रविवार, 31 जुलाई 2011

दूसरा प्रेमचंद (कहानी)

(यह कहानी मूलतः तब लिखी गई थी जब इसे लिखने वाला पंद्रह साल का था। और अब आंशिक संशोधन के साथ पोस्‍ट की जा रही है।)

अब भी तुम किताबें ही लिखते रहोगे या हमारे लिए कुछ करोगे भी? हम भूख से मर रहे हैं और तुम हो कि बस, जब देखो कुछ-न-कुछ लिखते रहते हो। आखिर कब तक लिखोगे तुम? लिखने से क्या तुम्हारी ग़रीबी दूर हो जायेगी? तुम अपना समय लिखने में लगा रहे हो पर कोई लाभ तो हो नहीं रहा है। मेरी मानो तो तुम लिखना छोड़ दो। ग़रीबी की मार असह्य होने पर लक्ष्मी ने कहा।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

नौकरीपेशा ध्यान दें- चार दिन के दो हजार


एक महाशय ने नौकरी के लिए आवेदन-पत्र भेजा। उसने मैनेजर से कहा कि उसे प्रतिवर्ष दो हजार वेतन मिलना चाहिए।

लेकिन मैनेजर ने कुछ दूसरी तरह सोचा-
एक वर्ष में 365 दिन होते हैं। आप प्रतिदिन आठ घंटे सोते हैं, कुल हुए 122 दिन। शेष बचते हैं 243 दिन।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

चंद्रशेखर आजाद - मन्मथनाथ गुप्त(दूसरा और अन्तिम भाग)

पिछला भाग

(जन्मदिन: 23 जुलाई)
चंद्रशेखर आजाद को उनके जन्मदिन के दिन याद करना तो बस एक झूठा उत्सव है। होना तो यह चाहिए कि हम साल के हर दिन ऐसे लोगों को याद करें। और सिर्फ़ याद ही नहीं करें वरन इनसे प्रेरणा भी लें। जन्मदिन और शहादत के दिन किसी शहीद को याद कर लेना या एक आलेख चिपका देना तबतक महत्वहीन है जबतक हम उनके सपनों का भारत नहीं बना डालते। लेकिन यहाँ तो सालों से परम्परा बन चुकी है कि बस जन्मदिन के दिन दो फूल स्मारकों पर, चित्रों पर चढ़ा लो और ड्यूटी पूरी हो जाती है। लेकिन इन उत्सवों के बहाने हम उन लोगों को याद तो कर लेते हैं वरना देश और इसके लोगों को अब फुरसत नहीं है कि वे रिमिक्स गानों, पब, बार, डांस और पार्टी के चक्कर से बाहर निकलकर एक झलक इधर भी देख लें। इसी समाज का हिस्सा होने के चलते आइए मैं भी एक बार इस झूठे उत्सव में शामिल हो जाता हूँ। (पिछले भाग से ही खुद का लिखा हुआ)

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

चंद्रशेखर आजाद - मन्मथनाथ गुप्त

(जन्मदिन: 23 जुलाई)
चंद्रशेखर आजाद को उनके जन्मदिन के दिन याद करना तो बस एक झूठा उत्सव है। होना तो यह चाहिए कि हम साल के हर दिन ऐसे लोगों को याद करें। और सिर्फ़ याद ही नहीं करें वरन इनसे प्रेरणा भी लें। जन्मदिन और शहादत के दिन किसी शहीद को याद कर लेना या एक आलेख चिपका देना तबतक महत्वहीन है जबतक हम उनके सपनों का भारत नहीं बना डालते। लेकिन यहाँ तो सालों से परम्परा बन चुकी है कि बस जन्मदिन के दिन दो फूल स्मारकों पर, चित्रों पर चढ़ा लो और ड्यूटी पूरी हो जाती है। लेकिन इन उत्सवों के बहाने हम उन लोगों को याद तो कर लेते हैं वरना देश और इसके लोगों को अब फुरसत नहीं है कि वे रिमिक्स गानों, पब, बार, डांस और पार्टी के चक्कर से बाहर निकलकर एक झलक इधर भी देख लें। इसी समाज का हिस्सा होने के चलते आइए मैं भी एक बार इस झूठे उत्सव में शामिल हो जाता हूँ।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

