भारत में इस्लाम पर बोलना हमेशा से विवादास्पद रहा है। कोई कहता है कि फलाँ व्यक्ति या नेता तुष्टिकरण की नीति अपना रहा है, तो कोई मुस्लिमों का पक्ष लेने पर हिन्दुओं का विरोधी कह देता है। भारतीय इतिहास का अपना शून्य के बराबर ज्ञान जिसे ज्ञान भी नहीं ही कहना चाहिए, से मैंने फ़ेसबुक पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के नोट पर कुछ बातें रखीं। कुछ सवाल हैं, जो कई बार सोचने के लिए बाध्य करते हैं या जिनका उत्तर नहीं मिलता या मैं जिनका उत्तर नहीं खोज पाता।
यहाँ चतुर्वेदी जी का नोट है और नीचे मेरे विचार, जो मैंने फ़ेसबुक पर रखे थे।
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रूढ़िवाद की देन है हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष
इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक -सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं। मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल,प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा,रूढ़िवाद टूटेगा और सामाजिक परायापन घटेगा।
भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं, कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं । उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय,घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है।
मुसलमानों के बारे में एक मिथ है कि उनका खान-पान और हमारा खान-पान अलग है, उनका धर्म और हमारा धर्म अलग है। वे मांस खाते हैं, गौ मांस खाते हैं। इसलिए वे हमारे दोस्त नहीं हो सकते। मजेदार बात यह है कि ये सारी दिमागी गड़बड़ियां कारपोरेट संस्कृति उद्योग के प्रचार के गर्भ से पैदा हुई हैं।
सच यह है कि मांस अनेक हिन्दू भी खाते हैं,गाय का मांस सारा यूरोप खाता है। मैकडोनाल्ड और ऐसी दूसरी विश्वव्यापी खाद्य कंपनियां हमारे शहरों में वे ही लोग लेकर आए हैं जो यहां पर बड़े पैमाने पर मुसलमानों से मेलजोल का विरोध करते हैं। मीडिया के प्रचार की खूबी है कि उसने मैकडोनाल्ड का मांस बेचना, उसकी दुकान में मांस खाना, यहां तक कि गौमांस खाना तो पवित्र बना दिया है, लेकिन मुसलमान यदि ऐसा करता है तो वह पापी है,शैतान है ,हिन्दू धर्म विरोधी है।
आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों , पश्चिमी रहन-सहन, वेशभूषा, जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्तों की तरह प्रचार करते रहते हैं। उस समय उन्हें अपना देश, अपनी संस्कृति, देशी दुकानदार, देशी माल, देशी खानपान आदि कुछ भी नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर यह भी देखा गया है कि मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाने वाले पढ़े लिखे लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है। वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए, वे विदेशी हैं।
मुसलमानों में कट्टरपंथी लोग यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान तो भारत के विजेता रहे हैं।वे मुहम्मद बिन कासिम,मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की संतान हैं। उनकी संस्कृति का स्रोत ईरान और अरब में है। उसका भारत की संस्कृति और सभ्यता के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है।
सच यह है कि 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक -राजनीतिक-आर्थिक निर्माण में मुसलमानों की सक्रिय भूमिका रही है। पन्द्रहवीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक उत्तरभारत की प्रत्येक भाषा में मुसलमानों ने शानदार साहित्य रचा है। भारत में तुर्क,पठान अरब आदि जातीयताओं से आने शासकों को अपनी मातृभाषा की भारत में जरूरत ही नहीं पड़ी,वे भारत में जहां पर भी गए उन्होंने वहां की भाषा सीखी और स्थानीय संस्कृति को अपनाया। स्थानीय भाषा में साहित्य रचा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर यहीं के होकर रह गए। लेकिन जो यहां के रहने वाले थे और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था उनको अपनी भाषा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जो बाहर से आए थे वे स्थानीय भाषा और संस्कृति का हिस्सा बनकर रह गए।
