बुधवार, 5 सितंबर 2012

नन्दी की पीठ का कूबड़ (बाल कहानी)- दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी


नन्दी की पीठ का कूबड़

दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी
हिन्दी अनुवाद: अरविन्द गुप्ता


(प्रोफेसर कोसम्बी द्वारा रचित बच्चों के लिए शायद यह एक मात्र कहानी है। यह कहानी उन्होंने अपने सहयोगी दिव्यभानुसिंह चावडा को, 1966 में, अपनी असामयिक मृत्यु से कुछ दिन पहले ही भेजी थी। यह कहानी किसी भी भाषा में पहली बार प्रकाशित हो रही है।)

(गाँव के वार्षिक मेले का अवसर है। उसमें जानवरों की खरीद-फरोख्त का अच्छा कारोबार होगा। गाँव के मुखिया का बेटा राम, सुबह-सुबह अपने नन्दी बैल को चराने ले जाता है। शाम को नन्दी जानवरों की जलूस की अगुवाई करेगा। जंगल के एक छोर पर तालाब है। धीरे-धीरे वहाँ बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे राम के बहुत से मित्र इकट्ठे हो जाते हैं। वे सभी एक सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करते हैं - भारतीय बैलों के पीठ पर कूबड़ क्यों होता है?)

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

‘अंग्रेजी ग्लोबल है’ (लघुकथा)


