों को वैसा ही अँगरेजी का ज्ञान करा दिया जाय, जैसा कि अफ्रिका के नीग्रो लोगों को कराया गया और इस प्रकार उन्हें टूटी-फूटी अँगरेजी में अपनी बात व्यक्त करने के योग्य बनाकर यह कह दिया जाय कि इस देश के अधिकतर वासी अँगरेजी-भाषाभाषी हैं और इसलिए अँगरेजी का ही यहाँ अक्षुण्ण साम्राज्य बना रहे। यद्यपि उनकी परिकल्पना कभी सफल नहीं हो सकती, फिर भी वे लोग मोहवश इस प्रकार का प्रयास कर रहे हैं और किसी-न-किसी बहाने से देश के धन, समय और शक्ति का अपव्यय इस लक्ष्य-पूर्त्ति के लिए कर रहे हैं। किन्तु, स्पष्ट है कि इस प्रकार हमारे देश की महान् हानि हो रही है। अँगरेजी के कारण हमारा नैतिक पतन भी कुछ कम नहीं हुआ है। हमारे देश में भ्रष्टाचार और युवकों में अनुशासनहीनता और उद्दण्डता भी बहुत-कुछ इसी कारण फैली है कि अँगरेजी देशों से आनेवाली कौमिक पढ़-पढ़कर हमारे विद्यार्थी कुछ ऐसी बातों की ओर आकृष्ट होते हैं, जो कि हमारी मर्यादाओं, हमारी परम्पराओं, हमारे आदर्शों के सर्वथा प्रतिकूल हैं। और, इस प्रकार अनुशासन का आधार, अर्थात् आदर्शों में आस्था और परम्पराओं के प्रति आदर नष्टप्राय होता जा रहा है। साथ ही, अँगरेजी के मोह के कारण हमारे देश में आज यह भावना घर करती जा रही है कि हमारी भाषाएँ पंगु हैं और इस प्रकार हमारे देश में ऐसे वर्ग की सृष्टि हो रही है, को अपनी जाति, अपनी भाषा और अपने देश का भद्दा परिहास करने से नहीं चुकता। आजकल इस वर्ग के लोग यत्र-तत्र भारतीय भाषाओं और विशेषत: हिन्दी का मजाक उड़ाते दिखते हैं। अँगरेजी का एक शब्द लेकर वह उसके लिए कोई मनमाना हिन्दी का लम्बा-चौड़ा पर्याय देकर और उस पर्याय के प्रति परिहास कर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि हिन्दी-जैसी उपहासास्पद भाषा कोई हो ही नहीं सकती।
(और यह भी एक बड़ा सच है कि उपहास करनेवालों को हिन्दी या अपनी भाषा का कोई ज्ञान नहीं होता। लेकिन वे अपने किसी भाषावैज्ञानिक या महान भाषाविद से कम नहीं समझते। एक शब्द सुना और कह डालते हैं कि हिन्दी ऐसी है और वैसी है। - प्रस्तुतकर्ता)
उनलोगों के मन में सम्भवत: यह विचार उठता ही नहीं कि अपनी भाषा का परिहास अपनी जननी का परिहास है। भाषा हमारी माता के समान होती है, वह हमारे सांस्कृतिक शरीर की रचना करती है, उसका पोषण करती है, उसको अनुप्राणित करती है। अत:, अपनी भाषा पर कींचड़ उछालना अपनी माँ पर कींचड़ उछालना है। मैं संसार-भर में घूमा हूँ, पर मुझे एक भी ऐसा देश और जाति नहीं दिखाई दी, जिसके लोग अपनी भाषा का स्वयं अनादर तो क्या, किसी अन्य से भी अनादर सहन कर सकें। किन्तु, इस अँगरेजी-मोह के कारण हमारे देश में ऐसे लोग हैं, जो इस बात में कभी नहीं हिचकिचाते कि वे अपनी भाषा का अनादर करें और उसकी खिल्ली उड़ायें। जब भी वे बोलते हैं, तभी अपनी भाषा का परिहास करते हैं और उसके लेखकों और उपासकों की खिल्ली उड़ाते हैं। उन्हें सम्भवत: यह खयाल नहीं आता कि ऐसा करके वे अपने मुख पर ही कलक-कालिमा पोत रहे हैं और यदि आता भी है, तो सम्भवत: अपने अँगरेजी-प्रेम के कारण वे अपना काला मुँह करने के लिए भी तैयार हैं। इतना ही नहीं, इस अँगरेजी के कारण हमारा देश एक प्रकार से इंग्लैण्ड का अनुवाद बनाया जा रहा है। वैसा ही अनुवाद, जैसा कि शेक्सपियर ने अपने एक नाटक में अपने एक पात्र का करके दिखाया है। मैं समझता हूँ कि आपलोगों ने ‘मिड समर नाइट्स ड्रीम’ नाटक पढ़ा होगा। इसमें एक पात्र बॉटम नामी है, जिसके जिसके सिर पर एक मसखरे वनदेव ने गधे का सिर रख दिया था, उसे देखकर उसका मित्र सहसा कह उठता है-‘Bottom Thou art Translated.’
