सोमवार, 28 नवंबर 2011

योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-3)


योद्धा संन्यासी का जीवन 


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अपने सत्तर वर्ष के जीवन में वे निरंतर सक्रिय रहे और एक साथ कई मोर्चों पर! हर मोर्चे पर उनका एक खास मकसद दिखाई देता है। भारतीय इतिहास के अत्यंत महत्वपूर्ण कालखंड में उन्होंने अपना लेखन कार्य शुरू किया। भारत की स्वाधीनता का आंदोलन प्रथम विश्व युद्ध के बाद तेज हुआ और उसमें विभिन्न धाराओं का संघर्ष ज्यादा स्पष्ट दिखाई देने लगा। समाज सुधार की धारा बंगाल से विकसित हुई जिसका प्रभाव संपूर्ण देश के बुद्धिजीवियों पर पड़ा। राहुल ने अपना जीवन समाज सुधारक संन्यासी के रूप में शुरू किया; यह महज एक संयोग नहीं। वे प्रेमचंद की तरह आर्यसमाज के प्रभाव में आए और फिर कांग्रेस से भी प्रभावित हुए। लेकिन प्रेमचंद की ही तरह उनका इन धाराओं से मोहभंग भी हुआ। फिर उन्होंने पतनोन्मुख भाववाद के विरुद्ध बौद्ध दर्शन को एक वैचारिक-आधार के रूप में ग्रहण किया। भारतीय समाज की संरचना, जाति, वर्ण और वर्ग की विशिष्टता एवं शोषण के विभिन्न रूपों की जटिलता आदि तमाम सवालों से लगातार जूझते रहे। इनका समाधान उन्हें मार्क्सवादी दर्शन में दिखाई पड़ा। वैज्ञानिचेतना और समग्र विश्वदृष्टि के लिए अनवरत आत्मसंघर्ष उनकी प्रारंभिक रचनाओं में खुलकर व्यक्त हुआ है। ज्ञान की पिपासा और निरंतर कार्य करने की बेचैनी उनके व्यक्तित्व की विलक्षण विशेषताएँ हैं। उनका मानना था कि ज्ञान, विचार द्वारा वस्तु को जानने की एक चिरंतन तथा अंतहीन प्रक्रिया है और ज्ञानात्मक चेतना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व से निर्धारित और प्रभावित होती है।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

आईने में नेता (कविता)


आईने में चेहरा देखते ही
डर जाता है आईना।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

मार्क्स कहाँ गलत है? - राजेन्द्र यादव


अंग्रेजी में एक मुहावरा है प्रॉफ़ेट ऑफ द डूम यानी क़यामत का मसीहा। कुछ लोग क़यामत की भविष्यवाणियाँ करते हैं, परम-निष्ठा और विश्वास से उसकी प्रतीक्षा करते हैं और जब वह आने लगती है तो उत्कट आह्लाद से नाचने-गाने लगते हैं; देखा, मैंने कहा था आयेगी और आ गयी! अब इस आने में भले ही अपना घर-बार ही क्यों न शामिल हो। क़यामत के परिणामों से अधिक प्रसन्नता उन्हें अपनी बात के सच हो जाने पर होती है। पूर्वी-यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारें धड़ाधड़गिर या उलट रही हैं, प्रदर्शन और परिवर्तन हो रहे हैं; लोग जिंदगी को अपने ढंग से ढालने और बनाने में लगे हैं और हम खुश हैं कि हम जानते थे, यही होगा। क्योंकि कम्युनिज्म असंभव है। मार्क्स ग़लत है। मैं गंभीरता से सोचना चाहता हूँ कि इस चरम-सत्य की खोज क्यों उन्हें इतना प्रसन्न करती है? मार्क्स क्यों ग़लत है? मार्क्स ने ऐतिहासिक और तार्किक प्रमाणों से यही तो कहा था कि मनुष्य-मनुष्य के बीच शोषण, असमानता और अन्याय की जो व्यवस्थाएँ रही हैं उन्हें समाप्त होना चाहिए इन्हें जायज़ और शाश्वत सिद्ध करने के जो तरीक़े ईजाद किये गये हैं उन्हें गहराई से समझने, उद्घाटित करने और उखाड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि यह इतिहास की माँग है। अब तक के मानव-समाजों का अध्ययन हमें यही सिखाता है कि इन विषमताओं के स्वरूप या उनके विरुद्ध लड़ने के मानवीय प्रयास क्या रहे हैं? क्या मानव-विकास अंधेरे की लक्ष्यहीन दौड़ है या उसके अपने कुछ नियम हैं? अगर नियम हैं तो क्या हैं? अब मेरी समझ में सचमुच नहीं आता कि इसमें आखिर ऐसा क्या है जो अभारतीय है या मार्क्स ने ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि उसे बार-बार कब्र खोद कर सूली पर लटकाया जाना चाहिए? शायद मार्क्स का अपराध इतना है कि बाकी लोगों की तरह उसने शोषण और अन्याय को दूर करने के सिद्धांत को सिर्फ एक सपने, मनुष्य को बराबर बताने वाले श्लोक और सदाशयी आकांक्षा या ईश्वरीय आशीर्वाद के रूप में ही क्यों नहीं रहने दिया हमें क्यों यह समझाने की कोशिश की कि यह सब ऐतिहासिक, भौतिक और व्यावहारिक है। इसके स्वरूप और तरीके हमेशा बदलते रहे हैं और इन्हें बदला जा सकता है, बदलना चाहिए। जहाँ तक समझ में आता है, सिर्फ दो ही तरह के लोग इसके विरोध में होने चाहिए एक वे जिनके पैरों तले जमीन इस सिद्धांत से खिसक रही हो, दूसरे वे जो सचमुच विश्वास करते हैं कि शोषण, अन्याय या असमानता शाश्वत हैं, ईश्वरीय हैं और आवश्यक या अनिवार्य है चूँकि वे हमेशा से हैं, इसलिए वे हमेशा रहेंगे, उन्हें रहना चाहिए। इन स्थितियों का कोई भी बदलाव उन्हें अभारतीय और अप्राकृतिक लगता है। वे अगर खुद इन स्थितियों के शिकार हैं तो यह उनकी नियति है।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

