कुछ दिन पहले एक कविता लिखी थी। अपनी मातृभाषा में यानि भोजपुरी में। उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। अपने व्यस्तता और कुछ परेशानियों की वजह से बहुत सारे विचारों को लिख नहीं पा रहा हूँ। आप मूल कविता यहाँ पढ़ सकते हैं।
गरीब का पेट
एक मशीन है
जो एक दिन के खाना से भी
चला लेता है दो-चार दिन तक काम।
जब सारे वैज्ञानिक
व्यस्त हैं
अपने अपने प्रयोग में
कि कैसे ऊर्जा की खपत कम होगी
तब एक गरीब
सहस्राब्दी का नोबेल पुरस्कार जीत लेता है
क्योंकि अपने जीवन में वह
एक तिहाई या आधी
ऊर्जा बचाये रहता है
बिना किसी खर्च के।
और ये कोई नई बात नहीं है
ये तो हजारों साल
से होता आ रहा है
तब भी
वैज्ञानिक लोग
व्यस्त हैं
ऊर्जा की बचत के
चक्कर में।
जबरदस्त व्यंग्य-कविता... कम ऊर्जा से काम चलाने वाली मशीन 'गरीब का पेट' इसकी खोज की है पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने... प्रशासनिक नीतियों ने.
जवाब देंहटाएंइन पेटों से बचाई गई ऊर्जा
जवाब देंहटाएंइकट्ठी की जाती है
उसी से बनते हैं
दुनिया के वैभव!
किसी दिन पेट
इकट्ठा हुए तो?
आदरणीय द्विवेदी जी,
जवाब देंहटाएं"
तो हजारों अणु बम
फट पड़ेंगे एक साथ
तो टूट जाएगा
एक और टुकड़ा सूरज से
और बना लेगा
एक नई पृथ्वी।"