पिछले दो-तीन दिनों से ईश्वर पर बहस अभी ढंग से खत्म नहीं हुई कि आज पुनर्जन्म को लेकर फिर बहस छिड़ गई। सवाल पर सवाल और बस सवाल पर सवाल। वही पुराना झगड़ा ईश्वर है कि नहीं। वैसे एक बात ध्यान देने लायक है कि जब भी बहस होती है तो ईश्वर शब्द ही क्यों आ जाता है, भगवान या खुदा क्यों नहीं। इसमें कुछ बात हो सकती है। फिलहाल मैं कुछ बातें आपसे कहना चाहता हूँ। कुछ सवाल मुझसे पूछे गए थे और कुछ मैंने भी पूछे। मुझे अपने सवालों के सही जवाब की आशा नहीं है क्योंकि लालबुझक्कड़ लोग सवालों का जवाब क्या देंगे, वे और उनकी समझ खुद ही एक सवाल बन जाते हैं।
कुछ लोग तो इतने से जोर ईश्वर का खूँटा गाड़ देते हैं कि बेचारा ईश्वर होता तो एक ही बार में चिपटा हो जाता। अधिकांश मामलों में लोग(मैं भी कोई अपवाद नहीं) अपने सवालों का जवाब तो चाहते हैं लेकिन दूसरों के सवाल का जवाब देने से बचना चाहते हैं। और अपने सवालों का जवाब भी वैसे ही सुनना चाहते हैं जो उनके पास पहले से है। उसमें किसी तरह की काट-छाँट वे बरदाश्त नहीं करते। ठीक वैसे ही जैसे साक्षात्कार में अभ्यर्थी चाहे कितना भी अच्छा जवाब दे डाले लेकिन निर्णायक सदस्य हमेशा अपने पहले से निर्धारिक किए हुए जवाब को ही सुनना चाहता है।
आगे इस वक्त नहीं लिखूंगा……।
आस्तिक और नास्तिक में अंतर नहीं है. आस्तिक अपने से अलग सत्ता में आस्था रखता है और नास्तिक स्वयं में आस्था रखता है. दोनों अच्छे हो सकते हैं या बुरे हो सकते हैं. मैंने ईश्वर की शपथ खाने वाले आस्तिकों अधिक झूठा पाया है.
जवाब देंहटाएंसमस्या है ईश्वर के नाम पर फैलाया गया अज्ञान जिसके द्वारा जन-जन का शोषण किया जाता है. लोगों को आस्था आधारित रोचक और भयानक सपने दिखाए जाते हैं या वैराग्य सिखाया जाता है और इस क्रम में उनसे प्राप्त धन को अपने घर-मंदिरों में ठूँस लिया जाता है.
भारत में पुनर्जन्म की अवधारणा बुहत से लोगों की आजीविका का आधार है. वे इसके विरुद्ध नहीं सुन सकते.
आस्था पर बहस बेमानी है |
जवाब देंहटाएंआस्तिक अपने से अलग सत्ता में आस्था रखता है --
और नास्तिक स्वयं में आस्था रखता है ||