बुधवार, 29 जून 2011

महाभारत का सबसे मूर्ख पात्र कौन? कृष्ण या अर्जुन

महाभारत की घटना कभी हुई है, इसमें मुझे संदेह है। लेकिन जगह-जगह जीवन के अलग-अलग मौकों पर महाभारत की कहानी से कुछ उपमाएँ हमारे यहाँ दी जाती रही हैं। या फिर मौके-बेमौके पात्रों की तुलना हम लोगों से भी करते रहते हैं जैसे हमारे यहाँ चुप्पी से भीष्म का, कुटिलता से शकुनी मामा का, मोह से धृतराष्ट्र का, ताकत या ज्यादा खाने या विशाल शरीर से भीम का तो सीधा संबंध ही मान कर चला जाता है। इसी क्रम में मैं आज महाभारत और उस युद्ध में शामिल एक प्रमुख पात्र अर्जुन पर कुछ विचार रखना चाहता हूँ। यद्यपि यह मैं मानता हूँ कि यह कहानी वास्तविक नहीं है, फिर भी इस पर अपने ये विचार रख रहा हूँ।
     महाभारत में गीता का उपदेश कृष्ण ने अर्जुन को दिया, ऐसी मान्यता है। और गीता को गीत की तरह समझा गया। संसार के सभी ज्ञान के सार-रुप में गीता जानी जाती रही है। लेकिन इस गीता और गीता के उपदेश में मुझे कुछ नौटंकी दिख रही है। यही मैं यहाँ बताना चाहता हूँ। पहली बात कि गीता का उद्देश्य है अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करना। गीता का अन्तिम परिणाम क्या होता है, बस बहुत बड़ा नरसंहार जिसे सत्ता के लिए किया गया है। क्या इस उद्देश्य से उत्पन्न गीता को इतना बड़ा स्थान मिलना चाहिए? फिलहाल मैं गीता के इस विवाद में नहीं उलझ कर आगे बढ़ता हूँ।
     गीता में 18 अध्याय हैं, कुल सात सौ श्लोक हैं। यानि इतनी बात इसमें आई होगी कि उसे समझाने में कई घंटे तो निश्चय ही लगे होंगे। युद्धभूमि में यह उपदेश कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। लेकिन क्या यह सम्भव है? अब जरा यह विचार कर लेते हैं। दुर्योधन के बारे में कहा गया कि उसने पांडवों को पाँच गाँव या सूई की नोंक भर जमीन देने से भी इनकार कर दिया था। बचपन में जहर खिलाकर भीम को मारने का भी यत्न वह कर चुका था। द्रौपदी के हँसने मात्र से उसका चीरहरण कराने का काम भी उसने किया था। क्या यही दुर्योधन इतना शान्त और धैर्यवान था कि वह रणभूमि में चुपचाप बैठकर अर्जुन को उपदेश सुनने देता? क्या सारे सैनिक, राजा और अन्य योद्धा घंटों यूँ ही खड़े होकर सिर्फ़ मुँह ताकते रहे? क्या यह सम्भव है कि दुर्योधन जैसा आदमी यह सब कुछ शान्ति से सम्पन्न होने देता रहा? यही नहीं, कृष्ण को बाँधने और दंड देने का आदेश देनेवाला दुर्योधन वापस कृष्ण से उनकी नारायणी सेना कैसे माँग सकता था? यह भी एक सवाल है।
     अब आते हैं सबसे बड़ी बात पर। संसार में अर्जुन से ज्यादा मूर्ख कोई भी था या नहीं कि उसे एक युद्ध की बात को समझाने में 700 श्लोकों की(इसमें कई अन्य श्लोक भी शामिल हैं जैसे संजय या धृतराष्ट्र की बात) किताब बन गई। एक सवाल के जवाब में जिस आदमी को इतनी बातें समझानी पड़ें वह बुद्धिमान कैसे हो सकता है। जिस व्यक्ति को समझाने में इतना समय लगाना पड़े कि घंटों बीत जाएँ उससे ज्यादा समझदार तो भारत की सेना और पुलिस है जो एक आदेश मात्र से हजारों लोगों की जान ले सकती है। या तो इस भ्रम और मोह में पड़नेवाले अर्जुन को नरसंहार पसन्द नहीं था या फिर वह भारी मूर्ख यानि बहुत कम समझने वाला था। पहली बात को मानें तो कृष्ण को नरसंहार पसन्द है। वह कृष्ण जो बचपन में कई राक्षसों को खेलते-खेलते मार डालते हैं, वे दुर्योधन को समझा पाने में असमर्थ होने की वजह से एकदम अयोग्य शिक्षक या कहिए परामर्शदाता साबित होते हैं। उनकी जगह तो आज के नेता ही बेहतर हैं जो एक बार एक वाक्य में सैनिकों को युद्ध करने को तैयार कर देते हैं और वह भी एक नहीं लाखों सैनिकों को। यह बात जरूर है कि पहले राजा भी लड़ता था और अब सिर्फ़ सेना लड़ती है, राजा ताली पीटता है।
     और युद्धरत अर्जुन की तस्वीर तो हर जगह देखने को मिलती है उसमें अर्जुन राजसी वस्त्रों में क्यों दिखते हैं जबकि पांडव वनवास या अज्ञातवास के बाद युद्ध करते हैं। और क्या वन में रहना इतना बुरा माना जाता था जैसा कि आज भी आदिवासी समाज को माना जाता है, कि सजा के तौर पर वनवास ही चुना गया था?
     इस तरह मेरे कहने का सीधा सा मतलब है कि या तो अर्जुन एकदम मूर्ख है या कृष्ण एकदम मूर्ख और अयोग्य शिक्षक।