(यह एक ऐसा तर्क है जिसका जवाब शब्द से शायद ही दिया जा सके। गाँधी जी ने भी यही कहा था कि बिना पाठ्यक्रम और किताबों के इन्तजार के अपनी भाषा लाओ, बाद में किताबें पीछे-पीछे आ जाएंगी। - प्रस्तुतकर्ता)
इस प्रश्न के एक पहलू और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू पर अबतक लोगों की दृष्टि नहीं गई है। विज्ञान का इतिहास हमें यह बताता है कि नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों की खोज और नये-नये यन्त्रों का निर्माण विश्वविद्यालय से उपाधि-प्राप्त विद्यार्थियों ने इतना नहीं किया है, जितना कि उन लोगों ने किया है, जिन्हें कि जीवन में स्वयं की समस्याएँ स्वयं अपनी प्रतिभा से सुलझानी पड़ती हैं, अर्थात् श्रमिकों ने और शिल्पियों ने। हम यह समझे बैठे हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में जो पाठ पढ़ाये जाते हैं, उन्हीं के सहारे इन विश्वविद्यालयों के स्नातक हमारी सब यान्त्रिक और आर्थिक समस्याओं का हल कर लेंगे। एक प्रकार से देखा जाय, तो विज्ञान के क्षेत्र में भी हम इसी भरोसे बैठे हैं कि पाश्चात्य जगत् से मिले वैज्ञानिक उधार-खाते से हमारा उसी प्रकार काम चल जायगा, जिस प्रकार कि आर्थिक क्षेत्र में विदेशी धन के उधार-खाते से हम चला रहे हैं।
(आज के स्थिति की तुलना भी करके देख लीजिए। पचास साल पहले की जो स्थिति थी, आज भी कुछ वैसी ही है। - प्रस्तुतकर्ता)
किन्तु, भारत के भौगोलिक वातावरण से और भारत के प्राकृतिक परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए केवल पाश्चात्य जगत् के उधार के उधार से हमारा काम नहीं चलने का और यदि किसी सीमा तक चल भी जाय तो, हम अपने देश को विज्ञान के उस स्तर तक नहीं ला सकेंगे, जिस स्तर तक कि अन्य देश अपनी नई-नई खोजों को, नये-नये यन्त्र-निर्माण के द्वारा पहुँच गये हैं और आगे भी पहुँचेंगे। यदि हम वैज्ञानिक जगत् में दूसरों के समकक्ष बनना चाहते हैं, तो हमें स्वयं नई-नई वैज्ञानिक खोजें और नये-नये प्रकार के यन्त्र-निर्माण करने होंगे और यह सब हम पाश्चात्य जगत् की जूठन से नहीं कर पायेंगे।
(यहाँ ध्यान दें कि ये बातें एक आवेश में कही गई बात नहीं है, बल्कि विज्ञान के विकास की प्रक्रिया को समझने के बाद कही गई हैं। - प्रस्तुतकर्ता)
इसके लिए यह आवश्यक होगा कि हमारा प्रत्येक श्रमिक, प्रत्येक कृषक, प्रत्येक नर-नारी इस बात के लिए सचेष्ट हो जाय कि जो समस्याएँ उसके सामने आती हैं उनके समाधान के लिए अहर्निश नई-नई युक्तियाँ सोचे, नये-नये यन्त्र निकाले और इस प्रकार नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों का पता चलाये। आवश्यकता नवनिर्माण अथवा उत्पत्ति की जननी है(Necessity is the mother invention)। जब जीवन की चुनौती हम स्वीकार करते हैं, तभी हम नये सत्य खोज निकालते हैं, नये यन्त्र, नई युक्तियाँ बना पाते हैं। स्पष्ट है कि हम अपने देश के निन्यानबे प्रतिशत वासियों को यह अवसर इस कारण प्रदान नहीं कर पा रहे कि हम अँगरेजी से चिपटे हुए हैं और अपने इस देश में हमने यह भ्रम फैला रखा है जिसे अँगरेजी नहीं आती, वह किसी प्रकार की वैज्ञानिक खोज या वैज्ञानिक निर्माण नहीं कर सकता। विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा पढ़ने के लिए अपने युवकों को मजबूर करके हमने उनकी प्रतिभा को तो कुण्ठित कर ही दिया है, उनको रट्टू मण्डूक बना ही दिया है, साथ ही हमने अपने देश के साधारण जन में भी असहायता की, विचारशून्यता की प्रवृत्ति पैदा कर दी है और ज्ञान के स्रोत हर प्रकार से अवरुद्ध कर दिये हैं। हमारा आर्थिक तन्त्र आज लँगड़ी चाल से चल रहा है, उसमें जनता के हृदय का स्पंदन नहीं है, उसके पीछे जनबल नहीं है, इस देश का महान् अपरिमित जनबल नहीं है। सच तो यह है कि हमारा