100 में 99 मुस्लिम धोती नहीं पहनते। क्यों?


भारत में इस्लाम पर बोलना हमेशा से विवादास्पद रहा है। कोई कहता है कि फलाँ व्यक्ति या नेता तुष्टिकरण की नीति अपना रहा है, तो कोई मुस्लिमों का पक्ष लेने पर हिन्दुओं का विरोधी कह देता है। भारतीय इतिहास का अपना शून्य के बराबर ज्ञान जिसे ज्ञान भी नहीं ही कहना चाहिए, से मैंने फ़ेसबुक पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के नोट पर कुछ बातें रखीं। कुछ सवाल हैं, जो कई बार सोचने के लिए बाध्य करते हैं या जिनका उत्तर नहीं मिलता या मैं जिनका उत्तर नहीं खोज पाता।
      यहाँ चतुर्वेदी जी का नोट है और नीचे मेरे विचार, जो मैंने फ़ेसबुक पर रखे थे।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-2)


योद्धा संन्यासी का जीवन

महापंडित राहुल सांकृत्यायन एक महान् रचनाकार, अन्वेषी इतिहासकार और जनयोद्धा थे। भारतीय नवजागरण की चेतना के इस महान् अग्रदूत ने हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रगतिशील और प्रौढ़ वैचारिक मूल्यों से जोड़ते हुए एक नई रचना-संस्कृति विकसित की। व्यक्तित्व की तरह उनका रचना-संसार भी व्यापक और बहुआयामी है। सचमुच, आश्चर्य होता है कि किशोरवय में ही घर-बार छोड़कर संन्यासी बन गये राहुल व्यवस्थित शिक्षा-दीक्षा और समय एवं सुविधा सम्बन्धी कठिनाइयों के बावजूद इतने महान् रचनाकार और बुद्धिजीवी कैसे बने!
जिज्ञासा और संघर्ष की प्रखर चेतना ने साधारण परिवार में जन्में बालक केदारनाथ को राहुल सांकृत्यायन के रूप में विकसित किया। ग्यारह वर्ष की अवस्था से शुरु हुई उनकी ज्ञान-यात्रा स्मृति लोप होने तक जारी रही। बुद्ध के इस वचन को उन्होंने हमेशा अपने जीवन-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण सूत्र माना –“मैंने ज्ञान को अपने सफर में नाव की तरह लिया है, सिर पर एक बोझ की तरह नहीं।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

प्रभात प्रकाशन मतलब भाजपा-जदयू का प्रकाशन…राष्ट्रीय पुस्तक मेला, पटना से लौटकर

इस बारह तारीख को पुस्तक मेले में गए। बहुत अच्छा तो नहीं कह सकते लेकिन अच्छा ही लगा। वैसे भी पुस्तक मेले में पाठक को किताब लेकर पढ़ने-देखने की जितनी छूट दुकानदार देते हैं, उतनी दुकान में तो देते नहीं। नेशनल बुक ट्रस्ट और बिहार सरकार ने मिलकर पुस्तक मेला आयोजित किया है। पटना पुस्तक मेला भी जल्द ही लगेगा। सरकारी प्रकाशनों की किताबें भी खूब महँगी हुई हैं। अकादमियाँ भी किताब इतने कम दाम में बेचती हैं कि आम आदमी के खरीदने का सवाल ही नहीं उठता।
      विज्ञापनबाजी और करियर के नाम पर दुकानें धीरे-धीरे पुस्तक मेले में बढ़ती जा रही हैं। और पर्चियाँ भी पाठकों को पकड़ा ही दी जाती हैं। लोगों की जेब और हाथ में पर्चियाँ कैसे ठूँस या पकड़ा दी जाती हैं, इसपर दो-तीन साल पहले का एक कार्टून जरूर याद आ जाता है, जो सम्भवत: हिन्दुस्तान में छपा था। वह खोजने पर मिल नहीं रहा। हालाँकि मैं पोस्टरों, पर्चों से दूर रहता हूँ, विज्ञापन कुछ ठीक नहीं लगता। विज्ञापन पर कुछ विचार रखूंगा कभी।