ध्यान दें: महाभारत का ज्ञान दिखाने वालों के लिए यह आलेख नहीं है।

34 टिप्‍पणियां:

  1. तीन घंटे की फिल्म में प्रायः नायक के एक वृहत अंश की कथा को दिखाया जाता है इसका मतलब ये नहीं कि नायक तीन घंटे में ही सारे घटनाक्रम पूरे करता होगा. एक फिल्म निर्माण में कभी-कभी बरसों लग जाते हैं.

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  2. महाभारत की कथा वैसे भी बुद्धि के सतही विचारकों के लिये नहीं लिखी गई.

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  3. अपनी-अपनी समझ. क्‍या किसी अन्‍य दृष्टिकोण से भी इस पर विचार किया जा सकता है, जैसा कि एक फिल्‍म के उदाहरण से प्रतुल जी ने सुझाया है.

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  4. aadarniya mishra ji...sabse pahle aapki is rachna par aapko badhayi.. apne blog pe aane ke liye dhanyawad...aur bishesh roop se aapke dwara mujhe diye gaye sujhawon ke liye.. blog setting ki jyada jaankari nahi hai.. ispe dhyan dekar blog ko thik set karunga..aap ne likha bura mat maniyega..main kahunga itna accha hi kabhi kabhi lagta hai..mera nivedan hai aap eun hi aina dikhate rahein

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  5. प्रतुल जी,
    वैसे तो यह आलेख बहुत गम्भीर नहीं है लेकिन मैंने एक पक्ष सोचा था और उसे लिखा है। महाभारत क्या, सभी कथाओं में आदमी चाहे तो कई चीजें नए तरह से सोच सकता है।

    आशुतोष जी,
    सेटिंग बड़ी समस्या नहीं है। अगर आप थोड़ा सा ध्यान देंगे तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। यहाँ आने के लिए बधाई।

    राहुल जी,
    हाँ प्रतुल जी ने अपनी बात रखी है।
    http://skeptic-thinkers.blogspot.com/2011/05/blog-post.html को देखिए। वहाँ तो अलग ही बात नजर आएगी। अगर यहाँ कोई पढ़ेगा तो कह सकता है कि उसकी सोच फैली नहीं है लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। उसे लिखने वाले दर्शन के बड़े विद्वान थे। इसलिए उन्हें सतही सोच नहीं कहा जाना चाहिए। अधिकांश लोग श्रद्धा से पढ़ते हैं और कुछ अलग ढंग से।

    आप सब यहाँ आए। इसके लिए धन्यवाद।

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    1. mishra ji aap sauibhagyashali hai ki aap ne hindu ke ghar janm liya aur hindu dharm pe tippani ki ,,, agar ye tippani aap ne quran pe ki hoti to sayad aap ko justify karne ka dusra chance nahi milta ,,aapka sir kalam kar diya jata.

