निस्संदेह बाबा रामदेव दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाले लोगों में से एक हैं या संभव हो सबसे तेजी से बढ़ने वाले ही यही हों। कोई आदमी अभी तक इस रफ़्तार से न तो अमीर बन सका है और न ही किसी के आन्दोलन के शुरुआत में ही इतने लोगों ने किसी का साथ दिया है। लेकिन अभी ठीक उसी तरह की बेवकूफी यह कर रहे हैं जैसी बिहार में लालू और नीतीश करते रहे हैं। कहने का मतलब यह कि इन सभी के पास जो जनसमर्थन था या है, वह इन सबको इतिहास के निर्माताओं में जगह दिला सकता था। लेकिन बिहार में लालू और नीतीश दोनों नशे में चूर हो गए और इन्होंने अपने अल्पकालिक लाभ या सनक के लिए अपना सुंदर भविष्य एकदम नष्ट कर डाला। जब तक घटना घट रही होती है या समय गुजर रहा होता है, सभी हल्ला मचाते हैं लेकिन इतिहास उपलब्धियों और हारों का होता है, युग-निर्माताओं का होता है, युद्धों का होता है।
अब बात करते हैं बाबा रामदेव की।
बाबा ने भारत स्वाभिमान नाम से जो संगठन राजनीति में उतरने के लिए शुरु किया उसे अपने इस सत्याग्रह से वे हमेशा के लिए खत्म हो जाने का एक आसान और बेवकूफी भरा रास्ता खुद ही प्रदान कर रहे हैं। बाबा के भारत स्वाभिमान संबंधी घोषणापत्रों को पढ़ने से ऐसा लगता था कि देश में एक अच्छी शुरुआत हो रही है। 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ने का निश्चय बाबा ने किया था। उन्होंने खुद चुनाव लड़ने से इनकार किया था और किसी पद पर आसीन होने से भी।
अन्ना हजारे के अनशन ने बाबा का माथा घुमाया और बिना आगा-पीछा देखे इन्होंने भी अनशन की घोषणा कर दी। भले ही वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री समेत सभी प्रमुख शासकों से अपनी बात कहने और किसी के द्वारा किसी तरह के कदम नहीं उठाने से नाराज होकर वे अनशन पर बैठ रहे हैं। आज से वे अनशन पर बैठेंगे। जनता की कमी तो नहीं है जो उनका समर्थन करेगी और न ही उनकी माँगों में कोई ऐसी माँग है जो देश का अहित करेगी। लेकिन इस अनशन का समापन समारोह कैसा होगा, इस पर जरा विचार करते हैं।
अनशन के अन्त में तीन चीजें संभव हैं:-
पहला कि अनशन के अन्त में सरकार झुक जाए और बाबा की सभी बातों को मान लेने की बात कह दे। भले ही बाद में आनाकानी करती रहे या सभी मामलों को सरकारी परम्परा के हिसाब से लटकाती रहे।
दूसरा कि अनशन के अन्त में सरकार इनकी बात न माने और जैसा कि बाबा का कहना है वे अनशन जारी रखेंगे और एक दिन मर जाएंगे। यह अनुमान थोड़ा गलत हो सकता है।
तीसरा कि सरकार और बाबा दोनों संसार की सबसे घटिया नीति समझौता का सिद्धान्त अपनाते हुए जनता के साथ धोखा करें।
शायद एक और संभावना है कि जयप्रकाश नारायण के साथ या जतिनदास के साथ जो अन्याय किया गया और गिरफ़्तार कर के यातनाएँ दी जाएँ वही तानाशाही रवैया अपनाया जाए। यह भी संभव है, यह बात जरूर ध्यान देंगे और यह लोकतांत्रिक तानाशाही का अच्छा नमूना हो सकता है जैसा कि इंदिरा गाँधी ने जयप्रकाश के साथ किया था। लोग लाख कह लें कि इंदिरा अच्छी प्रधानमंत्री थीं लेकिन एक अहिंसक आन्दोलनकारी को वह भी उसे, जिसकी तुलना में खुद इंदिरा कुछ नहीं और सबसे बड़ी बात कि तथाकथित आजाद भारत में जो यातनाएँ दी गईं उनमें और हिटलर के यातना शिविर वाली घटना में कोई अन्तर नहीं।
अब पहले अनुमान को ध्यान से देखते हैं, तो लगता है कि यह आसान है और कम-से-कम सरकार के लिए तो है ही। अन्ना का उदाहरण एकदम नया है। बाबा से कहा जाय कि उनकी सभी मांगों को मान लिया जाएगा, वे अनशन समाप्त कर दें। अगर बाबा की बात मान ली गई, तो कांग्रेस को हराने का और भारत स्वाभिमान को अगली बार जिताने का बाबा का सपना एकदम मिट्टी में मिल सकता है।
वैसे भी अगर आप राजनैतिक दृष्टि से देखें तो यह कितनी बड़ी मूर्खता है कि जिन उद्देश्यों को लेकर आप अगली बार चुनाव लड़ेंगे उन्हीं के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं और वह भी जिस पार्टी के खिलाफ़ शोर मचाते रहे हैं( और मचाने लायक है भी क्योंकि कांग्रेस लगभग 51 सालों तक शासन में रही है), उसी के सामने । कोई बुद्धिमान आदमी यह सोच भी कैसे सकता है! अंग्रेजों के सामने हम मांग करें कि शासन में तुमलोग ही रहो और मेरी मांगें पूरी कर दो, तो इस काम को तो देश के लोग बड़े निंदा की दृष्टि से देखते हैं। पूर्ण स्वराज्य की मांग की जगह यह घटिया मांग और इसके लिए सत्याग्रह, सत्याग्रह का ही अपमान है। तो किस कारण से हम इस अनशन को उचित ठहरा रहे हैं?