हिन्दी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है मुसलमानों के रचे साहित्य की एक विशेषता धार्मिक कट्टरता की आलोचना, हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता, हिन्दू देवताओं की महिमा का वर्णन है। दूसरी विशेषता यहाँ की लोक संस्कृति,उत्सवों-त्यौहारों आदि का वर्णन है। तीसरी विशेषता सूफी-मत का प्रभाव और वेदान्त से उनकी विचारधारा का सामीप्य है।
उल्लेखनीय है दिल्ली सल्तनत की भाषा फारसी थी लेकिन मुसलमान कवियों की भाषाएँ भारत की प्रादेशिक भाषाएँ थीं। अकबर से लेकर औरंगजेब तक कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सूफियों का जमकर विरोध किया। औरंगजेब के जमाने में उनका यह प्रयास सफल रहा और साहित्य और जीवन से सूफी गायब होने लगे। फारसीयत का जोर बढ़ा।
भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने ,उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं। ऐसे संगठन भी हैं जो मुसलमानों के प्रति अहर्निश घृणा फैलाते रहते हैं। इन संगठनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज मुसलमान भारत में अपने को उपेक्षित,पराया और असुरक्षित महसूस करते हैं।
जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं।
हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलोगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है ,वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों,दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना,दृढ़ बंधुत्व के बिना ,दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते,खासकर ऐसे समय ,जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’
भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
भारत में धार्मिक विद्वेष का आधार है सामाजिक रूढ़ियाँ। इसके कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों में ही सामाजिक रूढ़ियों को किसी न किसी शक्ल में बनाए रखने पर कट्टरपंथी लोग जोर दे रहे हैं। इसके कारण हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष बढ़ा है। सामाजिक एकता और भाईचारा टूटा है। हिन्दू-मुसलमान एक हों इसके लिए जरूरी है धार्मिक -सामाजिक रूढ़ियों का दोनों ही समुदाय अपने स्तर पर यहां विरोध करें।
हिन्दू-मुस्लिम समस्या हमारी पराधीनता की समस्या है। अंग्रेजी शासन इसे हमें विरासत में दे गया है। इस प्रसंग में निराला ने बड़ी मार्के की बात कही है। निराला का मानना है हिन्दू मुसलमानों के हाथ का छुआ पानी पिएं, पहले यह प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी करना चाहिए। इसके बाद एकीकरण के दूसरे प्रश्न हल होंगे।
निराला के शब्दों में हिन्दू-मुसलमानों में एकता पैदा करने के लिए इन समुदायों को ‘‘वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह विचारों की ऊँची भूमि’’ पर ले जाने की जरूरत है। इससे ही वे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होंगे।
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मेरी बात
पढ़ा। कुछ ठीक, कुछ असहमति। वैसे मुसलमान भारत के शासक जब थे तब उन्होंने अंग्रेजों की तरह लूटा नहीं और भारत को उस तरह बरबाद भी नहीं किया, यह सही है। हालाँकि मुस्लिम शासकों के द्वारा ही अंग्रेजों को यहाँ प्रश्रय दिया गया। और भारत में अंग्रेजों के साथ संघर्ष करने वाले प्रमुख और सबसे पहले राजाओं में सिराजुद्दौला भी मुस्लिम थे, और भारत को अंग्रेज सत्ता के चरणों में डालने का पहला कारण भी मीरजाफ़र, मुस्लिम ही था। यह तो वास्तव में होता है कि हिन्दू लोगों में एक बड़ा हिस्सा धर्म से लटकता नहीं रहता लेकिन मुस्लिम लोग कुरआन को आसमानी किताब कहकर उससे चिपके रहते हैं और प्रगति का भविष्य अंधकार में ले जाते हैं। रही भाषा की बात, तो कुछ कारण होते ही हैं झगड़े के। जैसे पटना दूरदर्शन से उर्दू समाचार सुनिए। उसमें कार्यक्रम की जगह प्रोग्राम कहा जाता है लेकिन कार्यक्रम नहीं। मतलब वे अरबी-फ़ारसी पर्याय न होने पर या सहजता से उपलब्ध न होने पर अंग्रेजी की गोद में जाते हैं लेकिन तत्सम शब्दों या भारत के देशज शब्दों से उन्हें दुश्मनी है। जबकि हिन्दी प्रदेश का हर आदमी, हिन्दी समाचारवाचक हर दिन अरबी-फ़ारसी शब्द के बोलता है और वह इफ़रात मात्रा में। भाषायी दुराग्रह क्यों है मुसलमानों में?