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  6. मैं ऐसा समझता हूँ कि महाभारत युद्ध का जो आकार हम समझते हैं वह वास्तव में उतना बड़ा नहीं रहा होगा. यह ठीक वैसा है जैसे दुनिया भर की जनजातीय कथाओं की अतिशयोक्तियाँ, यथा- एक तीर से हज़ार सैनिकों को मारने की कथाएँ.
    महाभारत के बारे में लिखते हुए नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में कहा है कि ‘पांडव ब्राह्मण थे और कौरव क्षत्रिय’. दोनों का युद्ध हुआ और कृष्ण (यदुवंशी), जिसका अर्थ काला (स्पष्टतः अनार्य) होता है, ने क्षत्रियों के विरुद्ध पांडवों का साथ दिया.
    अब आपके कथ्य का विश्लेषण करना चाहता हूँ. अर्जुन कहता है कि मैं अपने भाई बंधुओं की हत्या करके स्वर्ग का भी भागी नहीं बनना चाहता और बाद में ‘कृष्ण के कहने पर’ युद्ध की पूर्वयोजना के अनुसार उनकी हत्याएँ करता है. महाभारत में तो नहीं परंतु गीता (जिसे धर्मग्रंथ माना गया है) में कृष्ण कहते हैं कि तू इन्हें मार, तेरे पाप-पुण्य का वहन मैं करूँगा अर्थात अर्जुन पापातीत हुआ और पाप कृष्ण ने ले लिए. युद्धक्षेत्र में गीता का उपदेश दिया गया जिसे केवल अर्जुन ने सुना और वह पुण्य का भागी हुआ. उसे वहाँ किसी अन्य ने नहीं सुना, शेष पांडवों ने भी नहीं. (अब तक तो नहीं देखे लेकिन हो सकता है इसके बाद आपको कहीं ऐसे चित्र भी देखने को मिलें जिनमें गीता ज्ञान के समय अर्जुन के साथ शेष पांडव भी खड़े हों). लेकिन जो युद्ध का परिणाम हुआ उससे अर्जुन मूर्ख या धर्मभीरू नहीं बल्कि बहुत नीतिवान प्रमाणित होता है. वह ‘कृष्ण के कहने पर ही’ युद्ध करता प्रतीत होता है और उसकी अबोध शिष्य की छवि कायम रहती है. कृष्ण की समझ पर प्रश्नचिह्न लगता है क्योंकि उसने अपने और अन्य भारतीय कबीलों को आर्यों के हाथों मरवाया. यह दूसरा और आधुनिक पक्ष है.
    लगता नहीं कि महाभारत लिखने के अनुमानित काल में संख्या के हिसाब से बहुत बड़ा नरसंहार हुआ. उस समय की सामान्य मानव बस्तियाँ पाँच-दस घरों या परिवारों की होती थीं. कोई भी खुरदरी जानजाति अचानक आ कर काफी बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लेती थी. कलिंग के युद्ध में शायद दो लाख लोग मरे थे. महाभारत के अनुमानित समय में 40-50 हज़ार लोगों का मरना बहुत बड़ी बात रही होगी. ज़ाहिर है इसमें कई छोटे-छोटे जनजातीय कबीले निर्ममता से नष्ट किए और बचे हुओं को दासों का जीवन दिया गया. इसी संघर्ष को पुराणों आदि ग्रंथों में असुर-सुर, दैत्य-अदैत्य, आर्य-अनार्य आदि नामों से कहानियाँ बना कर कहा गया है और विभिन्न चरणों के संघर्ष को धर्म-अधर्म, नीति-अनीति आदि आधार पर लड़ा गया युद्ध कहा गया.
    इस दृष्टि से अर्जुन बुद्धिमान है और कृष्ण अल्पज्ञ.