सरकार के खाते में यह बात वैसे ही हो जाएगी कि सरकार लोकतांत्रिक है और मांगों को मान लेती है। फिर तो अगली बार बाबा राहुल का राज्याभिषेक करते नजर आ सकते हैं।
यहाँ यह बता दें कि बाबा के भारत स्वाभिमान की योजना के तहत पचास लाख करोड़ रूपये भारत के सभी क्षेत्रों के विकास के लिए पर्याप्त हैं। एक और बात परेशान करती है कि कैसे चार सौ लाख करोड़ रूपये की बात हो रही है जबकि 2011 तक सारी योजनाओं को मिलाकर केंद्र और राज्य दोनों सरकारों का कुल खर्च 3-400,00000,0000000 है ही नहीं तो इतने पैसे की बात कहाँ से आ गई?
अब दूसरा अनुमान मैने किया है कि अनशन के अन्त में जतिनदास(भगतसिंह के साथ जेल में भूख-हड़ताल में शहीद) वाला हाल हो सकता है। बाबा को छोड़कर कोई दूसरा चेहरा ऐसा है ही नहीं जो आन्दोलन को आगे ले जा सके। अगर बाबा को कुछ हो गया या वे चल बसे तो क्या होगा इस आन्दोलन का?
तीसरा अनुमान मैंने लगाया था कि अगर बाबा और सरकार दोनों समझौता कर लें तो? बाबा की जिद्द देखते हुए संभव है कि यह बात घटे नहीं। लेकिन सरकार तो सरकार है भाई।
चौथे अनुमान के बारे में खुद ही अन्दाजा लगा लें।
अब एक बात जो मुझे एकदम अखरती है। जिस बाबा को मालूम भी नहीं था कि स्वदेशी क्या है और काला धन कहाँ है और यह होता क्या है, आज वही बाबा उस आदमी का नाम तक अपनी जबान से न तो लाते हैं और न ही वह आदमी उनके किसी प्रचार सामग्री में दिखता है। राजीव दीक्षित के कैसेटों से सुनकर बाबा ने सब सीखा और समझा था लेकिन पटना में ही बँटने वाले पर्चे को देखिए। कहीं राजीव दीक्षित नहीं हैं। लेकिन बालकृष्ण हर जगह हर पर्चे पर मिलते हैं। बालकृष्ण क्यों बाबा के लिए आवश्यक हैं? सिर्फ़ पतंजलि के आयुर्वेद विभाग को संभालना उनके लिए देश के लिए कौन सी बड़ी उपलब्धि है कि हर जगह नजर आते हैं।
दूसरी बात (हो सकता है कि ऐसा सोचने में मुझे ही दोष दे), पटना में बँटने वाले पर्चे पर रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, महाराणा प्रताप, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी, शिवाजी, इन सभी लोगों से बड़ी तस्वीर बाबा और अनावश्यक बालकृष्ण की है। शायद इन सभी लोगों से आगे हैं बाबा! अब जरा सोचिए कि सत्याग्रह शब्द ही गाँधी जी का है। अनशन वाला ब्रह्मास्त्र गाँधी जी का ही है, स्वदेशी का विशद चिन्तन भी गाँधी जी का है फिर भी गाँधी जी नदारद हैं।
मेरी समझ से एक अच्छे और बड़े आन्दोलन को घटिया तरीके से बरबाद करने का यह काम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा है। और अन्त में, मैं भविष्यवक्ता और भगवान नहीं हूँ।
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