या एक और सवाल उठा सकते हैं। कि क्यों हिन्दू पैजामा-कुरता जो तुर्की-ईरानी लोगों का पहनावा है, आराम से पहनता है, लेकिन मुसलमान लोग धोती-कुरता नहीं पहनते। क्यों?
कहीं श्वेत-अश्वेत, नीग्रो आदि का झगड़ा तो कहीं ईसाई-यहूदी का झगड़ा, कहीं हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा, कहीं कुछ, कहीं कुछ। यानी विश्व का इतिहास हर जगह एक जैसा ही रहा है।
बात रही मांस खाने-बेचने की तो साहब, व्यापार का कोई धर्म नहीं है, पूँजीवादियों का एक ही धर्म है, वह है पूँजी।
आज भी नबी, पैगम्बर के बहाने इस्लाम यह खूँटा ठोके रहता है कि संसार में अब हजरत मोहम्मद से महान और ज्ञानी नहीं होगा। कुरआन अन्तिम और आसमानी ग्रंथ है। इसपर तर्क यह कि सब धर्मों में या उनके ग्रंथों में कमी होती है, इसलिए महापुरुष बदलते रहते हैं, लेकिन इस्लाम में सब कुछ ठीक है। अब ऐसी बातें कहने वाले को भला हम कैसे समझें-समझाएँ?
समस्या धर्म में है, जाति में है और आप कह रहे हैं कि दोनों धर्म आपस में मिलें या एक दूसरे को समझें। यह तो हमें पीछे धकेलने की बात हो जाएगी। धर्म और भगवान की सत्ता को ऊँखाड़ना हमारा लक्ष्य होना चाहिए, न कि झूठी राजनीति या मित्रता के नाम पर इस अत्याचार को चलने देने का मौका मिलना चाहिए।
इस लेख के कई अंश बहुतों को ठीक नहीं भी लग सकते।
बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति, सब नोटों की माया है।
जवाब देंहटाएंएक बेहतर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का निर्माण हो, यही हमारी कामना है।
जवाब देंहटाएं@ भाषाई दुराग्रह :)
जवाब देंहटाएंआपको लगता है कि बंगाली,ओडिया,तमिल,तेलगु,मलयाली,गुजराती, मुसलमान अपनी अपनी भाषा नहीं बोलते होंगे :)
भाषा अगर समुचित संचार और सम्यक संपर्क के मकसद पूरी कर पाती हो तो फिर उसमें अच्छे बुरे 'वाद' को घुसाने और भाषा को धर्म से जोड़ने का तर्क गले से नहीं उतरता :)
अगर मामला अंगरेजी शब्दों को बोलचाल में प्राथमिकता / सहजता के साथ स्वीकार करने का है तो क्या यह उत्साह किसी एक धर्म ( इस्लाम ? ) के लोगों की बपौती है :)
अगर आपके नज़रिए से देखूं तो हमारे देश में यह गुनाह हर भाषा को बोलने वाले , हर धर्म को मानने वाले तथा हर अंचल में रहने वाले करते हैं :)
वैसे वे लोग जो बोल नहीं सकते पर मुसलमान हैं हिंदू अथवा इसाई हैं और संकेतों की भाषा का इस्तेमाल करते हों तो क्या आपको वहां भी शब्दों के आग्रह पूर्वाग्रह दिखाई देंगें :)
प्रिय चन्दन जी , अब अगर मैं आपकी पसंद के कुछ शब्द उच्चरित नहीं कर पाया होऊं तो मुझे क्षमा करियेगा पर मैं दुराग्रही नहीं हूं और मैं वही बोलूंगा जिसमें मुझे सहजता हो रही है :)
@ धोती :)
क्या धोती साम्प्रदायिक सौहार्द्य का प्रतीक है :) इसे मेरे दादा जी पहनते थे पर पिता जी और मैं नहीं तो इससे क्या साबित हुआ :)