अंग्रेजी ग्लोबल है

वह दुनिया के सबसे ताकतवर देश का प्रमुख था। इतनी जाँच के बाद तो चला था वो, फिर विमान दुर्घटना कैसे हो गयी? सारी अक़ल गुम हो गई। किसी निर्जन इलाके में दस घंटे तक बेहोश पड़ा रहा। यानचालक की लाश बगल में पड़ी है। वह भी बिना पेट के! कोनहीं बचा। आखिर हवाई जहाज पाँच फुट से गिरा नहीं था, हजारों फुट की बात थी! होश आई तब कुछ देर तक कराहने के बाद उसका ध्यान उस स्थान के चारों ओर गया। यह कौन-सी जगह है? वह तो विश्व स्तरीय सम्मेलन में भाग लेने जा रहा था। आखिर विमान दुर्घटना हुई कैसे? एक... दो... तीन... चार... पाँच मिनट तक वह सोचता रहा। अच्छा, छोड़ो, अब हो गई तो हो गई। फिलहाल प्यास जोरों की लगी है! आस-पास कोई आदमी, कोई घर, कुछ भी नहीं दिखा। ये ग्यारहवाँ घंटा चालू है... प्यास बढ रही है। वह उठता है। यह भी एक संयोग ही है कि उसके शरीर पर खरोंच तक नहीं आई है। हाँ, कोट-टाई इस्तरी किए हुए थे, वे बुरी तरह मुड़-तुड़ गये हैं। ... उठकर वह पूरब की तरफ चलना शुरू करता है। प्यास बढती जा रही है। ... एक... दो... तीन... साढ़े तीन घंटे तक हाँफते-दौड़ते-भागते चलता गया। बहुत थक गया है वह। आखिर एक जगह ठस से बैठ गया। प्यास जानलेवा होती जा रही है। उसे याद आने लगता है, पिछले विश्व स्तरीय सम्मेलन में उसने जल संरक्षण पर भाषण दिया था, कहा था, जल ही जीवन है। आज वह समझ पा रहा है, जल ही जीवन है। अब शाम होने जा रही है। खेलने के लिए 5-7 बच्चों का झुंड इधर बढ़ता जा रहा है। फिर किशोरों की बारी आती है, 10-12 किशोर भी इधर आ रहे हैं। पलभर की झपकी में वह सपना देखता है, किशोर उसकी ओर बढ़ रहे हैं, उनके हाथों में बाँस का धनुष था, वह अब अंग्रेजी की किताब में बदलता जाता है, वह खुश हो जाता है क्योंकि उसे बताया गया है कि दुनिया में सबको अंग्रेजी सिखाने के लिए सारे हथियार इस्तेमाल किये गये हैं। सब लोग अंग्रेजी जानते हैं। करोड़ों-अरबों डालर के खर्चे का लाभ उसे दिख रहा है, किशोर अंग्रेजी के शब्दकोश लिये हुए उसकी ओर बढ रहे हैं। वह आज ही तो अंग्रेजी को आधिकारिक तौर पर ग्लोबल घोषित करने जा रहा था... कि विमान दुर्घटना हो गई। (क्योंकि उसकी ही घोषणा से आदमी आदमी है, वरना वह कुछ नहीं।) ... तभी एक किशोर का बाण उसके बगल में आकर गिरता है। किशोर बाण लेने के लिए दौड़ता है। ज्योंही उसके निकट आता है, अधूरी नींद टूट जाती है। वह तुरंत किशोर का हाथ पकड़ लेता है, उसके मुँह से एक शब्द निकलता है- वॉ ट र। किशोर काला है, वह गोरा है... लेकिन इस वक्त बस वॉ ट र। किशोर नहीं समझता। वह चेहरे पर नहीं समझने के भाव लिए, थोड़ा सशंकित खड़ा है। तीसरी बार वॉ ट र, वॉ ट र, वॉ ट र... वह बोलता जा रहा है, उसकी आवाज़ धीमी होती जा रही है, वॉ... ट... र, वॉ... ट... र, वॉ... ट... र। चुप... मौन... किशोर का हाथ उसके हाथ से छूट जाता है। किशोर दौड़ता है... वापस किशोर आता है, 3-4 प्रौढों के साथ। प्रौढ भी वॉ ट र का मतलब नहीं समझते, किशोर उन्हे बता चुका है कि बेहोश आदमी वॉ ट र, वॉ ट र... जैसा कुछ बोलता जा रहा था। आदमी इतनी जल्दी नहीं मरता। फिर होश में आते ही वॉ ट र... । कोई नहीं समझ सका, भला ये वॉ ट र... क्या कह रहा है यह आदमी? शाम ढलनेवाली है। इसे उठाकर सब ले चलते हैं। इसी बीच टाई फट जाती है। ... वॉ ट र, टे ...क, ड्रिं... क... , नी... ड... , ग्ला... स... , ब्रिं... ग... ... ... जाने क्या-क्या बोलता जाता है यह आदमी। कुछ भी समझ नहीं सका कोई। बस्ती में पहुँचने पर गिलास दिखाई पड़ता है, वह दौड़ता है... गिलास खाली है... किशोर समझ जाता है, उसे पानी चाहिए... वह तुरंत पानी लाकर देता है। पानी पीते ही उस आदमी की अकल वापस आ जाती है, उसे समझ आ चुका है, यहाँ कोई अंग्रेजी नहीं समझता। ... जैसे भी हो, यहाँ से वह भागना चाहता है! उसके मुँह से निकलता है, इंग्लिश इज़ नॉट ग्लोबल, थर्स्ट इज़ ग्लोबल, हंगर इज़ ग्लोबल, इमोशन्स आर ग्लोबल, इंग्लिश इज़ नॉट ग्लोबल(अंग्रेजी ग्लोबल नहीं है, प्यास ग्लोबल है, भूख ग्लोबल है, आदमी की भावनाएँ ग्लोबल हैं, अंग्रेजी ग्लोबल नहीं है)।

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

क्यों - कमला बक़ाया (कविता)


यह बच्चों के लिए रची गई एक साधारण-सी कविता है। लेकिन दूसरी तरफ़ यह एक असाधारण कविता है। कमला बक़ाया की यह कविता इस देश और दुनिया के हर बच्चे तक पहुँचाई जानी चाहिए, ऐसा हमें लगता है। यहाँ प्रस्तुत है-

बुधवार, 15 अगस्त 2012

स्वतंत्रता दिवस पर बच्चों के चार भाषण


इस बार कुछ और बातें!

पिछले दिनों एक विद्यालय में जाने का अवसर मिला। वहाँ मेरे पूर्व शिक्षक ने बच्चों के लिए कुछ भाषण स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देने के लिए लिखने का निर्देश दिया। कुछ खास इच्छा न रहते हुए भी 10 भाषण लिखे। निर्देशानुसार भाषण में कोकविता या शेर होने पर वह अच्छा लगेगा। हकीकत यह है कि कविता के अंश या शेर तालियाँ बजवाते हैं, इससे ज़्यादा शायद ही कुछ होता हो। पास में न कोई डायरी, न किताब, न नोट। कविता के चक्कर से छुटकारा कैसे भी मिल सका। उन दस भाषणों में से 7-8 को आज बच्चे विद्यालय द्वारा आयोजित समारोह में देंगे। यहाँ 15 अगस्त, 2012 के अवसर पर उन भाषणों में से कुछ दिए जा रहे हैं। संबोधन को भी यहाँ रहने दिया जा रहा है। हालाँकि वह जरूरी नहीं है।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

कवि भाषाविद् कितने आये । अंश अरब भी कह क्या पाये ॥(?)