अँगरेजी-वर्ग अपने स्वार्थवश यह भूल बैठा है कि इस देश की कितनी हानि इस अँगरेजी के कारण हो रही है। हम अनेक वर्षों तक अपनी राष्ट्रीय महासभा में यह बात अपने संकल्पों, अपने प्रस्तावों द्वारा कहते रहे हैं कि अँगरेजी के कारन हमारे देश का महान् सांस्कृतिक, आर्थिक और नैतिक महापतन हुआ है। जब हम यह बात कहते थे, तब हमारा आशय इतना ही न था कि हमारा पतन इस कारण हुआ कि इस देश में अँगरेज राजतन्त्र के प्रमुख पदों पर आसीन थे और वे उस तन्त्र को अपने स्वार्थ के लिए चलाते थे, वरन् हमारे मन में यह बात भी थी कि इस पतन का कारण वह भाषा भी है, जिसके द्वारा वह अपना शासन इस देश में चला रहे थे। अँगरेजी भाषा के कारण हमारी अपने देश की भाषाएँ पंगु हो गईं। उनको वह दाना-पानी न मिला, जो उनके स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक था। अँगरेजी के कारण हमारे जनसाधारण असहाय हो गये; क्योंकि राज-दरबार में जाने पर वे शासकों से अपनी भाषा में न तो बात कर सकते थे और न शासकों की भाषा समझ सकते थे, अत: उन्हें अपने जीवन की गाढ़ी कमाई शासकों के दलालों को इसलिए देनी पड़ी कि वे दलाल इनकी बात शासकों तक पहुंचा सकें और शासकों के आदेश उन्हें समझा सकें। अँगरेजी के कारण हमारे देश के शिल्पी, हमारे देश के महान् वास्तुकार दर-दर के भिखारी हो गये। जिन लोगों ने कोणार्क जैसे मन्दिर का निर्माण किया था, उनके वैसे ही कुशल वंशज केवल इसलिए रंक हो गये कि वे अँगरेजी न जानते थे और अँगरेजी साम्राज्य के राज-दरबार में केवल वे ही कुशल वास्तुकार माने जाते थे, जिन्होंने किसी अँगरेजी वास्तु-विज्ञान के विद्यालय में शिक्षा पाई थी। अँगरेजी ने हमें प्रगति-पथ पर तो क्या चलाया, हमसे वह विज्ञान, वह शिल्प, वह कला भी बहुत-कुछ छीन ली, जो हम अँगरेजी राज्यकाल के पूर्व अर्जित कर पाये थे। आज भी अँगरेजी से हमारी कितनी हानि हो रही है, इसपर जरा विचार कीजिए। अँगरेजी के मोह के कारण हमारे सहस्रों विद्यार्थी इंग्लैण्ड, अमरीका के विद्यालयों में जाकर पढ़ते हैं और इस प्रकार देश का करोड़ों रुपया विदेशों में खर्च हो रहा है। हमारे यहाँ आज अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक विद्यालयों में भी अनिवार्य कर दी गई है। परिणामत:, हमें अपनी प्राथमिक कक्षाओं के लिए अँगरेजी की पुस्तिकाएँ भी विदेशों से आयात करने के लिए सम्भवत: करोड़ों रुपया खर्च करना पड़ रहा है।
(आज आयात तो नहीं करना पड़ता लेकिन जो लोग अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपने बच्चों की किताबें खरीदते हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि धन का कितना बड़ा अपव्यय देश में हर साल होता है। - प्रस्तुतकर्ता)
आखिर, यह सब क्यों हो रहा है? वह कौन-सी बात है, जिसके लिए प्राथमिक कक्षाओं में अँगरेजी पढ़ानी आवश्यक समझी जा रही है और उसकी पढ़ाई पर धनराशि व्यय की जा रही है? आखिर, प्राथमिक कक्षाओं में इस अँगरेजी-पढ़ाई से हमारे ग्रामीण बालकों को क्या लाभ होता है? इसके अतिरिक्त हमारे देश में अँगरेजी का उच्च स्तर बनाये रखने के लिए एक विशेष संस्था हैदराबाद में कायम की गई है, जिसपर लाखों रुपया खर्च होगा। इस प्रकार, जो धन सर्जनात्मक कार्यों और आर्थिक उत्पादन के लिए काम में लाया जा सकता था, वह आज इस विफल प्रयास में खर्च किया जा रहा है कि इस देश को अँगरेजी-भाषाभाषी बना दिया जाय और यहाँ की भाषाओं का अस्तित्व नष्ट हो जाय। कैसे मजे की बात है कि अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक कक्षाओं से तो अनिवार्य की जा रही है, किन्तु जिस हिन्दी को हमारी प्रभुता-सम्पन्न संविधान-सभा ने संघ की भाषा विहित किया था, उसकी पढ़ाई कई प्रदेशों में अनिवार्य नहीं की गई है और यह पूरा प्रयास किया जा रहा है