दक्षिण भारत के लोग जो लुंगी पहनते हैं क्या वो किसी धार्मिक आग्रह से जुडी हुई है ? क्या पंजाबी सिख बनाम पंजाबी मुसलमान ,कमीज और लुंगी को लेकर अलग अलग हैं :)
वेशभूषा और उसमें परिवर्तन की स्वीकृतियां पहनने वाले के अपने शौक ,अपनी पसंद और स्थानिक परिस्थितियों पे निर्भर करती हैं इसमें धर्म कहां से घुस गया :)
आपने पैंट शर्ट पहन रखी है और मैं भी इसे पहनता हूं इस हिसाब से मेरे आपके बीच वस्त्र विन्यास का साम्य तो है पर इस साम्य से मेरे और आपके धर्म का क्या वास्ता :)
@ हिंदू बनाम मुलिम बनाम ...,
लिखना तो चाहता था पर समय की कमी है इसलिए फिर कभी संवाद करूँगा आपसे !
@ अनुरोध ,
इंसानों की भाषायें / पहनावा / खानपान , धार्मिक आग्रहों से मुक्त रख कर बात करना मुझे सुसंगत लगता है इसलिए कह दिया ! आप चाहें तो अपने अभिमत पर टिके रह सकते हैं कि यह सब कुछ धर्म द्वारा निर्धारित होता है :)
चंदन जी, इस पर कुछ कहने के लिए शाम को लौटता हूँ.
जवाब देंहटाएंwebseoservices ने २३ नवम्बर २०११ १०:३१ पूर्वाह्न पर अपनी टिप्पणी की है:
जवाब देंहटाएं-----
जो मैं पत्रिकाओं में पढ़ रहा था वह अब साक्षात् समझ में आ गया !!
जनाब, अली साहब से,
जवाब देंहटाएं---------------
'आपको लगता है कि बंगाली, ओडिया, तमिल, तेलगु, मलयाली, गुजराती, मुसलमान अपनी अपनी भाषा नहीं बोलते होंगे :)'
……इसमें कितना न्याय किया गया है कि भाषा के साथ धर्म को घुसा लिया गया है। सारी भाषाओं के साथ मुसलमान जोड़ने से पता चलता है कि आपने बजाय इस लेख के मूल में जाने के अपनी बात कह डाली है।
'भाषा अगर समुचित संचार और सम्यक संपर्क के मकसद पूरी कर पाती हो तो फिर उसमें अच्छे बुरे 'वाद' को घुसाने और भाषा को धर्म से जोड़ने का तर्क गले से नहीं उतरता :) '
गले उतरने की बात तो बाद में। सवाल सवाल है, उससे भागना कहीं से ठीक नहीं। आप लाख कह लें या मैं लाख चिल्लाऊँ लेकिन बुद्ध या बौद्ध जब मूल रूप से समझे जाएंगे तो पालि भाषा सामने आएगी ही।
जब तुलना की जा रही हो तो तुलना को ही बुरा मान बैठना, कहाँ तक उचित है। और जो देखा गया है, उसी आधार पर अपनी बात भी कही गयी है, न कि अपने मन से बनाकर।
'अगर मामला अंगरेजी शब्दों को बोलचाल में प्राथमिकता / सहजता के साथ स्वीकार करने का है तो क्या यह उत्साह किसी एक धर्म ( इस्लाम ? ) के लोगों की बपौती है :)'
सवाल बपौती का नहीं लेकिन यह अंग्रेजी प्रेम अधिक क्यों? अधिकता क्यों? सहजता के नाम पर हम असहजता को भी परोस सकते हैं और ऐसा होता आया है। आपका सारा ऐतराज इस्लाम या मुस्लिम लोगों पर बोलने के कारण है, जहाँ तक मैं समझता हूँ। जहाँ तक मेरी जानकारी है, उर्दू का मतलब अरबी-फ़ारसी नहीं अरबी-फ़ारसी के साथ भारत की भाषाओं के शब्द , खासकर हिन्दी के शब्द हैं। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि विधानसभा जैसे बहुप्रचलित शब्द छोड़कर अंग्रेजी समाचार की तरह लेजिस्लेटिव एसेम्बली शब्द कहा जाता है, अगर विधानसभा के लिए अरबी-फ़ारसी शब्द नहीं हो तब? यह सवाल था। लेकिन इसका जवाब देने की बजाय, आपका भड़कना अधिक दिखा है।
