पहले एक व्यक्ति से आपका परिचय कराते हैं। एक परिचित हैं मेरे। नाम नहीं लूंगा। नेपाल के रहनेवाले हैं। मेरे साथ दो-तीन साल तक पढ़ते रहे हैं। उनका एक बार-बार दुहराया जानेवाल कथन था(शायद अब भी हो)- आई हेट हिन्दी। अंग्रेजी को खूब पसन्द करते हैं। वे हमारे देश के वासी नहीं हैं। इसलिए मुझे उनसे हिन्दी को लेकर ज्यादा बहस नहीं करनी होती है।
मैंने उन्हें बताया है कि मैं अंग्रेजी के खिलाफ़ एक किताब लिख रहा हूँ। ये बात वे जानते हैं। यहाँ सबसे बड़ा मुद्दा है देशभक्ति और ग्लोबल सिटिजन होने का।
उनका एक मेल आया है मेरे पास। उसके कुछ अंश पढ़िए।
'I have no country to fight for, my country is the earth, and I am a citizen of the world. You know Patriotism is a kind of religion, it is the egg from which wars are hatched.It is not for him to pride himself who loveth his own country, but rather for him who loveth the whole world. The earth is but one country and mankind its citizens. I am not a Nepali or Indian, I am a citizen of the world. I believe one day we are the citizen of The Globe. I love my country "The Globe ". I wish one days I will go for the world tour to know more about my Earth.'
बस इसी पर मेरा जवाब मैं यहाँ दे रहा हूँ जो मैंने उन्हें दिया है। बातें तो और भी थीं लेकिन मैं यहाँ उन्हीं अंशों को दे रहा हूँ जिसका उपर की बात से संबंध है।
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कभी गाँधी जी को पढ़ने का मौका मिले तो जरूर पढ़िए। उनके उपर संसार में सबसे ज्यादा किताबें लिखी गई हैं। मैंने आपको या किसी अन्य देश के आदमी को अंग्रेजी के विरोध में आने के लिए नहीं कहा है। बात रही ग्लोब की तो सुनिए।
ग्लोबलाइजेशन ने भारत को कितना नुकसान पहुँचाया है आप शायद सोच भी नहीं सकते। चीन के कब्जे में भारत की लाखों मील जमीन है, पाकिस्तान के कब्जे में काश्मीर का हिस्सा है। अमेरिका इन सबमें बहुत बड़ा दोषी है। मैं चाहता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र(UN), अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष(IMF), विश्वबैंक(World Bank) आदि सबसे भारत को बाहर निकाल लिया जाए। अमेरिका और कुछ देशों ने भारत सहित लगभग 120 देशों पर(शायद नेपाल भी इसमें शामिल है)जबरदस्त अत्याचार किया है। किसानों के बीज, देश की जमीन, जंगल, नदी, पहाड़, खानें सब पर हक जमाना शुरु किया है। अब यह बताइए कि ग्लोबल के चक्कर में मुझे अपने इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि भारत अमेरिका की गुलामी से आजाद हो। नेताओं, अमीर उद्योगपतियों और आफिसरों की बात बिलकुल बेकार है। मैं इन सबके बारे में कुछ कहना नहीं चाहता। आप सोच नहीं सकते भारत की हालत इंग्लैंड ने बनाई है। कैसे-कैसे कानून बनाए हैं और वे अभी तक चल रहे हैं। आप पहले से जानते हैं कि विश्व का