कौन कह रहा है कि बिहार में अपराध में कमी आई है। जी हाँ, जब बिहार सरकार खुद यह नहीं कहती तब औरों के कहने से क्या होता है? बिहार सरकार की पुलिस विभाग की वेबसाइट पर 2001 से लेकर फरवरी 2011 तक के अपराधों और पुलिस के संज्ञान में आने वाली सभी घटनाओं की संख्या दी गई है।
कहीं-कहीं संख्या में कमी भी आई है लेकिन कुल मिलाकर लोगों के सामने अखबारी जालसाजी के दम पर नकली चेहरा ही दिखाया जा रहा है। आप वेबसाइट के एक विशेष तुलात्मक आँकड़े से स्पष्ट महसूस कर सकते हैं कि यह आँकड़े बिहार पुलिस के कम शासक पार्टी के ज्यादा हैं और इसे देखकर तो यही लगता है कि ये चुनावी अंदाज में तैयार किए गए हैं। वैसे तो मैं नहीं मानता कि सरकार और शासन किसी की नैतिकता में कुछ सुधार कर सकते हैं। यह कहना ही बेकार है कि सरकार के चलते अपराध में कमी आई है क्यों कि सरकार के चलते न तो बलात्कारी अपनी आदत बदलेगा न अपहरणकर्ता अपना काम छोड़ेगा। वैसे एक सवाल सोचने लायक है कि कल तक जो चोर और बदमाश थे वे किसी शासन के बदलने भर से अचानक कम या ठीक कैसे हो सकते हैं। साँप को मेरे घर में रखिए या अपने घर में या किसी और के घर में वह काटेगा और जहर ही उगलेगा। यह बहाना ही है कि शासन बदलने से या कहिए शासक-पार्टी बदल जाने से कोई अपराधी अपने अपराध करने की आदत पर नियंत्रण स्थापित कर लेगा।
कहीं-कहीं संख्या में कमी भी आई है लेकिन कुल मिलाकर लोगों के सामने अखबारी जालसाजी के दम पर नकली चेहरा ही दिखाया जा रहा है। आप वेबसाइट के एक विशेष तुलात्मक आँकड़े से स्पष्ट महसूस कर सकते हैं कि यह आँकड़े बिहार पुलिस के कम शासक पार्टी के ज्यादा हैं और इसे देखकर तो यही लगता है कि ये चुनावी अंदाज में तैयार किए गए हैं। वैसे तो मैं नहीं मानता कि सरकार और शासन किसी की नैतिकता में कुछ सुधार कर सकते हैं। यह कहना ही बेकार है कि सरकार के चलते अपराध में कमी आई है क्यों कि सरकार के चलते न तो बलात्कारी अपनी आदत बदलेगा न अपहरणकर्ता अपना काम छोड़ेगा। वैसे एक सवाल सोचने लायक है कि कल तक जो चोर और बदमाश थे वे किसी शासन के बदलने भर से अचानक कम या ठीक कैसे हो सकते हैं। साँप को मेरे घर में रखिए या अपने घर में या किसी और के घर में वह काटेगा और जहर ही उगलेगा। यह बहाना ही है कि शासन बदलने से या कहिए शासक-पार्टी बदल जाने से कोई अपराधी अपने अपराध करने की आदत पर नियंत्रण स्थापित कर लेगा।
अब आपको वे आँकड़े दिखा दूँ जो बताते हैं कि अपराध की स्थिति बिहार में कैसी है? यह ध्यान रहे कि सरकारी आँकड़ों को शायद ही कोई सच मानता है। न तो मंत्री मानता है, न संबंधित विभाग, न आप और न हम लेकिन हम इनको छोड़कर दूसरे आँकड़े कहाँ से लाएंगे?