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    1. manyar bhushan ji jin tathyon ka aap ne gahan adhyan nahi kiya us pe apni rai kaie de sakte hain kripya ja ke mahabharat ko pahiye tab aapko sankhya ka pata chalega murkhta ki ha na paar karen

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    2. भूषण जी आपके सोच से लगता है आप तो चाणक्य भी से ज्यादा बुद्धिमान हैं आपने कृष्ण के काला होने से उनको अनार्य कह दिया आज के समय बहुत से ब्रामण क्षत्रियों वैश्य भी काले रंग के हैं तो क्या वो भी अनार्य हैं कृष्ण के भाई बलराम और बहिन सुभद्रा तो गौर वर्ण के थे तो आपके अनुसार वो तो आर्य हुए क्यों की वो गोर वर्ण के थे अब आप ही बताइये इक भाई आर्य दूसरा अनार्य कैसे हो सकता एक बात और बताइये वसुदेव और देवकी चंद्रवंशीय क्षत्रिय थे आर्य थे तो आर्य माता पिता की संतान अनार्य कैसे हो सकती अब आप खुद निर्णय कीजिये आप कितने बड़े मूर्ख हैं

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  7. पोस्ट शीर्षक पर विचार :
    मूर्ख तो अर्जुन भी है... कृष्ण भी है. जब मूर्ख श्रोता हो तो वाचक भी मूर्ख हो जाता है.
    मूर्ख शब्द मूढ़ से बना है और मूढ़ शब्द मुग्ध से निर्मित है.
    इसे भाषाविद इस तरह समझाएगा :
    मुग्ध > मूढ़ > मूर्ख = जब तन्मयता आ जाये तब मस्तिष्क मुग्धावस्था को प्राप्त हो जाता है.
    जब समय का बोध न रहे ... तब व्यक्ति मुग्ध कहलाता है.
    यहाँ दुर्योधन ने अर्जुन को इसलिये छूट दी कि वह समझ रहा था कि अर्जुन बिन युद्ध लड़े ही हार स्वीकार कर लेगा.
    परिवार और आत्मीयों के प्रति मोह रखने वाले अकसर विनम्रतावश पराजय स्वीकार करते रहे हैं.
    गीता का उपदेश कृष्ण ने सारथी की सीट पर बैठकर नहीं दिया होगा.. वे तो उनका वर्षों का चिंतन होगा.

    जो लड़ाई १० मिनट चलती है उसकी पृष्ठभूमि बनने में वर्षों की भूमिका भी हो सकती है. यदि १० मिनट चली लड़ाई में मेरे मुख से जो आवेशयुक्त संवाद निकले वे मेरे जीवन के अनुभव का दीर्घकालिक हिस्सा हो सकते हैं.
    समय मिलते ही ... फिर लौटता हूँ ...

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  8. प्रतुल जी और भूषण जी दस-पंद्रह मिनट में एक बहुत अच्छा आलेख पढ़वाता हूँ।

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  9. जीवन में, और दुनिया में इक-रसता न आये --
    इसीलिए तरह -तरह के जीव विचरते हैं इस संसार में |

    ब्लॉग पर एक ही प्रकार की बातें पढ़ते-पढ़ते पाठक बोर न हों इसका भी ख्याल रखना पड़ता है ब्लोगर्स को |

    आभार
    एक नए दृष्टिकोण की प्रस्तुति के लिए |

    कृष्ण शायद जादूगर भी थे -- सम्मोहित कर दिया होगा सबको | विपक्षी सेना को ||

    अर्जुन को केवल अपनी भक्ति का उपहार देना चाह रहे होंगे जीत का श्रेय देकर ||

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  10. भूषण जी,

    मैं कह चुका हूँ कि मुझे इन घटनाओं पर भी संदेह है(क्योंकि मैं ऐसे ही विश्वास नहीं कर सकता)लेकिन सम्भव है कि यह किसी दूसरे रुप में घटित हुई हो और इसे लिखते वक्त साहित्यिक रुप दिया गया हो। जैसा कि राहुल सांकृत्यायन कहते हैं राम कोई और अन्य नहीं बल्कि राजा पुष्यमित्र है।(इस बारे में जानकारी अधिक नहीं है, मैं कह चुका हूँ।)

    आर्य-अनार्य पर एक छोटा सा आलेख डाल दिया है।

    प्रतुल जी,

    आपने जो मूर्खता की परिभाषा और शब्द की उत्पत्ति बताई है उससे तो
    सम्मोहित यानि हिप्नोटाइज्ड आदमी को भी मुग्ध या फिर मूर्ख कहेंगे।

    मैंने अन्त में अप्रत्यक्षत: लिखा है कि ज्यादा गम्भीरता से नहीं लिया जाय। वैसे आप अपनी बात कह सकते हैं, शायद कुछ जानने और सुनने को मिल जाय। पोस्ट शीर्षक में मूर्ख कौन हो सकता है, ये संकेत किया गया है लेकिन बार-बार कहना चाहूंगा कि यह एक अलग दृष्टि-मात्र थी।

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  11. 'लेकिन सम्भव है कि यह किसी दूसरे रुप में घटित हुई हो और इसे लिखते वक्त साहित्यिक रुप दिया गया हो'
    आपकी इस बात से सहमत हूँ.