जबकि आम आदमी के दोनों शब्द संस्कृत या हिन्दी के नहीं, मूलत: अरबी-फ़ारसी के हैं। शब्दों को अपनाते समय दोहरा रवैया और उसपर सवाल उठे तब, तर्क का गले न उतरना?
'अगर आपके नज़रिए से देखूं तो हमारे देश में यह गुनाह हर भाषा को बोलने वाले , हर धर्म को मानने वाले तथा हर अंचल में रहने वाले करते हैं :)
जवाब देंहटाएं'
मेरा नजरिया क्या है, यह सिर्फ़ दस वाक्य पढ़कर ही जान गये? ऐसे सर्वज्ञानी प्राणी को मेरा नमस्कार! यहाँ बात अधिकता की कही गयी है। आदमी को पानी की जरूरत होती है, बाढ की नहीं, भले ही बाढ पानी ही लाए। यह ध्यान रहे। ईमानदारी से और साफ मन से कभी हिन्दी समाचार सुनिए या हिन्दी फिल्म ही देखिए। कितनी मुहब्बत रहती है कि मुगले-आजम जो कि उर्दू फिल्म है, में भी प्रार्थना जैसे शब्द होते हैं और हिन्दी फिल्म में तो आधा अरबी-फ़ारसी देखने को हमेशा मिला है। भरोसा-यकीन-विश्वास, यतीम-अनाथ, हद-सीमा, दिल-हृदय जैसे सैकड़ों हजारों उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि हिन्दी वाले अरबी-फ़ारसी के कितने शब्दों से परिचित हैं, कितने शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और उसी जगह तथाकथित उर्दू वाले(क्योंकि गाँव का सामान्य आदमी इस मामले में सनकी नहीं होता, यह सनकी सिर्फ़ अपने को पढ़ा-लिखा कहने वाले मुस्लिम लोगों में अधिक है)क्या बोलते हैं, यह भी देखा जाय। एक बार यह देखा जाय कि प्रवचन में या सिक्खों की सभा में उर्दू के कितने शब्द हैं और एक मौलवी के भाषण में तत्सम शब्द कितने हैं। शिक्षा की जगह इल्म या एजुकेशन कहना इनकी आदत है लेकिन प्रचलित शब्द शिक्षा नहीं क्योंकि अंग्रेजी से इनका लगाव हमेशा अधिक रहा है। अब यहाँ दो-चार लेखकों के नाम लेकर बताने की आवश्यकता नहीं कि मलिक मुहम्मद जायसी या रसखान जैसे साहित्यकारों ने भी हिन्दी में लिखा है। और तो और मौलाना कलाम आजाद साहब जब संविधान सभा में बोलते हैं तब एक शब्द उनकी जबान से संस्कृत का या देशज हिन्दी का नहीं निकलता। उन्हें शिक्षा दिवस मनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वे बोलते हैं तब खालिस अरबी-फ़ारसी या अंग्रेजी में। अब ऐसे शब्दों या इस तरह बोलने को सम्यक सम्पर्क या समुचित संचार के नाम सही ठहरा रहे हों तब ठहराएँ लेकिन इससे बात खतम नहीं होती।
और गूंगे का उदाहरण आप शाब्दिक भाषा के मुद्दे को ही समाप्त करने के लिए दे रहे हों तब आगे कुछ कहना बेकार है। संचार दो तरह के हैं, एक शाब्दिक और दूसरा अशाब्दिक। सिर्फ़ सिर हिलाकर हाँ का संकेत करना अशाब्दिक संचार है और वहाँ शाब्दिक संचार को घुसाने की कोई आवश्यकता ही कहाँ हैं?