एक अंग्रेजी लेखक के बाप को सम्मान देने की तैयारी जिसने भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी

इच्छा तो कुछ और लिखने की थी लेकिन लिख कुछ और रहा हूँ। एक बेहद शर्मनाक खबर है। अपनी इस पोस्ट का शीर्षक मैं वहीं से लेकर इस्तेमाल कर रहा हूँ।

खबर यहाँ है , विस्तार से पढिए। हमारी सरकार ने भगतसिंह जैसों के लिए तो पहले ही अंग्रेजी में टेरोरिस्ट शब्द किताबों में लिखवाया है। उग्रवादी या आतंकवादी तो पहले से भगतसिंह को घोषित किया गया है। आई सी एस ई और सी बी एस ई बोर्ड तो हैं ही देश को नीचे ले जाने के लिए। इन बोर्डों के भक्तजनों को दुख पहुँचना लाजमी है। उनसे माफी नहीं मांगूंगा क्योंकि अपनी किताब में भी इनकी आलोचना की है। एक अच्छा पक्ष दिखाकर बोर्ड को बहुत अच्छा साबित करनेवाले भाई लोग यहाँ बयानबाजी न करें।

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

ईश्वर तुम्हें धिक्कार है! (एक अधूरी कविता)

निर्मल  हृदय की  प्रार्थना
निष्कपट मन की  भावना
कोई    नहीं   सम्भावना
फिर   भी तुम्हारी साधना
यह  कर  रहा  संसार है!
ईश्वर  तुम्हें  धिक्कार है!

सोमवार, 18 जुलाई 2011

21वीं सदी का समय(कविता)

सात महीने पहले की एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ। कुछ लोग सोच सकते हैं कि मैं पुराना माल ठेल रहा हूँ। लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि मेरे पास इन दिनों विचारों की कमी नहीं है। बस थोड़ी शान्ति और समय मिले तो प्रस्तुत करूंगा। तो लीजिए पढ़िए 2011 में 21वीं सदी की कविता।

बिल्ली ने कहा ।
दूध नहीं पिउंगी,
दूध में मिलावट है,
पानी मिलाया गया है उसमें
और वो भी, वो पानी
जिसमें पहले से मिलावट है ।

रविवार, 17 जुलाई 2011

आदरणीय कहकर भी हो सकता है अपमान

इस बार अधिक कहना नहीं है। बस एक बात कहना चाहता हूँ और वह भी एक वाक्य में। अभी ब्लॉग-लोक का  भ्रमण करते हुए कुछ पढ़ लिया। लेकिन नीचे का वाक्य खुद से बनाया है। बिना साफ-साफ बताए अब सुनिए क्या कहना चाहता हूँ।

 आदरणीय कहकर भी किसी का अपमान किया जा सकता है। 

इस सत्य का ज्ञान किन-किन पाठकों को है?

शनिवार, 16 जुलाई 2011

ऊर्जा की बचत( भोजपुरी कविता का हिन्दी अनुवाद)

कुछ दिन पहले एक कविता लिखी थी। अपनी मातृभाषा में यानि भोजपुरी में। उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। अपने व्यस्तता और कुछ परेशानियों की वजह से बहुत सारे विचारों को लिख नहीं पा रहा हूँ। आप मूल कविता यहाँ पढ़ सकते हैं।


गरीब का पेट
एक मशीन है
जो एक दिन के खाना से भी
चला लेता है दो-चार दिन तक काम।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