सोमवार, 14 नवंबर 2011

नेहरु और नेताजी पर भगतसिंह के विचार


बाल दिवस यानी चौदह नवम्बर के पहले जवाहर लाल नेहरु के खिलाफ़ भाई विश्वजीत सिंह जी ने एक लेख लिखा है। इन दिनों बहस का इरादा भी नहीं है मेरा, इसलिए यहाँ इस लेख को प्रस्तुत करने के बाद मैं किसी बहस में पड़ना भी नहीं चाहता। एक अक्तूबर को ही यह लेख मैंने टंकित कर लिया था। संयोग से विश्वजीत भाई ने याद दिला दिया, सो आज यहाँ लगा रहा हूँ। इसे भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज, सम्पादक - चमनलाल से लिया है। नेहरु के प्रति भगतसिंह के विचारों से मतभेद हो सकता है क्योंकि नेहरु भी 1928 में जो थे या रहे थे, वही नेहरु तो 1947 या 1962 में नहीं रहे होंगे।

नए नेताओं के अलग-अलग विचार

[जुलाई, 1928 के किरती में छपे इस लेख में भगतसिंह ने सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की है।]

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

पैसा, वेतन, बिहार सरकार, आडवाणी की यात्रा …गड्डमड्ड बातें बिहार की ( दूसरा और अन्तिम भाग )

(पैसा, वेतन, नीतीश कुमार, बिहार सरकार, प्रभात खबर, अंग्रेजी, निजी स्कूल, संसद, सांसदों के वेतन, आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी जनचेतना यात्रासब कुछ गड्डमड्ड हैं इस लेख में। इस लेख में सुसंगठित होना मेरे लिए सम्भव नहीं था। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ।)


पिछले भाग के बाद

निजी स्कूलों का पंजीयन और उनकी ताकत

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

पैसा, वेतन, बिहार सरकार, आडवाणी की यात्रा …गड्डमड्ड बातें बिहार की ( पहला भाग )


(पैसा, वेतन, नीतीश कुमार, बिहार सरकार, प्रभात खबर, अंग्रेजी, निजी स्कूल, संसद, सांसदों के वेतन, आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी जनचेतना यात्रा…सब कुछ गड्डमड्ड हैं इस लेख में। इस लेख में सुसंगठित होना मेरे लिए सम्भव नहीं था। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ।)

प्रभात खबर के तमाशे

बिहार में इन दिनों मीडिया सुशील कुमार के पीछे पगलाया हुआ है। वही सुशील जिन्होंने कौन बनेगा करोड़पति में पाँच करोड़ रूपये जीते हैं। प्रभात खबर ने तो एक दिन के लिए अतिथि सम्पादक ही बना डाला है। बिहार सरकार मनरेगा का ब्रांड एम्बेसडर बनाना चाहती है। ऐसी खबर भी सुनने में आई। वही बिहार सरकार जो छह हजार रूपये की तनख्वाह सुशील को देती है।

सोमवार, 7 नवंबर 2011

स्वेटर (कविता)

पहले
माँ बुनती थी स्वेटर
अपने बेटे के लिए ।
पत्नी, पति के लिए,
प्रेमिका, प्रेमी के लिए,
बहन, भाई के लिए ।
आज
स्वेटर तैयार हो रहे
कंपनियों द्वारा,
कस्टमर के लिए
उपभोक्ता के लिए ।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

समाजवाद ही क्यों? - अल्बर्ट आइन्सटीन


…लियो ह्यूबरमैन और पॉल स्वीजी ने समाजवादी और मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से घटनाओं का व्यापक विश्लेषण करने और उन पर टीका टिप्पणी करने के लिए एक मंच के रूप में मंथली रिव्यू पत्रिका की शुरूआत की थी। आइन्सटीन ने उस पत्रिका की नींव डाले जाने का स्वागत किया और मई 1949 में निकलने वाले उसके पहले अंक के लिए लियो ह्यूबरमैन के दोस्त नॉटो नाथन के आग्रह पर यह लेख लिखा था…लेख थोड़ा लम्बा है, लेकिन दो टुकड़ों में देने पर कुछ ठीक नहीं लगता। इसलिए पढ़ने में थोड़ा समय लगेगा।



समाजवाद ही क्यों?
-अल्बर्ट आइन्सटीन

क्या ऐसे व्यक्ति का समाजवाद के बारे में विचार करना उचित है जो आर्थिक-सामाजिक मामलों का विशेषज्ञ नहीं है? कई कारणों से मेरा विश्वास है कि यह उचित है।