नागरिक(वर्ल्ड सिटिजन)वास्तव में कोई नहीं हो सकता जब तक सारे देश चैन और शान्ति से नहीं रहने लगें। आपके घर का हरेक सदस्य मौत से जूझ रहा हो तो आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आपका घर या आप खुश या शान्ति से रहेंगे। यह एक संयोग है कि आप भारत के नहीं हैं वरना आप ऐसा नहीं सोचते। हर साल भारत से आठ-दस लाख करोड़ से ज्यादा विदेशी चोर लूट कर ले जाते हैं। आप यह नहीं कह सकते जिसके पास ताकत है वह बलवान है और वही राज करेगा। क्योंकि इंग्लैंड आज से पाँच सौ साल पहले भूख से मरता था। अगर आप चाहते हैं कि आपके कालेज का हर छात्र मेधावी हो तो सबको अच्छे नंबरों से पास होना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि एक लाए दस, दूसरा लाए बीस और हजार लड़कों में दो-चार लोग साठ-सत्तर नंबर ला दें और आपका कालेज अच्छा हो जाए। कौन आदमी अशान्ति चाहता है। आपको सुनकर अजीब लगेगा कि मैं अहिंसा को मानते हुए भी अमेरिका, फ्रांस, पुर्तगाल, इंग्लैंड, चीन और पाकिस्तान से युद्ध करने के पक्ष में हूँ लेकिन अभी नहीं। पहले खुद को ताकतवर बनाना पड़ेगा। आप भारत का इतिहास जानना चाहते हों तो बताऊंगा कि कैसे इन विदेशी चोरों ने भारत पर शासन किया। एक प्रतिशत भी ईमानदार और अच्छे लोग नहीं थे अमेरिका और इंग्लैंड में। आपको बता दें कि 1984 में भोपाल गैस कांड में एक ही रात में 17000 लोग एक अमेरिकी के चलते मर गए और वह जिसके कारण यह सब हुआ आज भी घूम रहा है। न तो अमेरिका ने कोई सजा दी न और किसी ने। जलियाँवाला बाग, विठूर जैसे कारनामे ने देश के लाखों की जान ली। क्या आप इतने गौरवशाली इतिहास के हिस्से में रहे हैं जहाँ 19 साल का खुदीराम फाँसी चढ़ता हो, भगतसिंह से लेकर एक-दो नहीं लगभग दस लाख क्रान्तिकारियों को मौत मिली इन अंग्रेजों के कारण। इनका दोष इतना ही तो था कि ये अपने देश में, अपने घर में अपना हक चाहते थे। क्या यह कहीं से गलत है?
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हिटलर, चंगेज खाँ, सिकन्दर, नेपोलियन, मुसोलिनी सब आप जैसा ही ग्लोब बनाना चाहते थे और सब असफल हुए। और होते रहेंगे। सिकन्दर आप जानते हैं कि दुनिया के सब हिस्सों को जीतता हुआ भारत में हार गया था। वरना आप भी अभी तक गुलाम होते। जब अंग्रेजों के अत्याचार आप पढ़ेंगे तो आप खुद समझेंगे कि दुष्टों के साथ क्या करना चाहिए।
देशभक्ति धर्म है, ऐसा आप मान रहे हैं। मुझे इस बात से कोई खास मतलब नहीं। क्योंकि कुछ लोग मुझे नास्तिक कहते हैं और कुछ नहीं। क्योंकि फिलासफी में एक अलग सिद्धान्त है जिसके तहत मैं नास्तिक नहीं अज्ञेयवादी या संशयवादी हूँ। विवेकानन्द के अनुसार मैं आस्तिक हूँ। वेदों के अनुसार में आस्तिक हूँ। लोगों के अनुसार नास्तिक हूँ। अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं , अपने अपने अर्थ हैं। विस्तार से इसपर चर्चा मेल से संभव नहीं है। यूटोपिया समझते हैं? वर्ल्ड सिटिजन होना