कुछ अजीब तो नहीं लग रहा कि हिन्दी व्याकरण से राजनीति का सम्बन्ध क्या है। बात तो हर भारतीय भाषा के व्याकरण की, की जा सकती है लेकिन फिलहाल हम हिन्दी भाषी होते हुए, हिन्दी व्याकरण की ही बात करेंगे।
व्याकरण नियम, भाषा और शब्द का ही दूसरा नाम है। व्याकरण में शब्दकोश, काल, सर्वनाम, अपवाद, संधि, समास, कारक, प्रत्यय, उपसर्ग, वचन, चिन्ह, छंद आदि तो होंगे ही। आइये शुरु करते हैं, हिन्दी व्याकरण में राजनीति का खेल।
शब्दकोश: इसमें शब्द होते हैं। अभी-अभी प्रधानमंत्री का 15 अगस्त को दिया व्याख्यान पढ़ने को मिला। शुरु के दो-तीन अनुच्छेद पढ़े और आगे पढ़ने की बिलकुल ही जरूरत न लगी। प्रधानमंत्री का भाषण जो हर साल होता है, वहाँ एक शब्दकोश का इस्तेमाल होता है। इतना ही नही वहाँ वाक्य भी वही इस्तेमाल होते हैं, जो पिछली बार हुए थे। जैसे फिल्मों के रिमेक का चक्कर है, वैसे वहाँ भाषण में भी दुहराने का चक्कर है। यानि वाक्यों में दाएँ-बाएँ करके भाषण तैयार। हाँ, तो शब्दकोश की बात। हर वर्ग के अपने शब्द हैं, उनका अपना शब्दकोश हैं। पाँचवीं के छात्र के लिए कम शब्दों वाला शब्दकोश है तो स्नातकोत्तर के लिए अधिक शब्दों वाला। इसी तरह हमारे प्रधानमंत्री (या कहें प्रधानमंत्री कार्यालय) के पास भी एक शब्दकोश है। उसमें कुछ शब्द हैं और नियम यह है कि हर साल उसी शब्द सीमा में रहकर भाषण देना है। तो प्रधानमंत्री महाशय हर साल उसी शब्द-सीमा में ही नहीं, उसी वाक्य-सीमा, उसी विचार-सीमा में रहकर कहते आए हैं कि – “प्यारे देशवासियो! हम तेजी से आगे बढ़ रहें हैं लेकिन हमारे पीछे जाने की गति कम नहीं हुई है। इसलिए हम दो कदम आगे और चार कदम पीछे चलते रहेंगे।” आदि आदि…। हर साल जैसे लगता है कि ‘राम और श्याम’, ‘सीता और गीता’ और ‘चालबाज’ के नाम पर हम एक कहानी ही देख रहे हैं और आश्चर्य यह है कि इन तीनों के मुख्य कलाकार को फिल्मफेयर का श्रेष्ठ अभिनेता या अभिनेत्री पुरस्कार भी मिल जाता है।
जब भी सवाल उठता है तब बने बनाये वाक्य तैयार रहते हैं। ‘इसकी जाँच हो रही है’, ‘दोषी को छोड़ा नहीं जाएगा’, ‘इसके लिए समिति और आयोग गठित कर के इसका निपटारा किया जाएगा’, ‘सरकार अपना काम कर रही है’- यही सब नमूने हैं वाक्यों के।
तो कुल मिलाकर कहना यह है कि हमारे मंत्री, नेता, विधायक, सांसद सारे लोग शब्दकोश के गम्भीर अध्येता हैं और इन सबकी अपनी सीमाएँ हैं, और चूँकि ये सब अच्छे छात्र हैं, इसलिए सीमा से बाहर नहीं आते चाहे कितनी सीमाएँ दम तोड़ रही हों। ध्यान देकर देखिए तो पता चलेगा कि विधायक या सांसद जो मंत्री नहीं हैं, किसी समारोह के अवसर पर वही शब्द, वही शैली और वाक्य दुहराते नजर आएंगे। और मंत्री किस्म के लोगों की शब्द-सूची तो और अच्छी होती है। कभी कभी तो बिहारी के दोहे भी फीके पड़ जाते हैं। एक वाक्य के दस मायने हमारे पत्रकार लोग निकाल लेते हैं और जनता इस अद्भुत साहित्यिक शब्द-प्रयोग से चकित हो जाती है। और बहुअर्थी वाक्य के लिए बहुमत से इन्हें यमलोक, नहीं नहीं लोकसभा में पहुंचा देती है।