नाथूराम ने अंग्रेजी भाषा का राज कायम करने में दिया है बहुत बड़ा सहयोग

नाथूराम गोडसे। जाने कितने लोगों का आदर्श है ये नाम। अखंड भारत का स्वप्न देखनेवाले अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो नाथूराम को आदर्श माने बैठे हैं। मैं आज नाथूराम की बात किसी विवाद के लिए नहीं कर रहा। आज मेरा विषय कुछ अलग है। 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सभी लोगों में गाँधी जी स्वभाषा के सबसे अधिक पक्षधर थे। इतना तो तय माना जा सकता है कि अगर 1948 के बाद और भारतीय संविधान बनने तक गाँधी जीवित होते तब निश्चित तौर पर हिन्दी और भारतीय भाषा का स्थान आज से बेहतर होता। आज जो अंग्रेजी की स्थिति है, उसमें और 1890 की स्थिति में रत्ती भर का फर्क नहीं है। अंग्रेजी का कोई सुखद प्रभाव हमारे देश पर कभी रहा है, इसपर सोचना व्यर्थ है। यह न सोचें कि अंग्रेजी के माध्यम से बहुत भारी बात हो गई। कुछ लोग यह सोचते हैं कि अंग्रेजी के चलते हमारे देश के लोगों को विश्व का श्रेष्ठ साहित्य पढ़ने को मिला लेकिन इस बात पर मैं यहाँ अधिक नहीं कहूंगा क्योंकि मैं अपनी किताब में इस पर विस्तार से लिख चुका हूँ।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

अफ़जल को मिले नोबेल शान्ति पुरस्कार, साथ में भारत रत्न भी


महान क्रान्तिकारी अफ़जल साहब ने ऐसा क्या कर दिया कि सरकारें उन्हें हर दिन सरका रही हैं। पहले भाजपा ने और अब कांग्रेस ने, दोनों ने काम तो एक ही किया है सजा को सरकाते रहने का। नोबेल शान्ति पुरस्कार जो अधिकतर अशान्ति फैलाने वालों को दिया जाता है, ओबामा को दिया गया है। वह भी राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद ही। आखिर क्या किया है उसने? मैंने तो सुना है कि जिस समय नोबेल की घोषणा की गई उस समय भी अमेरिका युद्ध के विचारों में या युद्ध में डूबा हुआ था। उसका नेतृत्त्व तो ओबामा ही कर रहा था। लेकिन उसे यह पुरस्कार दिया गया। यह बताता है कि अमेरिका का नोबेल समिति पर कितना दबदबा है। पिछले बीस सालों में अमेरिका ने इतने नोबेल झटके हैं कि उसके पास नोबेल पुरस्कार रखने के लायक जगह भी कठिनाई से बन पाती है।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कल के सवालों के जवाब और जेनो की बात…

कल मैंने तीन सवाल पूछे थे। उनके जवाब आज दे रहा हूँ। आप स्वयं जाँच लें कि आप कितने सही हैं।

1) चार बाट होंगे 1, 3, 9 और 27 किलोग्राम के जिनकी सहायता से हम एक से चालीस किलोग्राम तक तौल सकते हैं। यह सवाल मैंने अपने शिक्षक से सुना था और जवाब भी यानि मुझे इसके जवाब के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ी थी।

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

आज बस तीन सवाल

तीन सवाल आज पूछने का मन है। कल इन सवालों का जवाब दिया जाएगा। इन सवालों का जवाब दें और उत्तर की प्रतीक्षा करें।

1) चार बाट(इन्हें वजन या बटखड़ा भी कहते हैं) हैं जिनकी मदद से आप एक किलोग्राम से लेकर 40 किलोग्राम तक की वस्तु तौल सकते हैं। यहाँ वजन हमेशा पूर्ण संख्या में होना चाहिए न कि आधा किलोग्राम या ढाई सौ ग्राम जैसा। जैसे एक किलोग्राम, दो किलोग्राम, तीन किलोग्राम से लेकर 40 किलोग्राम तक कितना भी सामान तौलना हो, सिर्फ़ चार बाट ही चाहिए। अब बताइए कि वे कौन-कौन से बाट होंगे। यहाँ कोई जरूरी नहीं कि सभी बाट वास्तविक हों यानि जो बाट हमारे यहाँ उपलब्ध हैं, वहीं हों और उतने ही किलोग्राम के हों, यह बाध्यता नहीं है।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