एक यूटोपियन बात है। संसार को मैं भी एक मानना चाहता हूँ लेकिन जब मेरे दोनों पैर बराबर होंगे तो कोई कुछ नहीं कहता है लेकिन एक पैर दो फुट का और दूसरा चार फुट का हो तो कोई मुझे बिना आश्चर्य के नहीं देखेगा। समानता आवश्यक है और उसी के लिए मैं लड़ना चाहता हूँ। खेत में नयी फसल बोने के लिए पुरानी फसल को काटकर साफ करना पड़ता है। लेकिन जब तक पुरानी फसल है, नये की बात बेकार है, मूर्खता है। यूटोपिया ही है विश्व का नागरिक होना। मैं अपनी लड़ाई शुरु कर रहा हूँ अंग्रेजी के खिलाफ़ चलकर।
जिस ग्लोबलाइजेशन के गुण आप गा रहे हैं। उसका एक उदाहरण देता हूँ। भारत में बहुत सुंदर कालीन बनता था। बाद में अमेरिका ने उसे खरीदने से मना कर दिया। कारण बताया कि कालीन बनाने में चौदह साल से कम के बच्चे लगे हैं, यह मानव अधिकार के खिलाफ़ है। लेकिन वही अमेरिका अपने यहाँ दस-बारह साल के बच्चों को अखबार बेचने में लगा देखता है तो कहता कि वह बच्चा स्वावलम्बी( self dependent) है। क्या यही है ग्लोबलाइजेशन? नहीं ये ठगी है। आप चाहें तो सारी रिपोर्ट देख लें। विश्व बैंक की या किसी की। विदेशी कम्पनियाँ भारत और सारे दूसरे देशों को लूट रही हैं। इनको भगाना होगा और मैं इसके खिलाफ़ भी खड़ा होऊंगा। विदेशी कम्पनियों के चलते देश में आप सोच नहीं सकते हैं कितनी बेरोजगारी बढ़ी है। कम से कम आठ-दस करोड़ लोग इन विदेशी कम्पनियों के चलते बेकार हैं। कोई फायदा नहीं देती ये विदेशी कम्पनियाँ। यह नहीं कहिएगा कि रोजगार देती हैं। यह बहुत बड़ा झूठ है। मैं इसपर बाद में कभी चर्चा करूंगा। अमेरिका या अन्य देश अगर ग्लोबलाइजेशन चाहते हैं तो उन्हें दूसरे देशों को भी छूट देनी होगी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। खुद छूट लिया है और दूसरों को दिया नहीं। जब जब भारत हारा वजह अमेरिका बनता आया है। आप अमेरिका से भारत का सारा समझौते देख सकते हैं। सिर्फ़ चालबाजी है। आप खुद देखिए कि अमेरिका के पास परमाणु हथियारों की संख्या 20 हजार से ज्यादा है लेकिन भारत पर वह दबाव डालता रहा कि भारत परमाणु हथियार नष्ट कर दे जबकि भारत के पास मात्र 100-200 ही हैं। यही है ग्लोबलाइजेशन। नहीं। अमेरिका अब दुनिया पर राज करना चाहता है और उसे ग्लोबलाइजेशन के नाम से लोगों को ठगता आ रहा है। क्या आप जानते हैं कि इसी ग्लोबलाइजेशन के चलते ब्राजील और कोरिया जैसे देश बरबाद हो गए। धीरे-धीरे भारत बरबाद होगा, नेपाल बरबाद होगा। इससे पहले आपको सामने आना होगा, लड़ना होगा।