काल: यह वह काल नहीं जो जान लेता है। अकाल भी नहीं। जब मैंने काल ध्यान दिया तो साफ साबित होता है कि राजनीति में एक ही काल सबसे अधिक प्रिय है और सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है, वह है भविष्य काल।
वर्तमान काल तो चिन्ता का विषय है ही नहीं। उसे कुछ नहीं कह सकते। बचा भूतकाल तो वह यह बेचारा मर चुका है या बीत चुका है। कोई नेता अपना भूतकाल देखेगा, तो कैसे जिएगा वह? इसे हम अधिक महत्व नहीं दे सकेंगे। अब बचा एकमात्र भविष्यकाल।
आप ध्यान दें- हर दिन अखबार, रेडियो, दूरदर्शन (निकटदर्शन रहे तो समस्या हो जाएगी) पर खबरें देखिए। ‘जाएगा’, ‘जाएगी’, ‘जाएंगे’, ‘होगा’, ‘होंगे’ सारे भविष्यकाल को व्यक्त करने वाले शब्द निश्चय ही दिखेंगे। हमारे मंत्री-मुख्यमंत्री-विधायक-सांसद के मुखारविन्द से यह काल सर्वाधिक निकलता है। घोषणाएँ तो सार्वकालिक उदाहरण हैं। तो जनता इन्तजार करे कि बहुत कुछ घोषित है और किया भी जाएगा। जनता कभी भूतकाल के सवाल नहीं उठाती। सबूत तो हर चुनाव है। वैसे भी हाईटेक जमाना है। भविष्य की कल्पना और बातें होनी चाहिए न कि भूतकाल के सवाल कि क्या नहीं किया या क्या कहा था जैसे फालतू के सवाल।
बस आप आज से अखबार में खबरों की तरफ़ ध्यान देना शुरु कर दें, बस आप खुद देख लेंगे कि मरने-दुर्घटना-समारोह-सम्मान जैसी खबरों को छोड़कर भविष्यकाल के सिवा शायद ही और कुछ होता हो। इसे कहते हैं कल्पनाशीलता और दूरदर्शिता।
(जारी…)
राजनीति का व्याकरण आपने जान लिया है, यह अच्छा नहीं हुआ :)) अगली किस्त की प्रतीक्षा रहेगी.
जवाब देंहटाएंइतिहास स्वयं को दुहराता है.
जवाब देंहटाएंराहुल जी से:
जवाब देंहटाएंमैं नहीं समझा कि यह क्या कहना चाहते हैं। और वैसे भी इतिहास स्वयं को दुहराता है एक अंधविश्वासी किस्म का वाक्य लग रहा है।
१६ अगस्त २०११ १०:४८ अपराह्न
यदि कहूं कि चमत्कार और क्रांति रोज नहीं होती तो यह तुम्हें नारे की तरह पिटा-पिटाया लगेगा, लेकिन ध्यान रखो कि प्रसंग और संदर्भ के साथ कथित अंधविश्वासी वाक्य, मुहावरे, नारों की अर्थवत्ता होती है.
जवाब देंहटाएं१७ अगस्त २०११ ७:४३ पूर्वाह्न
चमत्कार और क्रान्ति रोज नहीं होती, सही लेकिन इतिहास स्वयं को दुहराता है ऐसे ही लगा जैसे चौरासी लाख जन्मों की बात कोई धर्मवादी कहता है, इसलिए कहा था कि यह वाक्य ठीक नहीं लगा। …वैसे आपने इस लेख पर ऐसा क्यों कहा, अभी तक समझ नहीं आया।
जवाब देंहटाएं१७ अगस्त २०११ ८:२८ पूर्वाह्न
व्याकरण के बिम्ब लिए मेहनत से लिखी गयी सार्थक पोस्ट आभार
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