हाल में फेसबुक पर लिखा था....

फेसबुक पर निजी बातें नहीं लिखता रहा हूँ। समाज से बातों का जुड़ाव रहे, ऐसी कोशिश रही है। लेकिन आज एक निजी बात......

मई, 2006 में मुझे कृष्ण पर कुछ लिखने का (सच कहूँ तो महाकाव्य लिखने का, भले ई बुझाय चाहे नहीं बुझाय कि महाकाव्य क्या है :) ) मन हुआ। जमकर भक्तिभाव से चौपाइयाँ, दोहे लिखा। पहला दोहा था।

अतिप्रिय राधाकृष्ण को करूँ नमन कत बार।
कौन पूछता है मुझे थक गये जब कर्तार॥

फिर उसी साल दो-चार पन्ने लिखे तब तक धर्म और भगवान से विश्वास उठ गया और फ़िर आज मैं वह नहीं हूँ, जो पहले था।

कैसे भक्ति के 'महान' गाने रवीन्द्र की गीतांजलि बन जाते हैं, या विनय पत्रिका, इसका गवाह मैं स्वयं हूँ! सब बस एक पागलपन है, कोरी कल्पना है। भक्ति गीत गाने से कैसे आँसू बहने लग सकते हैं, यह भी आस्तिकता के समय मैंने महसूस किया।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

बुर्जुआ भाषा वालीं हिन्दी फ़िल्में

21 जून को हिन्दी फ़िल्मों पर कुछ विचार लिखकर रखे, जिनमें भाषा, कथा आदि पर अपना पक्ष रखने की कोशिश थी। उसी लेख के संपादित और परिवर्धित रूप को तीन हिस्सों में यहाँ बाँट रहा हूँ। आज तीसरा और अन्तिम हिस्सा प्रस्तुत है।

फ़िल्मों पर लिखना शुरू करने पर सबसे पहले भाषा को लेकर ही लिखा था, आज भाषा पर कुछ बातें...

बुर्जुआ भाषा वालीं हिन्दी फ़िल्में

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

अमिताभ वाली 'नास्तिक' और नास्तिकों का अपमान

21 जून को हिन्दी फ़िल्मों पर कुछ विचार लिखकर रखे, जिनमें भाषा, कथा आदि पर अपना पक्ष रखने की कोशिश थी। उसी लेख के संपादित और परिवर्धित रूप को तीन हिस्सों में यहाँ बाँट रहा हूँ। आज दूसरा हिस्सा प्रस्तुत है।

फिल्मों पर लिखे लेख के पहले भाग पर एक मित्र ने ग़ुलामी का ज़िक्र किया है। ग़ुलामी फ़िल्म में धर्मेन्द्र और मिथुन की मुख्य भूमिका थी। उसमें धर्मेन्द्र को मैक्सिम गोर्की की माँ पढ़ते दिखाया गया है और ज़मीनदारी से लड़ने के क्रम में अंत में सारे ज़मीनी दस्तावेज़ों या कागज़ातों को जलाते हुए भी दिखाया गया है। फ़िल्मों में जो जनपक्षधरता दिखाई गई है, वह सुधारवाद या अंशतः मार्क्सवाद को छूती नज़र आती है। मार्क्सवाद के साथ एक रात गुज़ारने, उसके बगल से कटते हुए निकलने का उदाहरण फ़िल्मों में ज़रूर कई बार आया है, लेकिन लेनिन या चे जैसी दृढता और सिद्धान्तनिष्ठा नहीं दिखाई गई। एक साधारण आदमी जो थोड़ा भी सोचेगा, वह यह कह सकता है ग़रीबी समाप्त होनी चाहिए, बेहतर जीवन जीने का अधिकार सबको मिलना चाहिए, यही सारी बाते गाँधी जी जैसे लोग भी करते हैं और मार्क्स भी, भगतसिंह भी, लोहिया भी। अंतर इतना है कि वामपंथ (यहाँ लिखते समय यह शब्द मुझे अच्छा नहीं लग रहा) के अनुसार जिस क़िस्म के विकास की बात होती है, वह फ़िल्मों में नहीं दिखाया जाता। मार्क्सवाद के साथ एक रात गुज़ारने और मार्क्सवादी होने में अंतर तो ज़रूर है। एक व्यक्ति जो हिन्दू है, जाति से ब्राह्मण है और माँसाहारी है, सिर्फ़ माँसाहारी होने मात्र से वह ईसाई नहीं हो जाता। पूरे तौर पर अनीश्वरवादी और मार्क्सवादी व्यक्ति को नहीं दिखाया जाने का प्रश्न मेरे इस लेख का केंद्रीय विषय था। और हमारे यहाँ तो ऊपर से कुछ वामपंथी दिखनेवाली फ़िल्में भी धर्म के चंगुल से मुक्त नहीं दिखाई जातीं। यहाँ फ़िल्मों में वामपंथ के नज़दीक दिखनेवाले पात्रों पर ईश्वरीय दासता थोपना भी तो एक शग़ल रहा है। देव आनंद की मशहूर फ़िल्म गाईड अंत में आध्यात्मिक बन जाती है, ऐसे ही फ़िल्मों में नायकों के संघर्ष को सामूहिक संघर्ष दिखाया भी गया तो, उसे धार्मिक रंग चढा ही दिया गया।
   अब आज उसी लेख का दूसरा हिस्सा- 