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  12. १)अगर आप ये उपदेश के तौर पे देखते हैं तो आप सबको इसके प्रारंभ, मध्यभाग और अंतिम चरम तीनो देखने चाहिए. क्यूंकि आपने ये उपदेश के तौर पे लिया हैं. और ये तीनो चरण में उपदेश देने वाले के आचरण, उसकी सत्यता, सभी का कल्याण, प्रम्भा में कल्यान्क्कारी, मध्य में कलाय्नकारी और अंत में कल्याणकारी होना चाहिए. मेरे सुझाव से ये उपदेश भड़काऊ हैं, अर्जुन युद्ध नहीं चाहता, संहार नहीं चाहता फिर भी उसको उकसाकर संहार करना कायरता हैं. जो मनुष्य अपने ऊपर अन्याय का जवाब निर्भयता से अपने और औरोंके कल्यान के लिए देता हैं, वही सबसे ऊपर हैं. मैं समझूंगा अर्जुन मुर्ख हैं क्योंकि वोह कृष पे विश्वास रखता हैं खुदपे नहीं और कृष्ण मुर्ख हैं ऐसे मैं नहीं समझता. कृष्ण सदा से ही धूर्त रहा हैं. और जो धूर्त होते हैं उनका उपदेश न khud के कल्याण के लिए होता हैं न दुसरो के.

    २) और अगर आप ये कहानी के रूप में देखते हैं तो, गीता महज एक सलाह हैं किसी एक मनुष्य की दुसरे के लिए की अब क्या करे और क्या नहीं. इसे किसीने उपदेश नहीं बनाना चाहिए. हर जगह झगड़े चलते हैं इसका मतलब ये नहीं की वोह झगड़ों में से किसी का औरो के लिए उपदेश हैं. और कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिए ऐसे उकसाता हैं, "न कोई किसी को मरता हैं न कोई मरता हैं", ये कपिला की संख्या फिलोसोफी हैं. वो कहता हैं अगर कोई तलवार आदमी के शारीर पे चले तो केवल शारीर मरता हैं, आत्मा नहीं. आत्मा अमर हैं. अगर ये बात हम आज बोले तो क्या होगा सोचो? हर कोई एक-दुसरे को काट खायेगा. लेनिन, मार्क्स, मल्कोल्म क्ष, मार्टिन लुठेर किंग, महात्मा गाँधी, डॉ बी.र आंबेडकर अगर इसे मानते तो सोचो की वोह क्या कर सकते थे. पर उन्होंने नहीं किया क्योंकि ये मानवधर्म नहीं हैं. Babasaheb sach kahte थे, की धर्मं मानव के लिए हैं, मानव धर्मं के लिए नहीं. हमें न तो भूतकाल में जाना चहिये न तो भविष्य में. हमें आज देखना चाहिए. आज क्या हो रहा हैं, जो कमी हैं, जो भूखे हैं, जो गरीब हैं, जो पिछड़े हुए हैं उनकी भावना समझनी चाहिए. यही मेरा कहना हैं.

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  13. bhai ji jab yogiraj shri krishna arjun ko geeta ka gyan de rahe the us waqt samay(time) ruk gaya tha kya aapne ye baat nahi padhi phir kaise keh sakte ho itne ghante beet gaye ab to dwarika ka saksha bhi mil gaya hai

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  14. धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
    ईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म है । अधर्म के लिए कर्म करना भी अधर्म है ।
    कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
    धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
    धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।

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  15. क्या आप कश्मीर पाकिस्तान को दे देंगे ? क्या आप अंग्रेजों के खिलाफ देशभक्तों की लड़ाई नरसंहार मानते है ? दुष्टों के संहार के लिए कोई भी अनीति नीति होती है ।

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  16. वेसे तो सनातन धमॅ हर कीसी को अपनी बात रखने का मौका देता है ईसलिए आप ने जो अलग तरीके से कृष्ण और अजुन को रखा है ऊस पर मेरे कुछ सवाल पर ध्यान दे|
    दुर्योदन हमेशा से क्रुर रहा है,उसने बहुत बार पाँडवो को मारने की कोशिश की है, क्या ऐसे मे युद्दध नहि होना चाहीए था?