नाम बताते हैं कि सभी पौराणिक कहानियाँ काल्पनिक हैं


क्या आप अपने घर के किसी सदस्य का नाम चोर रख सकते हैं? या फिर राक्षस, असुर, हिरण्यकश्यप, महिषासुर। नहीं न? क्यों? इसीलिए कि यह सारे नाम खराब हैं। इन नामों से शैतानियत का बोध होता है। फिर किसी समय में कोई अपने पुत्र का नाम रावण(इसका अर्थ है वह जो रुलाता हो), दु:शासन(दु: यानि बुरा) या फिर कुम्भकर्ण कैसे रख सकता है? क्या बुरे लोगों के घर में अच्छे नाम नहीं होते? होते हैं। आखिर इन नामों की बात मैं क्यों कर रहा हूँ? आइए देखते हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

कर सफ़र जा रहे (गीत)

सात साल पहले मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था। स्वतंत्रता दिवस से पहले 31 जुलाई 2004 को एक गीत लिखा जो मशहूर गीत कर चले हम फ़िदा की तर्ज पर था। शुरु-शुरु में तो लिखनेवाले प्रसिद्ध तर्जों पर ही गीत लिखा करते हैं, ऐसा मैं समझता हूँ। उसी तरह मैंने भी यह गीत लिख दिया। 15 अगस्त 2004 को इसे गाना था। अब तो गीत नहीं गाता, बस सुनने का शौक है। पूर्वाभ्यास(रिहर्सल) के समय इसे गाने के दौरान कर चले हम फ़िदा की पँक्तियाँ जुबान पर अपने आप आ जाती थीं। गीत कुछ है ही इस तरह का कि अगर आप गाएँ तो कर चले हम फ़िदा बीच में आ ही जाता है। मैं अपनी लिखी कविताओं और गीतों में बहुत कम को ही पसन्द करता हूँ लेकिन आज भी यह गीत मुझे पसन्द है और शायद हमेशा रहेगा। पढ़िए वह गीत और बताइए कैसा लगा? यह गीत भी, मानकर चलिए उसी दृश्य पर है जिसपर कर चले हम फ़िदा फिल्माया गया है। ध्यान रहे यह आज से सात साल पहले लिखा था। इसलिए इसमें कोई सुधार नहीं करनेवाला। लीजिए पढ़िए वह गीत।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

भगवान बहुत दयालु है(लघुकथा)

मूर्तिकार बहुत सुन्दर मूर्तियाँ बनाता था। एक महीने पहले सुबह-सुबह उसके पास दो बच्चे पहुँचे। एक ने गणेश की, दूसरे ने क्राइस्ट की मूर्ति मांगी। मूर्तिकार ने दोनों को दो सुन्दर मूर्तियाँ बेच दी। रास्ते में मूर्ति को लेकर झगड़ा शुरु हो गया। इसी बीच मूर्तियाँ टूट गईं। हाथापाई शुरु हो चुकी थी। झगड़ा बच्चों के माँ-बाप तक पहुँचा। जमकर मार-पीट हुई। मुकद्दमा शुरु हो गया है। वकीलों की चांदी है। हाँ, मूर्तियाँ फिर खरीद ली गई हैं। मूर्तिकार भी फायदे में है। और मूर्तियों में समाए भगवान चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि उन्हें ही तो वकील और मूर्तिकार का धंधा चलाना है!