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

हिन्दी फ़िल्मों का नायक वामपंथी क्यों नहीं


21 जून को हिन्दी फ़िल्मों पर कुछ विचार लिखकर रखे, जिनमें भाषा, कथा आदि पर अपना पक्ष रखने की कोशिश थी। उस लेख को तीन हिस्सों में यहाँ बाँट रहा हूँ। पहला हिस्सा प्रस्तुत है।

हिन्दी फ़िल्मों का नायक वामपंथी क्यों नहीं

नायक, खलनायक और संघर्ष का चक्कर

फ़िल्मों में पहले खलनायकी का बड़ा महत्व था। लोग नायक के साथ एकात्म होकर कुछ घंटे खलनायक से स्वयं ही लड़ने का काल्पनिक और अनोखा अनुभव प्राप्त करते थे। आज भी यह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। आज भी भोजपुरी या दक्षिण की फ़िल्मों में खलनायकी का होना एक ज़रूरी-सी शर्त बना हुआ है।

बुधवार, 13 जून 2012

ग्रामीण इलाक़े में अंगरेज़ी माध्यम का एक स्कूल



कुछ दिनों से नियमित एक अंगरेज़ी माध्यम के एक छोटे-से स्कूल का हाल-चाल सुनने को मिल रहा है। क़रीब 150 बच्चे पढ़ते हैं उस स्कूल (विद्यालय से ज्यादा स्कूल समझा-कहा-जाना जाता है) में। नर्सरी से लेकर वर्ग (स्टैण्डर्ड) 6 तक चलने वाले इस स्कूल में पढानेवाले दो लोगों द्वारा रोज़ कई बातें पता चल रही हैं। पहले उस अनुभव का एक दृश्य देखिए, जो एक शिक्षक के साथ कुछ दिनों पहले वास्तव में हुआ।

सोमवार, 14 मई 2012

मनोहर पोथी बेचते बच्चे (कविता)


हाल की एक कविता जिसके कुछ भाव आजादी कविता से मिलते हैं... 

दस रुपये में चार किताबें
बेच रहे थे बच्चे
उस दिन
रेलगाड़ी में
जिनकी उम्र दस साल भी नहीं थी।

बुधवार, 2 मई 2012

भारत में बौद्ध धर्म की क्षय - दामोदर धर्मानंद कोसांबी


× × × 

     अजीब हालत है। एक तरफ धर्म के नाम पर भयानक खून-खराबा भी होता है, और दूसरी तरफ ध्यान से देखने पर सभी धर्म एक जैसे लगते हैं। साफ है कि धर्मों की बुनियाद कहीं और है- शायद धर्मों से बाहर। यह छोटी-सी किताब इस गहरे रहस्य को कुछ-कुछ समझने में मदद देगी।