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  17. Mere kuch sawalo par chandra kumarji dhyan de.

    duryodhan ne dropadi ka chirharan kiya tha , pandvo ko unka haq bhi nahi diya aur sath hi beghar kar diya. sath hi use kai baar marne ki kausish bhi ki. kya ab beth ke baat ho sakti thi ki yudh hi ek matra upay tha?

    yudh se thik pahle shri krishna duryodhan ke pass sulah karne gay the, tab duryodhan nahi mana aur ulta krishna ko bandi bana liya, is par aap kya kahenge?

    duniya ka wo kaun desh hai jisne bina yudh kiye apna astitva tikaya hai? pandvo ne bhi to yahi kiya.

    ab krishna ne jo arjun ko updesh diya us par me kuch kahna chahta hu. aap jante hoge ki mahabharat ke waqt sanskrit bhasha ka use kiya jata tha. lekin shayad aap ye nahi jante ki duniya me sanskrit hi aisi bhasha hai jo sabse kam words me zyada kah deti hai. aisa bhi ho sakta hai ki krishna ne apna updesh sanskrit me diya ho, isliye isme bahut kam waqt liya gaya ho, dusri baat us waqt yudh ke bhi apni niyam the. koi aise hi humla nahi kar deta tha, ho sakta hai ki jab krishna dwara updesh diya ja raha ho tab yudh ki is aachar sahinta ka palan ho raha ho, aur waise bhi jab kaurvo ke paksh me bhishma, drona jese log tab duryon kutniti se yudh suru kar de aisa ho nahi sakta ye to aap bhi manenge.

    ab aakhir me yahi kahna chahunga ki duniya ke sabhi logo ke liye bhagwatgita ek aise kalpvruksha ke saman hai jise aap kabhi bhi apni problem solve kar sakte hai. ye wo sagar hai jiski gahrai hum jese kum buddhi ke log naap nahi sakte. mene gita pe kafi research karne ke baad paya ki usme sab kuch hai. ha ho sakta hai ki iski bhasha thodi hard lage par amrut bina manthan ke nahi milta.videsh ke kai bade scientist jisne gita padhi hai usne yahi kaha hai. ulta kai to gita apne sir par rakh kar nachte the. ye hamara durbhagya hai ki aaj hamari hi virasat se hume dur kiya ja raha hai. me chandrakumarji se kahta hu ki aap gita ko baar baar padhe aur manthan kare. aapke sawalo ka jawab bhi usime hai. kyuki gita koi SCIENCE FICTION nahi balki SCIENCE ki suruat GITA se hoti hai. JAY HIND. JAY SHRI KRISHNA.

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  18. Koi bagwan hota hi nahi he to kou in ghuti stori me vishwash karte he sach to yeh he ki yeh sab kalpink naam he kal koi sachin ko bagwan manne lag jaye
    shive bhi bagwan nahi he na jejus na hi allah
    paap punye naam ki koi chiz hoti hi nahi he

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  20. पहले युद्ध भी नियमों से लड़ा जाता था ...सम्भव है ये सात सौ श्लोक युद्ध शुरू होने के पहले घंटों में सुनाये गए हों ....उस वक्त जब युद्ध के लिए तैयार सेना मैदान में आमने सामने खड़ी हो ...शंखनाद से पहले ...इतनी आसान बातें भी लोगों को समझ नहीं आती ...