कि वह उन प्रदेशों में प्रवेश न कर पाये। मैं समझता हूँ कि कुछ लोगों के मन में यह परिकल्पना वर्त्तमान है कि अँगरेजी को प्राथमिक करके इस देश के वासियों को वैसा ही अँगरेजी का ज्ञान करा दिया जाय, जैसा कि अफ्रिका के नीग्रो लोगों को कराया गया और इस प्रकार उन्हें टूटी-फूटी अँगरेजी में अपनी बात व्यक्त करने के योग्य बनाकर यह कह दिया जाय कि इस देश के अधिकतर वासी अँगरेजी-भाषाभाषी हैं और इसलिए अँगरेजी का ही यहाँ अक्षुण्ण साम्राज्य बना रहे। यद्यपि उनकी परिकल्पना कभी सफल नहीं हो सकती, फिर भी वे लोग मोहवश इस प्रकार का प्रयास कर रहे हैं और किसी-न-किसी बहाने से देश के धन, समय और शक्ति का अपव्यय इस लक्ष्य-पूर्त्ति के लिए कर रहे हैं। किन्तु, स्पष्ट है कि इस प्रकार हमारे देश की महान् हानि हो रही है। अँगरेजी के कारण हमारा नैतिक पतन भी कुछ कम नहीं हुआ है। हमारे देश में भ्रष्टाचार और युवकों में अनुशासनहीनता और उद्दण्डता भी बहुत-कुछ इसी कारण फैली है कि अँगरेजी देशों से आनेवाली कौमिक पढ़-पढ़कर हमारे विद्यार्थी कुछ ऐसी बातों की ओर आकृष्ट होते हैं, जो कि हमारी मर्यादाओं, हमारी परम्पराओं, हमारे आदर्शों के सर्वथा प्रतिकूल हैं। और, इस प्रकार अनुशासन का आधार, अर्थात् आदर्शों में आस्था और परम्पराओं के प्रति आदर नष्टप्राय होता जा रहा है। साथ ही, अँगरेजी के मोह के कारण हमारे देश में आज यह भावना घर करती जा रही है कि हमारी भाषाएँ पंगु हैं और इस प्रकार हमारे देश में ऐसे वर्ग की सृष्टि हो रही है, को अपनी जाति, अपनी भाषा और अपने देश का भद्दा परिहास करने से नहीं चुकता। आजकल इस वर्ग के लोग यत्र-तत्र भारतीय भाषाओं और विशेषत: हिन्दी का मजाक उड़ाते दिखते हैं। अँगरेजी का एक शब्द लेकर वह उसके लिए कोई मनमाना हिन्दी का लम्बा-चौड़ा पर्याय देकर और उस पर्याय के प्रति परिहास कर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि हिन्दी-जैसी उपहासास्पद भाषा कोई हो ही नहीं सकती।
(और यह भी एक बड़ा सच है कि उपहास करनेवालों को हिन्दी या अपनी भाषा का कोई ज्ञान नहीं होता। लेकिन वे अपने किसी भाषावैज्ञानिक या महान भाषाविद से कम नहीं समझते। एक शब्द सुना और कह डालते हैं कि हिन्दी ऐसी है और वैसी है। - प्रस्तुतकर्ता)
उनलोगों के मन में सम्भवत: यह विचार उठता ही नहीं कि अपनी भाषा का परिहास अपनी जननी का परिहास है। भाषा हमारी माता के समान होती है, वह हमारे सांस्कृतिक शरीर की रचना करती है, उसका पोषण करती है, उसको अनुप्राणित करती है। अत:, अपनी भाषा पर कींचड़ उछालना अपनी माँ पर कींचड़ उछालना है। मैं संसार-भर में घूमा हूँ, पर मुझे एक भी ऐसा देश और जाति नहीं दिखाई दी, जिसके लोग अपनी भाषा का स्वयं अनादर तो क्या, किसी अन्य से भी अनादर सहन कर सकें। किन्तु, इस अँगरेजी-मोह के कारण हमारे देश में ऐसे लोग हैं, जो इस बात में कभी नहीं हिचकिचाते कि वे अपनी भाषा का अनादर करें और उसकी खिल्ली उड़ायें। जब भी वे बोलते हैं, तभी अपनी भाषा का परिहास करते हैं और उसके लेखकों और उपासकों की खिल्ली उड़ाते हैं। उन्हें सम्भवत: यह खयाल नहीं आता कि ऐसा करके वे अपने मुख पर ही कलक-कालिमा पोत रहे हैं और यदि आता भी है, तो सम्भवत: अपने अँगरेजी-प्रेम के कारण वे अपना काला मुँह करने के लिए भी तैयार हैं। इतना ही नहीं, इस अँगरेजी के कारण हमारा देश एक प्रकार से इंग्लैण्ड का अनुवाद बनाया जा रहा है। वैसा ही अनुवाद, जैसा कि शेक्सपियर ने अपने एक नाटक में अपने एक पात्र का करके दिखाया है। मैं समझता हूँ कि आपलोगों ने ‘मिड समर नाइट्स ड्रीम’ नाटक पढ़ा होगा। इसमें एक पात्र बॉटम नामी है, जिसके जिसके सिर पर एक मसखरे वनदेव ने गधे का सिर रख दिया था, उसे देखकर उसका मित्र सहसा कह उठता है-‘Bottom Thou art Translated.’