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

स्वामी विवेकानंद का दूसरा पक्ष


स्वामी विवेकानंद वह पहले प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, जिनसे मेरा परिचय हुआ और मैं इन्हें जितना संभव हुआ, पढता गया। तब मैं नवीं कक्षा में था। यहाँ विवेकानंद के बनाये हुए सुंदर चेहरे से बाहर कुछ देखने की कोशिश की है मैंने। विवेकानंद के भक्तों से गुजारिश है कि खिसियाने से पहले पढ लें इसे। यहाँ कई बातें अप्रत्यक्ष रूप से विषय से संबंधित हैं, भले वे अलग दिखें या थोड़ी लंबी हो जाएँ।

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

अब तो अपना असली नाम भी भूल गया हूँ... (भोजपुरी से हिन्दी में अनूदित)


अभी आब ता आपन असली नाम भी भुला गईल बानी... शीर्षक से एक व्यंग्य या लघुकथा या जो कहें, पढा। सोचा कि इसे पढवाते हैं। प्रस्तुत है इसका हिन्दी अनुवाद। हालाँकि इसका अधिकांश हिस्सा हिन्दी में था, फिर भी अनुवाद करने की कोशिश की है। 

शहर में पिछले १० दिन से एक मनोचिकित्सक की बड़ी धूम मची थी, हर आदमी के मुँह से एक ही बात कि अगर आप डिप्रेशन के शिकार हैं, तो इस मनोचिकित्सक से ज़रूर मिलें, यह मनोचिकित्सक आपकी समस्या २ मिनट में ठीक कर देगा, आपको अवसादमुक्त कर देगा। और यह बात झूठी भी नहीं थी, पिछले १ महीने से जो भी डिप्रेशन का शिकार उसके पास गया उसे उसने २ दिन में ठीक कर दिया। 

यह सब सुन और जान कर एक आदमी सुबह से उसके क्लिनिक में अपना इलाज करवाने के लिए भूखा-प्यासा लाइन में लगा रहा। भूख के मारे उसकी हालत ख़राब हो गई तब जाकर दिन में २ बजे उसका नंबर आया। गया डॉक्टर की केबिन में, कुर्सी पर बैठा। 

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

भगतसिंह के चौदह दस्तावेज



भगतसिंह के चौदह दस्तावेज

किसी ने सच कहा है- "सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते, क्योंकि वह बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं। सुधार तो होते हैं युवक के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिन्हें भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम तथा अनुभव अधिक करते हैं।"
( भगतसिंह के 'स्वाधीनता के आन्दोलन में पंजाब का पहला उभार' लेख से)

बुधवार, 7 मार्च 2012

अक्षरों की चोरी (कविता)


वे
बोरियों में भरकर
ले जा रहे हैं
हमारे अक्षरों को। 


क्या तुम सुन रहे हो
उनका चिल्लाना ? 
उनका रोना ? 
उनका गिड़गिड़ाना ? 

सोमवार, 5 मार्च 2012

स्त्री और शब्द-2 (कविता)

स्त्री और शब्द कविता का पहला भाग यहाँ है। 


लुट जाती है इज्जत
होता है बलात्कार
होती है बीमारी
होता है इलाज

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

इसपर 'नेता' शब्द इतना नाराज हुआ कि भाग गया शब्दकोश से (कविता)


शीर्षकहीन कविताः 

नेता... 

इतनी बार गाली दी गयी इसे
कि शब्दकोश ने भी गालियाँ देते देते
एक परिशिष्ट जोड़ डाला शब्दकोश में। 

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

सिर्फ सॉरी शब्द कहना सही है ? ( फेसबुक से, भाग- 1)


बहुत सारे विचार दिमाग में लिखने को उकसाते हैं, लेकिन इधर नहीं लिखा कुछ। सोचा कि फेसबुक पर कई बार कुछ अच्छे विचार तो उतर जाते हैं ही या कई बार कुछ काम का भी लिख दिया जाता है, तो उसे सँजोकर यहाँ प्रस्तुत करने का खयाल आया। पहला भाग प्रस्तुत हैः


31 जनवरी 2012

2012 को रामानुजन की याद में भारत में राष्ट्रीय गणित वर्ष घोषित किया गया है।

इस अत्यंत प्रतिभाशाली और महान भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन, जिन्हें दुनिया के महानतम गणितज्ञों में शुमार किया जाता है, पर एक किताब आई, नाम था- ' मैन हू नेव(या न्यू) इनफिनिटी' किताब के लेखक थे राबर्ट कैनिगेल। कैनिगेल ने इस बहुप्रशंसित ग्रंथ को लिखने के लिए कुछ सप्ताह रामानुजन के जन्मस्थान में भी बिताये थे। यह किताब 1991 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी। 

सोमवार, 30 जनवरी 2012

क्या कहूँ उस देश को ( कविता)

यह संभवतः 30 जनवरी 2008 को लिखी कविता है। समय का जिक्र करना आदत-सी है। इसका यह अर्थ न लगाया जाये कि कोई ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके यह अंश मुझे भाषा की दृष्टि से बहुत पसंद हैं- 

बन रहे हैं शस्त्र ऐसे
नाश का भी नाश कर दें
आदमी की शक्तियों से
जहाँ भय, भयभीत!