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    1. जो मनुष्‍य सम्‍पुर्ण ज्ञान अर्थात सांख्‍यक योग , कर्म योग, भक्ति योग को मिला कर ज्ञान योग प्राप्‍त कर लेता उसे ही परमात्‍मा के विश्‍वरूपी दर्शन लाभ प्राप्‍त होते है वही वास्‍तवीक ज्ञान है, जो विश्‍व के सभी ज्ञानो और विज्ञानों का आधार है , यही ज्ञान मुक्ति प्रदान करता है ा
      देवताओं को भी जाे दर्शन सरलता से प्राप्‍त नही होते ऐसा वास्‍तवीक रूप है परमात्‍मा ा जो महाभारत में अजुर्न को दिखाया गया था ा
      परमात्‍मा ही सब कुछ है ओर निराकार भी, अक्षरो में आकार है, वेदो में सामदेव है, देवो में ईन्‍द्र है, प्राणीयों में चेतना है, यक्षों में कुबेर है, रूद्रो में शंकर , वशुओं में अग्‍नी, पर्वतों में सुमेर, ऋषीयों र्वगु ,ध्‍वनीयों में ओमकार, यज्ञों में जाप , व्रक्षों में पवीत्र पीपल, बुदी में स्‍म्रदी, गन्‍धर्वों में चित्ररत, देवऋषीयों में नारद, मुनियों में कपील, अश्‍वों में उच्‍चश्‍वा , हाथियों में ऐरावत ,पशुओं में सिंह , पक्षीयों गरूड , मनुष्‍य में राजा, शस्‍त्रों में वज्र , गायों में कामधेनु , सर्पो में वासुकी व शेषनाग , स्रष्‍टी में आदिमंत व अंत भी परमात्‍मा ही है ऐसा कुछ भी नही जो परमात्‍मा नही हो , ऐसा कोई स्‍थल नही जहा परमात्‍मा ना हो, अर्थात परमात्‍मा ही जीवन है अत्‍ा प्रिय मित्रों अर्जुन को दिखाये गये परमात्‍मा के विश्‍वरूपी दर्शन ही सम्‍पुर्ण ज्ञान की प्राथमिकता है तो इसमें लगने वाले समय का क्‍या महत्‍व है परमात्‍मा केवल अर्जुन को ही ज्ञान की प्राप्‍त देना चाहते थे तो दुर्योधन के प्रतिक्षा का तो सवाल ही उत्‍पन्‍न नही होता , क्‍यों समय भी तो परमात्‍मा कर ही अंश है ओर तभी अजुर्न द्वारा परमात्‍मा हो वचन दिया है कि क्रिस्‍य वचनम त्‍वा अथार्त तुम्‍हारे सभी आदेशों की पालना करूगा ा
      अब यह कहना उचित होगा कि मुर्ख किसे माना जाये , स्‍वयं विचार करो ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

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  22. जो अपनि बीवी का वस्रहरण करके युध्द न करे वो क्षत्रिय कैसा?

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  23. बंधु ये मूर्ख तो हैं ही, इसके साथ साथ इनके चरित्र का सत्यापन किया जाए तो हमे पता चलता है कि इन पांच सगे भाईयो की एक ही पत्नी पांचाली थी जो कहां तक उचित है, दूसरी बात इनको युद्ध करने का ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण जी की अकेले की तो सोलह हजार एक सौ आठ पत्निया थी इतनी शायद किसी भी पंचायत क्षेत्र मे गाय भैंस बकरिया भी नही होगी ।
    तीसरी बात गीता महाभारत के कौरव पांडव और अन्य पात्र ये लगता है कोई भी अपने पिता से उत्पन्न वैध औलाद नही है सब के सब अवैध औलाद हैं । ऐसे चरित्रहीन खानदान के लोगो की लड़ाई झगड़े की कथा सुनने से किसका कल्याण हो सकता है ?

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  24. चंदन कुमार मिश्र जी
    आपको अपनी सोच का दायरा बढ़ाना चाहिए आप पहले पूरा हिन्दू धर्म ग्रंथ का अध्ययन करो फिर उसके बाद अपने विचार रखो अधूरा ज्ञान हमेशा हानिकारक होता है लिखने को तो कोई कुछ भी लिख सकता है

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  25. पूरे लेखन मेंं मुझे आपकी मर्खता नजर आई....
    1.For ex- EINSTEIN jis teacher se pde unse or v bache pde honge..To kya svi.. EINSTEIN hi bn gye
    2.AAPKO GITA ache se or samajh kr पुनः padhni chahiye
    3.aap galat nazariye se dekh rhe hai...Uska parinaam न्याय स्थापना था
    4.और अंत दुनिया का कोई भी इंसान आपको नहीं समझा सकता है.....🤣🤣🤣🤣

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  26. वे आपके तरह मुर्ख नहीं थे जो समझने में घंटों लगे होंगे.....🤣🤣

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