हमारी भाषाओं पर अक्षमता का आरोप
हमारे वे अँगरेजी के उपासक यह मान बैठे हैं कि हमारे देश में जो कुछ अच्छाई आनी है, वह सब अँगरेजी-साहित्य के अनुवाद से आती है और इसीलिए वे, समय-समय पर इस देश की भाषाओं के उपासकों को चुनौती देते रहते हैं कि इस अँगरेजी शब्द का क्या देशी पर्याय है या उस अँगरेजी शब्द का क्या देशी पर्याय है, मानों हमें अँगरेजी के पर्यायों के अतिरिक्त और कुछ काम रह ही नहीं गया है। वे बार-बार कहते हैं कि देशी भाषाओं में यह क्षमता नहीं कि वे अँगरेजी शब्दों की विभिन्न ध्वनियों को व्यक्त कर सकें और इसलिए उनमें यह क्षमता भी नहीं है कि वे अँगरेजी भाषा में उपलब्ध अमूल्य वैज्ञानिक, दार्शनिक और अन्य प्रकार की निधियों को यथावत् व्यक्त कर सकें। इस बात ला ढिंढोरा सारे जगत् में पीटते हैं कि भारतीय भाषाएँ पंगु हैं, अक्षम हैं और इसलिए भारत में अँगरेजी रखी जा रही है, रखी जायगी, पढ़ाई जा रही है और पढ़ाई जायगी। कैसा पतन है यह हमारा कि हम यह मान बैठे हैं कि हममें अपनी कोई नैसर्गिक सर्जन-शक्ति नहीं है, हम कोई मौलिक सृष्टि नहीं कर सकते, ऐसा नहीं है, हम ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं कुछ नहीं दे सकते। यह बात कि किसी विशेष अँगरेजी शब्द की सब ध्वनियों को हम किसी एक भारतीय शब्द से व्यक्त नहीं कर सकते, ऐसा नहीं है, जिससे भारतीय भाषाओं की अक्षमता लेशमात्र भी सिद्ध होती हो। हर शब्द के पीछे उस जाति का इतिहास होता है, उस भूमि का वातावरण होता है, भौगोलिक परिस्थितियाँ होती हैं, जिस जाति और जिस देश में उस शब्द का प्रयोग होता रहा है। प्रत्येक अँगरेजी शब्द के पीछे इंग्लैण्ड की भौगोलिक परिस्थितियाँ। इंग्लिश जाति का इतिहास और वहाँ के सामाजिक सम्बन्ध और संस्थाएँ हैं, अत: भारतीय भाषाओं का तो प्रश्न ही क्या, संसार की किन्हीं अन्य भाषाओं में भी ऐसा कोई शब्द नहीं मिल सकता, जो उनकी सब ध्वनियों को यथावत् व्यक्त कर सके। इसी प्रकार, भारतीय भाषाओं के शब्दों के लिए भी अँगरेजी में कभी ऐसे पर्याय नहीं मिल सकते, जो उनके शुद्ध स्वरूप और विभिन्न ध्वनियों को यथावत् व्यक्त कर सकें। मैं पूछता हूँ कि क्या कोई अँगरेजी का महारथी मुझे जलेबी, बालुसाई, गुलाबजामुन, दहीबड़े, चाट जैसे हमारे साधारण शब्दों का ठीक-ठीक अँगरेजी-पर्याय बता सकता है? तब क्या यह कहा जा सकता है कि अँगरेजी भाषा पंगु है, अक्षम है और उसमें विचारों की अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है? बात यह है कि जब भी एक भाषा में निहित विचारों और भावनाओं को दूसरी भाषाओं में अनूदित करने का अवसर आता है, तब यह सम्भव नहीं होता कि अनुवाद पूर्णत: मूल को ध्वनित कर सके। थोड़ा-बहुत अन्तर रह ही जाता है, पर उस कारण किसी भाषा की अक्षमता की दुहाई नहीं पीटी जाने लगती। पर, जो लोग माता के समान आदरणीय अपनी भाषा का उपहास और तिरस्कार करने पर तुले हुए हैं, वे भला यह कहने में क्यों संकोच करेंगे कि हमारी भाषाएँ आधुनिक जगत् के योग्य नहीं हैं। मैं इस सम्बन्ध में एक बात और कहना चाहता हूँ। आजकल हिन्दी का तिरस्कार करने के लिए बराबर यह कहा जाता है कि जो हिन्दी काम में लाई जा रही है, वह इतनी क्लिष्ट, इतनी दुरूह है और की जा रही है कि कोई उसे नहीं समझ सकता। मेरी यह मान्यता है कि यह बात उन लोगों द्वारा अधिकतर दुहराई जा रही है, जो हिन्दी के कभी समर्थक नहीं थे, जिन्होंने हिन्दी जीवन में कभी पढ़ी नहीं, जो हिन्दी से आज भी लगभग अपरिचित हैं और जो यह समझते हैं कि यही भाषा सरल है, जो उनकी अपनी समझ में आ जाय, अर्थात् जो स्वयं अपने को ही इस बात का मापदण्ड माने बैठे हैं कि कौन-सी भाषा दुरूह और कौन-सी सरल है। कम-से-कम जो लोग वैज्ञानिक दृष्टि से सब प्रश्नों पर विचार करने की दुहाई देते हैं, उन्हें यह तो सोचना चाहिए कि स्वयं अपने को ही और अपने सीमित ज्ञान को ही किसी प्रश्न