रविवार, 3 जुलाई 2011

मैं मूर्ख हूँ और अपने देश का बुरा चाहता हूँ(परिवर्धित संस्करण )

साहब ने अपना ज्ञान बघारा है। अभी-अभी देखा। उनके सारे अनुयायी जैसे कि… छोड़िए नाम नहीं लेता हूँ। चला बिहारी ब्लागर बनने (सलिल नाम है जिन्होंने अप्रत्यक्ष रुप से मुझे कुछ कहा है। इनका नाम लेना पड़ा क्योंकि इन्होंने मुझे संबोधित किया है।) आदि अपने तो भेड़चाल में शामिल हैं लेकिन जरा देखिए कि मुझे क्या कहा है इस सलिल ने जो पटना के ही हैं- 'जिन महाशय ने कभी आपको भगोड़े भारतीय के खिताब से नवाजा था, उन्हें यह आलेख और ऐसे ही कई आलेख जो आपने पूर्ण शोध के आधार पर लिखे हैं, पढना चाहिए! मगर क्या किया जा सकता है- मूर्ख और मृतक अपने विचारों से चिपक जाते हैं!!'

      साहब भूल गए कि मृतक विचार कर ही नहीं सकता तो चिपकने की बात कहाँ से आ गई?


शनिवार, 2 जुलाई 2011

देशद्रोही की परिभाषा(कविता)

23 मार्च 2011 को तेवरआनलाइन पर प्रकाशित मेरे आलेख ने मेरे अन्दर यह इच्छा पैदा की कि एक किताब लिखी जाय जो अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन बनाए। फिर विस्तार से हिन्दी और अंग्रेजी पर चर्चा करते हुए तथ्यों और तर्कों के साथ किताब लिखने में लग गया। अब वह किताब लगभग तैयार है। किताब कुछ वेबसाइटों पर प्रकाशित होने जा रही है। आज से यह सिलसिला शुरु कर चुके हैं तेवरआनलाइन के संपादक आलोक नंदन। मेरी किताब शुरु होती है एक कविता से जिसका शीर्षक है 'देशद्रोही की परिभाषा'। किताब का नाम रखा है 'देशद्रोहियों की भाषा है अंग्रेजी'। यह नाम कैसा है, जरूर बताएँ या अपना मत दें। आज से एक सर्वेक्षण शुरु कर रहा हूँ जो दाहिनी तरफ़ सबसे उपर दिखेगा। यह सर्वेक्षण तब तक चलेगा जब तक यह किताब ई-बुक या पुस्तक के रुप में प्रकाशित होगी। पूरी किताब जिन वेबसाइटों पर प्रकाशित होगी उनके लिंक जल्द ही दे दूंगा। पूरी किताब मैं यहाँ प्रकाशित नहीं करूंगा। हाँ, समाप्ति के बाद उसका पीडीएफ़-संस्करण अवश्य मेरे चिट्ठे पर उपलब्ध करा दूंगा। तो लीजिए आज पढ़िए उस किताब की शुरुआत में आनेवाली कविता को।


शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

गाँधी जी पर बहस और मेरी टिप्पणियाँ

पिछले दिनों महाशक्ति के चिट्ठे यानि ब्लॉग पर चला गया। वहाँ मुख्य पृष्ठ पर अंग्रेजी में नामित एक तरफ़ एक स्तम्भ जैसा है जिसमें गाँधी जी पर छ: आलेखों के लिंक हैं। इन आलेखों में मैंने पाँच आलेखों पर अपनी टिप्पणी की। वहाँ देखा कि महाशक्ति भाई और एक अन्य भाई दोनों बड़े परेशान हैं कि गाँधी जी को राष्ट्रपिता नहीं रहने देना है। यह लिखते वक्त मुझे एक एकांकी याद आ रही है जो कुछ साल पहले सुमन-सौरभ में छपी थी जिसमें गांधी जी कहते हैं कि वे साठ सालों से देश में राष्ट्रपिता का पद संभाल रहे हैं और अब उन्हें आराम चाहिए। किसी भी सेवा में कार्यरत आदमी को भारत में साठ-बासठ या पैंसठ साल की उम्र में सरकार सेवानिवृत्त कर देती है, तो उन्हें क्यों अभी तक सेवा से मुक्त नहीं किया गया।