बात रही कपड़े की। मैंने मुसलमानों के साड़ी पहनने पर कोई सवाल नहीं उठाया। आपने यह नहीं सोचा कि क्यों? मुझे मालूम है कि यह धोती का मुद्दा कुछ ऊटपटांग लग सकता है लेकिन जब सवाल उठते हों और बार-बार एक ही बात होती हो तब उसे उठाना और जवाब तलाशना, कम से कम मेरी नजर में कहीं से अनुचित नहीं। अगर आपके दादाजी पहनते थे तब आपने देखा नहीं कि 100 में 99 लिखा है?…और 'वेशभूषा और उसमें परिवर्तन की स्वीकृतियां पहनने वाले के अपने शौक ,अपनी पसंद और स्थानिक परिस्थितियों पे निर्भर करती ' ……आखिर क्या वजह है कि यह सारे कारण या सारी परिस्थितियाँ दस हजार मुस्लिम लोगों में 9900 लोगों को एक ही उद्देश्य या चुनाव तक पहुँचाती हैं? आप यहाँ जर्मनी या इटली का उदाहरण नहीं दे सकते कि वहाँ अधिकांश लोगों के कपड़े एक जैसे हैं क्योंकि भारत विविधताओं का देश है। जिस गाँव में जिस शहर में सिर्फ़ दस प्रतिशत मुस्लिम हैं, वहाँ भी क्यों चुनाव एक जगह ही जाकर खत्म हो जाता है? सवाल मैंने उठाया ही यही था। जवाब मैंने लेख में दिया कहाँ। वह तो मैंने कहा कि मुझे इसके जवाब नहीं मिलते।
पानी दुनिया में चाहे तालाब का हो, चाहे कुएँ का, चाहे नदी का, चाहे चापाकल का, चाहे कहीं का…रासायनिक सूत्र मूलत: एक ही है…हाइड्रोजन दो अणु और आक्सीजन एक अणु…आखिर क्यों…क्योंकि परिणाम वैज्ञानिक प्रक्रिया से होकर गुजरा है और वह यथार्थ है। लेकिन मुस्लिमों के कपड़े चुनने में वैज्ञानिकता तो है नहीं (किसी धर्म में कुछ खास वैज्ञानिकता नहीं होती), तो एक खास सोच तो जरूर है, वह क्या है? सवाल ही यह है।
'इंसानों की भाषायें / पहनावा / खानपान , धार्मिक आग्रहों से मुक्त रख कर बात करना मुझे सुसंगत लगता है इसलिए कह दिया ! आप चाहें तो अपने अभिमत पर टिके रह सकते हैं कि यह सब कुछ धर्म द्वारा निर्धारित होता है :) '……एक मिनट के लिए भाषाएँ निकाल देते हैं…आदमी गूंगा हो गया। पहनावे को निकाल दिया…आदमी नंगा हो गया। अब खानपान निकाल दिया…वह निर्जीव हो गया, सजीव खाएगा ही। अब बताइए कि आप किस इंसान की बात कर रहे हैं?…
जवाब देंहटाएंआपने अपनी बात रखी…इसके लिए आपका बहुत धन्यवाद। लेकिन अन्त में जो वाक्य आप चिपका गये, वह, कहते हुए दुख होता है, कि आपकी भी पोल खोल गया क्योंकि आप भी, आपके विचार / अभिमत भी धर्म द्वारा निर्धारित हैं, यह आप ही कह रहे हैं। और रही मेरी बात तो मैं एक अधार्मिक व्यक्ति हूँ…अच्छा होता कि आप मेरे अन्य लेखों को देखकर इस विषय पर कुछ कहते।…और इसलिए धर्म द्वारा निर्धारण का प्रश्न शायद पैदा ही नहीं होता…