के निर्णय के लिए मापदण्ड न मान लेना चाहिए। विज्ञान का यह पहला सिद्धान्त है कि निजी व्यक्तित्व को ओझल करके प्रश्न पर विचार किया जाय। किन्तु, हिन्दी का यह दुर्भाग्य है कि उसके विषय में विचार करते समय कुछ ऐसे महान् व्यक्ति भी, जो सब दृष्टि से परमपूज्य और आदरणीय हैं, इस विचार की वैज्ञानिक प्रणाली को भूल जाते हैं। आज जो हिन्दी लिखी जा रही है, वह कहाँ तक बोधगम्य और जनप्रिय है, इस बात का निर्णय तो इसी से हो जाता है कि हिन्दी के समाचार-पत्र, हिन्दी पुस्तकें जनता में कितनी बिकती हैं, कितनी पढ़ी जाती हैं। स्मरण रहे कि ये हिन्दी की पुस्तकें या ये हिन्दी के समाचार-पत्र ऐसी परिस्थितियों में जनता द्वारा गृहीत किये जा रहे हैं, जो हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के सर्वथा प्रतिकूल कर दी गई हैं। आज हिन्दी और देशी भाषाओं को वैसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं है, जैसी अँगरेजी के लिए उदारता से उपलब्ध की जा रही है। यह सभी को ज्ञात है और इस सम्बन्ध में लोकसभा, राज्यसभा आदि में भी काफ़ी प्रश्नोत्तर तथा भाषण हो चुके हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रों को सरकारी विज्ञापन उस प्रकार नहीं मिलते, जिस प्रकार अँगरेजी-पत्रों को मिलते हैं, चाहे इन भारतीय भाषाओं के पत्रों की ग्राहक-संख्या अँगरेजी-पत्रों से अधिक ही क्यों न हो। विज्ञापन देने के सम्बन्ध में सरकार की इस नीति में तुरन्त परिवर्तन होना आवश्यक है। विना इसके भारतीय भाषाओं के पत्रों का स्तर ऊँचा नहीं उठ सकता और न उनका आर्थिक ढाँचा सुधर सकता और न उनका सम्मान ही बढ़ सकता। क्या संघ और क्या राज्य सर्वत्र ही अँगरेजी पढ़े-लिखे को ही शासन में पद मिलता है, जिसकी अँगरेजी अच्छी नहीं, वह सेवा-आयोगों द्वारा ली जानेवाली परीक्षाओं में कदापि सफल नहीं हो सकता। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जिन प्रदेशों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएँ कर दी गई हैं, वहाँ के विद्यार्थी इन परीक्षाओं में अपने को पिछड़ा हुआ पाते हैं। इस प्रकार, उन प्रदेशों को दण्ड दिया जा रहा है, जिन्होंने भारतीय भाषाओं का आँचल पकड़ा है। फिर, इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि अनेक माता-पिता जो अपनी संतान का भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं, इस बात की माँग करें कि अँगरेजी पुन: शिक्षा का माध्यम बनाई जाय और अँगरेजी का स्तर ऊँचा किया जाय। साथ ही, इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि हमारे देश का अभिजात-वर्ग इस बात का प्रयास करे कि उसके पुत्र-पुत्रियाँ अँगरेजी या पब्लिक स्कूलों में प्रवेश पा जायँ। कुछ दिन हुए, एक आँग्ल भारतीय नेता ने दम्भ के साथ कहा था कि मन्त्री लोग भी आँग्ल भारतीय विद्यालयों में अपने बालकों को प्रविष्ट करने के लिए लालायित रहते हैं। पर, जब हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के गले में फाँसी डाल दी गयी है और उनका आसरा लेनेवालों के लिए कोई भविष्य नहीं छोड़ा गया है, तब इसमें आश्चर्य कि अपने बालकों को उच्च आसन पर बिठाने के इच्छुक माता-पिता इन आँग्ल भारतीय विद्यालयों में उनको प्रवेश कराना चाहें। इसपर भी देशी भाषाओं की पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं और पढ़ी जाती हैं और पाठकों को यह कभी नहीं लगता कि उनकी भाषा उनकी समझ में नहीं आती।
अँगरेजी-भक्तों की वैज्ञानिक शब्दावली का फॉर्मूला