2001 में 3619 हत्या की घटनाएँ हुई हैं। 2010 में यह संख्या 3362 है और फरवरी 2011 तक 501 है। हत्या करनेवाला न तो लालू से डरता है न नीतीश से। इतिहास गवाह है कि आतंकवादियों को फाँसी देने के बावजूद उनमें भय शायद ही होता है। और उनकी संख्या और गतिविधि में कोई फर्क नहीं ही पड़ता है।
डकैती की घटनाओं में तेजी से कमी आई है। 2001 में 1293, 2005 में 1191 और 2010 में 644। कोई भी आदमी यह समझ सकता है कि डकैती वैसे भी अब कम होती जा रही है। चोरी डकैती पर कोई यह कहे मैंने इसपर नियंत्रण पाया है तो यह हँसने की बात है। क्योंकि चोरी डकैती आदि चीजें लाठी और भालों के साथ पहले होती थीं। अब यह इतिहास की चीज हो चुकी है। चोर और डकैत अब इतनी जोखिम क्यों उठाएँ कि साथ जाएँ और पैसा कम कपड़ा-जूता ज्यादा मिले। अभी तक चोरी और डकैती में मैंने तो यही सुना है कि पैसे कम कपड़े, गहने आदि उठा ले जाते हैं। बैंक और एटीएम के चलते अब पैसा घर में कौन रखता है कि डकैत या चोर आपके पीछे पड़ें। वैसे भी इन सब कामों में पैसा जितना मिलता है उससे ज्यादा तो रंगदारी कर के ही मिल सकता है। और इन कामों के समय पुलिस हमारे या आपके घर जाकर बैठी रहती है क्या कि चोर-डकैत नहीं आते? फिर पुलिस की उपलब्धि क्या है? अब आप समझ चुके होंगे कि कम से कम चोरी-डकैती की संख्या में कमी स्वाभाविक है न कि किसी शासन की वजह से। इन सब के बावजूद चोरी, सेंधमारी(जो पुराने जमाने की चीजें हैं) की संख्या में इजाफा हुआ है।
सेंधमारी की संख्या 2001 में 3036 और 2010 में 3437 है। चोरी की घटनाएँ 2001 में 9489 और 2010 में 15544 हैं। बलात्कार जिसे मैं सबसे बड़ा जुर्म मानता हूँ, की संख्या 2001 में 746 और 2010 में 795 है। अपहरण की संख्या 2001 में 1689 और 2010 में 3602 है। हाँ फिरौती के लिए अपहरण की संख्या 2001 में 385 और 2010 में 72 है, जो काफी कम है। लेकिन अपहरण तो अपहरण है चाहे उसमें फिरौती की माँग हो या नहीं। सड़क पर डकैती (2001 में 257 और 2010 में 207) और सड़क पर लूट (2001 में 1296 और 2010 में 1051)की संख्या में कमी आई है।
बैंकों में लूट आदि भी कम हुई हैं। यहाँ ध्यान रखें कि पिछले कुछ वर्षों में एटीएम ने अपने पाँव छोटे शहरों में भी पसारे हैं।
यहाँ 2001 से 2005 तक को लालू राज माना गया है क्योंकि 2005 में साल के अन्तिम समय में नीतीश राज आरम्भ हुआ था।
सारांश
लालू राज ( 2001 से 2005) नीतीश राज (2005 से 2010)
हत्या 18189 15731
सेंधमारी 15490 17129
बलात्कार 4461 4970
चोरी 52921 70306
दंगे आदि 42387 42107
अपहरण 10385 13872
हर तरह के ज्ञात अपराधों की कुल संख्या इस प्रकार है।
2001 - 95942
2002 - 101055
2003 – 98298
2004 – 115216
2005 – 104778
2006 – 110716
2007 – 118176
2008 – 130693
2009 – 133525
2010 -` 137572
यानि लालू राज में 515289 और नीतीश राज में 630682, अगर अपराध बढ़ना ही विकास है तो वाक़ई विकास हुआ है बिहार में।
दूसरा पक्ष
अब कुछ लोगों को जिनपर सुशासन का रंग चढ़ चुका है(वैसे यह रंग अधिकांश लोगों पर चढ़ा हुआ है यह। यह तो भविष्य ही बताएगा कि यह रंग कितना असली रंग है), उनका विचार होगा कि अब लोग पुलिस के पास जाते हैं और प्राथमिकी दर्ज होती है थाने में रिपोर्ट की जाती है। पुलिस कितनी ईमानदार है इसका पता एक ही आँकड़ा बता सकता है। लेकिन अफसोस है कि वह आँकड़ा कोई सरकार कभी जारी नहीं करती। किस थाने में कितनी घूस ली जाती है, किस दुकानदार से क्या मुफ़्त में लिया जाता है, अगर इनके आँकड़े सरकार जारी कर दे तो मालूम हो जाएगा कि कितनी ईमानदार है पुलिस।
जब लोग कहते हैं कि नीतीश के राज में लालू के राज की तरह अपराध नहीं हो रहे तो मुझे एक बात याद आ जाती है। भले वह बात हँसने के लिए है लेकिन संभव उसमें कुछ सच्चाई भी हो। बात यह है कि लालू राज में सारे अपराध करवाते ही थे नीतीश और अब खुद इन्हीं का शासन है तो अपराध करेगा कौन? इस पर जरूर सोचिएगा कि किस दवा ने अचानक अपराधियों को महात्मा बना दिया है कि वे लोगों को नजर नहीं आते? मैं और आप अच्छी तरह ऐसे कुछ लोगों को तो जानते ही होंगे जो कल तक शराब बेचते थे, चौक पर बैठकर ताश खेलते थे और कुछ लोगों की नजर में मोटरसाइकिल छीनते थे वे सब अब शिक्षक हो गए हैं।
अन्त में यह कि सारे बड़े अपराधी गए कहाँ जो बाहुबली थे। ऐसा तो नहीं कि सुशासन बाबू के यहाँ ही………।
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