और अन्त में, एक आवश्यक बात जो मैं सबों से कहना चाहूंगा…
उदारवादी जो अक्सर भाषा के लिए बनते हैं, उनकी सारी उदारवादिता अंग्रेजी के लिए ही होती है, अब तक जितना मैंने जाना है…और उदारवादी लोगों से ईमानदारी की अपेक्षा शायद नहीं की जा सकती क्योंकि उदारवाद किसी को नजरअंदाज करके उदार बनता है और किसी को नजरअंदाज करके सोचना हमेशा बेईमानी है, वैचारिक बेईमानी…
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सबसे पहली टिप्पणी में जनाब के बाद अल्पविराम चिन्ह लग गया है, उसे हटाकर पढ़ें।
बधाई महोदय ||
जवाब देंहटाएंdcgpthravikar.blogspot.com
जहाँ तक भाषा का सवाल है वह संस्कारों की वाहक होती है. धर्म के संस्कार उसमें गुँथे रहते हैं.
जवाब देंहटाएंधार्मिक घृणा के पीछे जातिवाद है. भारत के मूलनिवासियों ने इस्लाम अपनाया, ईसाइयत अपनाई लेकिन हिंदुओं की घृणा से पीछा नहीं छूटा.
धार्मिक घृणा को 'अधर्म' के तौर परिभाषित करके देखिए, उसे मानने वाले नहीं मिलेंगे. घृणा को 'आध्यात्मिक रोग' कह कर देखिए, आपको नकारने वाले अधिक मिलेंगे. कारण इतना सा है कि धार्मिक घृणा फैलाने का साज़ो सामान वातावरण में बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध है.
ali ने आपकी पोस्ट " 100 में 99 मुस्लिम धोती नहीं पहनते। क्यों? " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंप्रिय श्री चन्दन कुमार मिश्र जी ,
भाषा और धर्म के घालमेल के लिए आपके आलेख ( मेरी बात ) के पहले पैरे की अंतिम पंक्ति को देखें :)
बौद्धों की पालि तो बाकी धर्मों की भाषायें भी फिक्स कर डालिए :)
लगता है आपने टीवी पर गूंगे बहरों के लिए समाचार कभी देखे नहीं हैं वर्ना 'भाषावाद' ( फिर चाहे वह ध्वन्यात्मक हो या दैहिक सांकेतिक अध्वन्यात्मक ) की अप्रासंगिकता का भी ख्याल रखते :)
दुनिया में पैदा हुए शुरुवाती मनुष्यों के वस्त्रविन्यास / खानपान /बोलचाल पे भी नज़र डाल लेते ज़रा :)
सवाल धोती का ही क्यों , कोई भी उठा सकते हैं , किसने मना किया है , ये तो आपका अधिकार है पर सवाल से इंसान के आग्रह (मैं इसे कोई दूसरा नाम नहीं दूंगा) तो स्पष्ट होते ही हैं :)
१०००० और ९९०० का आंकड़ा कहां से जुटाया आपने ! आप ही बेहतर जानते होंगें :)
आपको प्रतिक्रिया देते वक़्त मैंने हर वाक्य के साथ मुस्कराहट के संकेत अंकित किये हैं पर आपको यह मेरा भड़कना लगा तो इस पर मैं क्या कह सकता हूं :)
