बिहार में इंटर के परिणाम घोषित हो चुके हैं। इसलिए इस परिणाम पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है। भारत में एक मौसम होता है परीक्षाओं का और दूसरा उनके परिणामों का। लाखों छात्र सबसे पहले परिणाम देखने के लिए बेचैन हो जाते हैं और एक होड़ शुरु हो जाती है कि पहले परीक्षा-परिणाम कौन जान जाता है? इसी बेचैनी का फायदा सारे साइबर-कैफे उठाना शुरु करते हैं। और जम कर लूटते हैं। अगर मैं हिसाब बताऊँ तो साफ हो जाएगा। छोटे शहरों में 20-25 से लेकर कभी-कभी 40 रूपये तक इस परिणाम के लिए वसूले जाते हैं। अगर एक घंटे में 40 छात्रों का भी परिणाम ये साइबर कैफे वाले देखें और अंक-पत्र छाप कर दें, तो 40 * 15(अगर पंद्रह रूपये भी लिए जाएँ तो) रूपये के हिसाब से 600 रूपये वसूल लिए जाते हैं। अब खर्च देखें तो इस एक घंटे में किसी भी जगह 60 रूपये भी खर्च नहीं हो सकते। इसमें आप उनके दुकान का किराया, बिजली का खर्च, कागज का खर्च, इंटरनेट का खर्च सब जोड़ दें तो आप देखेंगे कि लाभ 900 प्रतिशत से 1000-2000-3000 प्रतिशत तक होता है। अब इसे चोरी नहीं कहें तो क्या कहें?
अब बात करते हैं परीक्षा के परिणाम की और मीडिया के झूठ की। अखबारों में आप देखते हैं कि गाँव की प्रतिभा ने अपना कमाल दिखाया। जबकि सच्चाई यह है कि कोई प्रतिभा इस परीक्षा से न तो दिखाई देती है और न ही प्रथम श्रेणी के ज्यादा होने से शिक्षा की गुणवत्ता का कोई प्रमाण मिलता है। संसार का कोई महान शिक्षाविद यह कह ही नहीं सकता कि ज्यादा अंक लाने से प्रतिभा का पता चलता है। लेकिन इस मीडिया को, अखबार को हर जगह नीतीशी-आँख(मेरी बात अभी बिहार के संदर्भ मे ही है) से देखने की आदत नहीं, नहीं बीमारी हो गई है। आज सभी अखबारों ने लिखा है कि लड़कियाँ बहुत तेजी से आगे बढ़ रही हैं क्योंकि इंटर आर्ट्स में 44 टापरों में 40 लड़कियाँ ही हैं। पहली बात तो हमारे यहाँ आर्ट्स यानि कला पढ़नेवाले छात्रों की संख्या बहुत कम है। यहाँ विज्ञान के छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़कियाँ कला विषय ही ज्यादा पढ़ती हैं। इसलिए ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। अब मुझ पर महिला सशक्तिकरण के विरोधी होने का आरोप भी लग सकता है। लेकिन मेरी बात सोचेंगे तो पता चल जाएगा कि सच्चाई क्या है?
अब बात करते हैं परीक्षा के परिणाम की और मीडिया के झूठ की। अखबारों में आप देखते हैं कि गाँव की प्रतिभा ने अपना कमाल दिखाया। जबकि सच्चाई यह है कि कोई प्रतिभा इस परीक्षा से न तो दिखाई देती है और न ही प्रथम श्रेणी के ज्यादा होने से शिक्षा की गुणवत्ता का कोई प्रमाण मिलता है। संसार का कोई महान शिक्षाविद यह कह ही नहीं सकता कि ज्यादा अंक लाने से प्रतिभा का पता चलता है। लेकिन इस मीडिया को, अखबार को हर जगह नीतीशी-आँख(मेरी बात अभी बिहार के संदर्भ मे ही है) से देखने की आदत नहीं, नहीं बीमारी हो गई है। आज सभी अखबारों ने लिखा है कि लड़कियाँ बहुत तेजी से आगे बढ़ रही हैं क्योंकि इंटर आर्ट्स में 44 टापरों में 40 लड़कियाँ ही हैं। पहली बात तो हमारे यहाँ आर्ट्स यानि कला पढ़नेवाले छात्रों की संख्या बहुत कम है। यहाँ विज्ञान के छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़कियाँ कला विषय ही ज्यादा पढ़ती हैं। इसलिए ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। अब मुझ पर महिला सशक्तिकरण के विरोधी होने का आरोप भी लग सकता है। लेकिन मेरी बात सोचेंगे तो पता चल जाएगा कि सच्चाई क्या है?