भारत में 90 करोड़ लोगों की आमदनी 20 रूपये से भी कम है प्रतिदिन। हर दिन सात हजार लोग भूख से मर जाते हैं यहाँ, किसान आत्म-हत्याएँ कर रहे हैं, देश में 25 लाख लोग हर साल भूख से मर रहे हैं। लेकिन जिन लोगों को ग्लोब, अमीरी, सुख दिखाई देता है वे सब चोर हैं। एक अमर सिद्धान्त है कि अमीरी का पहला चरण है चोरी। यह बात एकदम सच है। मैंने जान लिया और महसूस भी कर लिया है। 120 करोड़ लोग हैं भारत में और 100 करोड़ लोग कैसी जिंदगी जी रहे हैं। अब जो आदमी इतनी समस्याओं के बावजूद ग्लोब, अमीरी, विदेश देखता हो मैं तो उसे मानवता का ही दुश्मन समझता हूँ। यह सोच ही मनुष्य के लिए कलंक है कि आपके देश में इतनी खराब स्थिति है और आप ग्लोब देखने में लगे हैं। ग्लोब को तब देखिए जब आपकी हालत औरों जैसी हो जाए। अभी दुनिया के सिर्फ़ 50 देश ठीक-ठाक हैं। आपको मैं गारंटी देता हूँ कि कम से कम पाँच सौ साल लगेंगे सब को ठीक होने में और तब तक ग्लोब और वर्ल्ड सिटिजन की बात बेकार है। यह सच है और आप इससे भाग नहीं सकते। आप अच्छी तरह जानते हैं कि सिर्फ़ अपने लिए जीना कितनी घटिया बात है।
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देश इसलिए महत्वपूर्ण है कि आपके चैन से जीने के लिए, आपकी आजादी के लिए करोड़ों लोगों ने दुख सहे हैं, लाखों ने अपनी जान दी हैं, लाखो जेल गए हैं। अगर आपमें इंसानियत है तो क्या आप उन सबके अहसानमंद नही हैं। देश किसी ने बाँटा नहीं है, प्रकृति ने खुद बाँटा है। संसार में हर कोई अपनी पहचान चाहता है, ठीक उसी तरह देश की पहचान भी होनी चाहिए। आपका नाम क्या है? यह भी एक पहचान है। आपका घर क्या है? यह भी एक खास हिस्से का नाम है और आपकी पहचान के लिए है। जब संसार के सब लोग शान्त, सुखी हो जाएँ तब ग्लोब और वर्ल्ड सिटिजन की बात आती है। पहले नहीं। इसलिए कहा कि यूटोपिया है। बहुत सारी बातें आप खुद ही समझ सकते हैं क्योंकि पिछले चार साल से आप मुझे जानते हैं।
ये महाशय खुद को वर्ल्ड का नहीं अमरीका का सिटीज़न समझते हैं । इसीलिए हिन्दी से नफ़रत करते हैं । वरना वर्ल्ड में हिन्दी और इंग्लिश ही नहीं हजारों भाषांए बोली जाती है । और किसी देश की भाषा भी उस देश की सभ्यता और संस्कृति के साथ उसकी जमीन पर विकसित होती है । अंग्रेजों के आगमन से पहले हमारे अपने ही देश में कौनसी अंग्रेजी प्रचलन में थी । यह अलग बात है कि कोई अंग्रेजी सिख कर खुद को अंग्रेज समझने लगे । यह अंग्रेजी का नहीं एक विकसित देश और विकसित सभ्यता का प्रभाव है ।
जवाब देंहटाएंदिव्या के ब्लॉग पर आपकी बातचीत पढ़कर आया हूँ. एक ही बात समझ में आई कि व्यक्ति के मस्तिष्क जिस विचार का प्रभाव पड़ जाता है वह उसी का हो जाता है. ऐसे ही विचारों में धर्म और पुनर्जन्म के विचार भी हैं. आपके इस निष्कर्ष से सहमत हूँ कि पुनर्जन्म जैसी कोई वस्तु नहीं होती. यह केवल मन पर बैठा विचार मात्र है. संतमत ने इसी गहरे पड़े संस्कार को समाप्त करने के लिए जन्म-मरण से बाहर निकलने की अवधारणा ईजाद की. मैं ऐसा मानता हूँ. भारत में गरीबों के शोषण में पुनर्जन्म की अवधारणा का बहुत बड़ा हाथ है. कबीर जैसे संत इस सच्चाई को जानते थे और धर्म का सहारा लेकर इससे लड़ भी रहे थे.
जवाब देंहटाएंwah chandan ji... bahut sanjidgi se bahut kadwe sach ko ujagar kiya hai..badhaiyi
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