अब पूरी कविता:

शनिवार, 28 जनवरी 2012

वसंत क्या है / गिरनेवाले पत्ते / तुम बताओ और ऋतुराज वसंत आया देखो (कविता)


किसी के आग्रह पर कविता लिखना उचित नहीं मालूम पड़ता। लेकिन यह गलती एक-दो बार कर ही गया हूँ। जून, 2005 में लिखी यह कविता उसी तरह की एक गलती का परिणाम है। वसंत ऋतु का आना-जाना पता नहीं कैसा होता है! बाद के दिनों में सनकी या लिखते जाने की आदत घटी तब एक हाइकु कविता वसंत ऋतु पर लिखी थी, पहले वह पढिए फिर 'ऋतुराज वसंत आया देखो' शीर्षक कविता पढिए। 

वह हाइकु कविता:

वसंत क्या है
गिरनेवाले पत्ते
तुम बताओ। 

अब 'ऋतुराज वसंत आया देखो' कविता:

ऋतुराज वसंत आया देखो।
सब के दुखों का अंत आया देखो।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

आज छब्बीस जनवरी है (कविता)


एक सादा, बिलकुल साधारण-सी कविता जो 26 जनवरी को ही 2007 में लिखी गयी थी। 

आज सुबह साढ़े आठ बजे
मंत्रीजी की गाड़ी से
कुचल गया एक ग़रीब दौड़ता बच्चा
चारों तरफ़ मची अफ़रा-तफ़री है
क्योंकि आज छब्बीस जनवरी है। 

सोमवार, 23 जनवरी 2012

170 देशों में नोटों पर अंग्रेजी का हाल


इस साल का पहला लेख हाजिर है। व्यस्तताओं और स्वास्थ्य कारणों से इस महीने सक्रियता लगभग शून्य रही है। 

हाल ही में सोचा कि दुनिया के देशों में नोटों पर अंग्रेजी का कितना कब्जा है ? इसलिए लगभग 170 देशों के नोटों पर एक अध्ययन किया। निष्कर्ष वही सामने आया जो आता लेकिन अँखमुँदे विद्वानों से कुछ भी कहना बेकार सा लगता है। अंग्रेजी वाले देश जैसे कनाडा, अमेरिका, इंग्लैंड, जमैका, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रिका आदि की बात तो करनी ही नहीं क्योंकि इन देशों मे तो अंग्रेजी ही चलती है। आइए एक नजर डाल लेते हैं इस अध्ययन पर। लगभग 170 देशों के नोटों को देखने के लिए अन्तर्जाल और कुछ वेबसाइटों का सहयोग मिला, यह एक बड़ी बात थी। नोटों के नंबर तक कई देशों में अरबी आदि भाषाओं में देखने को मिले। उदाहरण के लिए यमन, इराक आदि देखे जा सकते हैं। कुछ देशों में मात्र बैंक के नाम अंग्रेजी में मिले तो कुछ में सिर्फ मुद्रा या राशि अंग्रेजी में लिखी मिली और सब कुछ गैर- अंग्रेजी में। वहीं सबसे ज्याद देश ऐसे थे, जहाँ अंग्रेजी की आवश्यकता नोट पर बिलकुल महसूस नहीं की गई और जैसा सोचता था, वैसा ही हुआ और ऐसे देश सबसे ज्यादा रहे। इनमें से 101 देश ऐसे हैं, जिनके नोटों पर अंग्रेजी बिलकुल ही इस्तेमाल नहीं की गयी थी यानी एक वाक्य तक अंग्रेजी का नहीं था। इनमें दुनिया के विकसित माने जाने वाले देशों में सबसे अधिक देश थे। उदाहरण के लिए जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्वीडेन, स्विटजरलैंड आदि।