अब आते हैं अखबारी शोर पर। परिणाम आए नहीं कि प्रतिभा का समोसा बेचना शुरु हो जाता है। मुझे एक सवाल सभी लोगों से पूछना है कि अगर परीक्षा में ज्यादा अंक प्राप्त करना ही प्रतिभा है तो पिछले पचास सालों में आज तक अकेले बिहार में कम से कम दस हजार महाप्रतिभावान लोग हो चुके हैं जिन्होंने किसी न किसी परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है तो वे आज कहाँ हैं और उनकी प्रतिभा का क्या हुआ? आई आई टी में जितने लोग प्रथम आते रहे उनमें से कितने लोगों ने बहुत बड़ा काम किया है? सारे बड़े वैज्ञानिकों को देख लें तो उनमें से कितने प्रतिशत ने किसी परीक्षा में सर्वोच्च स्थान हासिल किया था। मैंने तो सुना है कि कलाम पालिटेक्निक की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए थे। वे ज्यादा प्रतिभावान हैं या ज्यादा अंक लानेवाले। विदेशों में नौकरी करने लगना और इंजीनियर बन जाना या डाक्टर बन जाना कोई महत्वपूर्ण प्रतिभा नहीं होती। प्रतिभा का मतलब है कि आपने नया क्या किया या देश को क्या दिया? अगर ऐसा कुछ नहीं किया तो आपकी प्रतिभा बेकार है या वह प्रतिभा कही जाने लायक है ही नहीं। सिर्फ़ नंबर लाने की फैक्ट्री खोल देने से आप प्रतिभाशाली छात्र तो नहीं बना सकते। जिस तरह के प्रतिभा की अखबार वाले शोर मचा रहे हैं उस तरह की प्रतिभा भारत में पिछले साठ साल में एक लाख से कम नहीं होगी लेकिन जब आप कुछ अच्छा काम खोजते हैं तो आपको पाँच सौ नाम भी नहीं मिलते। एकदम स्पष्ट है कि इस अंक लानेवाली बात से प्रतिभा का कोई संबंध नहीं है। मैट्रिक की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान लाने वाले छात्रों में से कितने छात्रों को आप जानते हैं जो आगे भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हैं यानि इंटरमीडिएट में फिर वे सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हैं। अगर ऐसे छात्रों का प्रतिशत 40-50 भी होता तो यह माना जा सकता था कि ये लोग प्रतिभाशाली हैं।
अब एक बात और कि परिणाम में खूब बढोतरी हुई है और सरकार और नीतीशी-आँख वाले कह रहे हैं कि शिक्षा में गुणवत्ता आई है। सब जानते हैं कि कितनी गुणवत्ता आई है। सी बी एस ई की तुलना में बिहार बोर्ड की जो महिमा पहले गाई जाती रही है वह अब नहीं गाई जाएगी क्योंकि अब बिहार भी नंबर लाने की फैक्ट्री खोल चुका है। वैकल्पिक प्रश्नों की बढ़ती हुई संख्या, जम कर होती चोरी, पैरवी आदि अगर गुणवत्ता का आधार हैं तो निश्चय ही गुणवत्ता बढ़ी है।
प्रतिभा और नंबर का यह झूठा भ्रम अखबार वाले जम कर फैला रहे हैं। लेकिन उनको समझाना आसान नहीं होगा क्योंकि वे मुझसे बहुत ज्यादा बुद्धिमान होंगे क्योंकि सरकारी विज्ञापन उन्हें मैं नहीं देता।
जो जीता वही सिकंदर. अखबारों में रोज बनते इतिहास अगले दिन रद्दी में बिकते हैं.
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