मजे की बात यह है कि लोग इस बात की बहुत दुहाई देते हैं कि हिन्दी अत्यन्त सरल बनाई जाय, उन्हीं लोगों ने यह फैसला भी कर दिया है कि जहाँतक वैज्ञानिक शब्दावली का प्रश्न है, वह पूरी-की-पूरी अँगरेजी भाषा से ज्यों-की-त्यों ले ली जाय। क्या यह बात उन्हें नहीं दिखती कि वह शब्दावली हमारे देशवासियों के लिए, अत्यन्त दुरूह और क्लिष्ट होगी और यहाँ के 99.9 प्रतिशत लोग उसे समझने में पूर्णत: असमर्थ होंगे। मैं इस सम्बन्ध में आपके समक्ष कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। नीम जैसे सरल सुबोध और जनप्रिय शब्द के लिए अब हमारी वैज्ञानिक शब्दावली में Azadirachta Indica लिखा जायगा। मैं नहीं जानता कि आपमें से कितने लोग और आपमें से ही क्यों, इस देश में से कितने लोग इस शब्द को समझ पायेंगे। मैं तो यह भी कहता हूँ कि अँगरेजी के हिमायतियों में से भी 99 प्रतिशत इसको बोल न सकेंगे, समझने का तो प्रश्न ही क्या। ऐसा ही दूसरा शब्द हल्दी है, जिसके लिए हमारी वैज्ञानिक शब्दावली में लिखा जायगा Curuma Longa, धनिये के लिए लिखा जायगा Coriandrum Satibum, हींग के लिए लिखा जायगा Ferula Asa Foetida; इसी प्रकार सोने को Aurum कहा जायगा, लोहे को Ferrum और सीसे को Plumbum कहा जायगा।
(एक और उदाहरण और देख लेते हैं। अंग्रेजी में एक रोग का नाम है (कई जगह इस शब्द को अंग्रेजी का सबसे बड़ा शब्द कहा गया है) – pneumonoultramicroscopicsilicovolcanoconiosis, अब इसे जरा पढ़कर देख लें। अंग्रेजी-मोहियों से आग्रह है कि इसे एक बार पढ़ कर सुना दें। अब यह नहीं कि हिन्दी के बड़े-बड़े शब्द खोजकर लाएँ और कहें कि यह भी तो भारी है। वैसे हिन्दी में ऐसे एक शब्द, लौहपथगामी-सूचक-दर्शक-हरित-ताम्र-लौह-पट्टिका का जिक्र भी आया है। वैसे तो इस शब्द पर संदेह है लेकिन आप तुलना कर लें कि किसे बोलना आपके लिए आसान है। - प्रस्तुतकर्ता)
मैंने कुछ अन्य शब्दों की एक सूची तैयार की है, जिसको यहाँ पढ़कर सुनाना आवश्यक नहीं है, इस सूची में तो कुछ ही शब्द दिये हुए हैं, किन्तु ऐसे ही लाखों शब्द, जिन्हें कोई नहीं समझ सकता, हिन्दी पर लादने का निश्चय किया जा चुका है। मैं यह पूछता हूँ कि सरलता का सिद्धान्त इस क्षेत्र में क्यों लुप्त हो गया। यदि यह कहा जाय कि वैज्ञानिक क्षेत्र में यह आवश्यक है कि शब्द बड़े निश्चित और सधे हुए हों और इसलिए कठिन शब्दों से नहीं बचा जा सकता हो, तो फिर यह कहना कि अन्य क्षेत्रों में सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए या भावों की चामत्कारिक अभिव्यक्तियों के लिए कठिन शब्द आवश्यक न होंगे, ठीक नहीं है। शब्दों का चयन विषय के अनुसार होता है और एक विषयवालों को दूसरे विषय के शब्द दुरूह लगा करते हैं। इसका एक बड़ा उत्तम उदाहरण अभी हाल में मिला है। संयुक्तराष्ट्र में वक्ताओं के भाषणों का तात्कालिक अनुवाद करने के लिए अत्यन्त योग्य अनुवादक और कई भाषाओं के ज्ञाता नियुक्त हैं। कुछ दिन हुए, वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में इन अनुवादकों को वैज्ञानिकों के भाषणों का अनुवाद करने का काम सौंपा गया, किन्तु इनमें से एक भी उसे न कर पाया; क्योंकि जिन विषयों की चर्चा इस वैज्ञानिक सम्मेलन में थी, उन विषयों से ये अनुवादक परिचित न थे। अत:, यदि हिन्दी की अन्य भारतीय भाषाओं की विभिन्न विषयक शब्दावली हमारे कुछ राजनीतिज्ञों की समझ में न आये तो उन्हें यह न समझना चाहिए कि जान-बूझकर कोई इन भाषाओं को दुरूह बना रहा है और कम-से-कम उन लोगों को तो इस सम्बन्ध में कुछ कहने का अधिकार हो ही नहीं सकता, जिन्होंने भारतीय भाषाओं में से किसी को पढ़ने का कष्ट नहीं उठाया है। अत: मेरा विनम्र निवेदन है कि अँगरेजी के भक्त हमारी भाषाओं का निरादर और अपमान करने से अब अलग रहें। यह हमारे देश का अपमान है, हमारी सांस्कृतिक जननी का अपमान है।
(एक और उदाहरण और देख लेते हैं। अंग्रेजी में एक रोग का नाम है (कई जगह इस शब्द को अंग्रेजी का सबसे बड़ा शब्द कहा गया है) – pneumonoultramicroscopicsilicovolcanoconiosis, अब इसे जरा पढ़कर देख लें। अंग्रेजी-मोहियों से आग्रह है कि इसे एक बार पढ़ कर सुना दें। अब यह नहीं कि हिन्दी के बड़े-बड़े शब्द खोजकर लाएँ और कहें कि यह भी तो भारी है। वैसे हिन्दी में ऐसे एक शब्द, लौहपथगामी-सूचक-दर्शक-हरित-ताम्र-लौह-पट्टिका का जिक्र भी आया है। वैसे तो इस शब्द पर संदेह है लेकिन आप तुलना कर लें कि किसे बोलना आपके लिए आसान है। - प्रस्तुतकर्ता)
मैंने कुछ अन्य शब्दों की एक सूची तैयार की है, जिसको यहाँ पढ़कर सुनाना आवश्यक नहीं है, इस सूची में तो कुछ ही शब्द दिये हुए हैं, किन्तु ऐसे ही लाखों शब्द, जिन्हें कोई नहीं समझ सकता, हिन्दी पर लादने का निश्चय किया जा चुका है। मैं यह पूछता हूँ कि सरलता का सिद्धान्त इस क्षेत्र में क्यों लुप्त हो गया। यदि यह कहा जाय कि वैज्ञानिक क्षेत्र में यह आवश्यक है कि शब्द बड़े निश्चित और सधे हुए हों और इसलिए कठिन शब्दों से नहीं बचा जा सकता हो, तो फिर यह कहना कि अन्य क्षेत्रों में सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए या भावों की चामत्कारिक अभिव्यक्तियों के लिए कठिन शब्द आवश्यक न होंगे, ठीक नहीं है। शब्दों का चयन विषय के अनुसार होता है और एक विषयवालों को दूसरे विषय के शब्द दुरूह लगा करते हैं। इसका एक बड़ा उत्तम उदाहरण अभी हाल में मिला है। संयुक्तराष्ट्र में वक्ताओं के भाषणों का तात्कालिक अनुवाद करने के लिए अत्यन्त योग्य अनुवादक और कई भाषाओं के ज्ञाता नियुक्त हैं। कुछ दिन हुए, वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में इन अनुवादकों को वैज्ञानिकों के भाषणों का अनुवाद करने का काम सौंपा गया, किन्तु इनमें से एक भी उसे न कर पाया; क्योंकि जिन विषयों की चर्चा इस वैज्ञानिक सम्मेलन में थी, उन विषयों से ये अनुवादक परिचित न थे। अत:, यदि हिन्दी की अन्य भारतीय भाषाओं की विभिन्न विषयक शब्दावली हमारे कुछ राजनीतिज्ञों की समझ में न आये तो उन्हें यह न समझना चाहिए कि जान-बूझकर कोई इन भाषाओं को दुरूह बना रहा है और कम-से-कम उन लोगों को तो इस सम्बन्ध में कुछ कहने का अधिकार हो ही नहीं सकता, जिन्होंने भारतीय भाषाओं में से किसी को पढ़ने का कष्ट नहीं उठाया है। अत: मेरा विनम्र निवेदन है कि अँगरेजी के भक्त हमारी भाषाओं का निरादर और अपमान करने से अब अलग रहें। यह हमारे देश का अपमान है, हमारी सांस्कृतिक जननी का अपमान है।
(जारी…)
एकाग्र करना कठिन हो रहा है. पैरा में होने पर बेहतर पठनीय होगा.
जवाब देंहटाएंचन्दन जी,
जवाब देंहटाएंस्व-भाषा पर बेहतरीन प्रस्तुति है .
इस आलेख का प्रयोग करना चाहूँगा कभी 'हिन्दी साहित्य कला प्रतिष्ठान' संस्था की जब भी स्मारिका बनने की योजना बनेगी इसे अवश्य लूँगा.
मैंने भी इस बात को चिह्नित किया है कि कुछ अंग्रेजी भाषा के प्रशंसक 'हिन्दी' भाषा को सरल से सरलतर करने के हिमायती हैं. यहाँ तक कि उन्हें व्याकरणिक त्रुटियों से भी कोई सरोकार नहीं होता.. किन्तु दूसरी तरह वही इंग्लिश में एक स्पेलिंग भी बड़ी मिस्टेक मानते हैं और उसके मुश्किल से मुश्किल शब्दों से गुरेज नहीं करते....
हिन्दी में सरलीकरण के नाम पर उसकी गुणवत्ता समाप्त करने में लगे हैं लोग... उसकी मौलिक शब्दावली लुप्त कर देने पर तुली है बेख़ौफ़ इंग्लिश मानसिकता......... आपका ये लेख न केवल हमें सावधान कर रहा है अपितु स्व-भाषा पर गौरव करने का कारण भी बता रहा है.
सच है विकास की तीव्रगति स्वभाषा से ही संभव है.
राहुल जी का मानना भी ठीक है .... लम्बे लेख को छोटे-छोटे अनुच्छेदों में बाँटकर रखा करें. पाठक निर्भीक रूप से आयेंगे. लम्बे लेखों से रुचि घटने का कारण यह भी है कि उसकी प्रस्तुति आकर्षक नहीं होती.. उपयोगिता इस लेख की काफी है... इसलिये इसका उपयोग करूँगा.
जवाब देंहटाएंचन्दन जी, लेख कॉपी-पेस्ट नहीं हो पा रहा है कृपया इसकी प्रति मुझे मेल करें, मुझे अपने संग्रह में रखना है.
जवाब देंहटाएंe-mail : pratul1971@gmail.com
जय हो हिन्दी भाषा की।
जवाब देंहटाएंकापी कर रख लिया है,
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