नि:संदेह मेरा विश्वास ईश्वर पर है सो मैं धार्मिक व्यक्ति भी हुआ पर मेरा ईश्वर /मेरा विश्वास /मेरा धार्मिक होना , मेरी वेशभूषा ,मेरे खान पान और मेरी भाषा को निर्धारित नहीं करता और ना ही मुझे, मुझसे से इतर मनुष्यता के लिए कोई पूर्वाग्रह रखने का हौसला देता है :)
आप अधार्मिक व्यक्ति हैं कि नहीं यह आप ही बेहतर जानते होंगे पर आपके सवाल भाषा / वेशभूषा / खानपान को धर्माधारित आधारित मानने जैसे ज़रूर हैं :)
धर्मों के आधार पर कपड़े चुने जाने की वैज्ञानिकता की अवधारणा ज़रा नई है अपने लिए इसलिए इसपर कोई प्रतिक्रिया देना उचित प्रतीत नहीं होता :)
सर्वज्ञान तो अतिशयोक्ति हुई पर 'प्राणी' स्वीकारने के लिए आपका धन्यवाद :)
शुभकामनाओं सहित !
ali द्वारा भारत के भावी प्रधानमंत्री की जबानी के लिए २३ नवम्बर २०११ ६:१६ अपराह्न को पोस्ट किया गया
आदरणीय अली जी,
जवाब देंहटाएंक्या बात है! सारे निर्देश मेरे लिए। अच्छा है। अब देखिए संचार और संप्रेषण का हाल…मैं :) ----यह समझता ही नहीं। और आप बिना यह जाने कि मैं इसे समझ सकता हूँ या नहीं प्रयोग किए जा रहे हैं। यह मुस्कुराहट के चिन्ह का हाल मुझे पता नहीं था। गूंगे-बहरों के समाचार दूरदर्शन पर ढाई बजे के आस-पास पहले आते थे। पता नहीं अब आते हैं या नहीं या कब आते हैं। …वैसे गूंगे-बहरों के लिए शाब्दिक भाषा पर पता नहीं आप बार-बार क्या और किसलिए कहना चाह रहे हैं, यह हमें समझ नहीं आ रहा।
...आँकड़े आपकी मर्जी पर हैं, जहाँ चाहें देख लीजिए। आपको मैं खानपान / वेशभूषा / भाषा धर्माधारित मानता हुआ लगता हूँ। लगने का क्या है? जहाँ तक मुझे लगता है, आप जिरह करने की जगह फैसले अधिक सुना रहे हैं।
…सवाल से इंसान का आग्रह हमेशा पता चल सकता है, यह कतई मानने लायक नहीं। सवाल निर्दोष भी होते हैं? जैसे कोई बच्चा अगर पूछ डाले कि बच्चे कहाँ से आते हैं तो आप क्या आग्रह मानेंगे? हाँ सवाल कई बार कुछ लोगों पर या उनके ओढे हुए खाल पर जरूर सवाल उठा सकते हैं। …अब निर्भर आप पर करता है कि आप किस सवाल को क्या समझते हैं?…आप स्वतंत्र हैं, जो मर्जी हो समझ सकते हैं, उसे आग्रही होने या नहीं होने का निर्णय भी स्वयं कर सकते हैं।
प्राणी …हुजूर…मुझे नहीं लगता कि सिवाय मनुष्य के और कोई प्राणी भी कम्प्यूटर पर लिख भी सकता है, लेखों पर टिप्पणी भी दे सकता है…और अगर आप यह कह रहे हैं कि मैंने आपको प्राणी स्वीकारा, इसलिए आप धन्यवाद देते हैं तो आप स्वयं समझें कि आप क्या सोच रहे हैं।
मुझे अपने किसी सवाल का तनिक भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला…आपने गूंगे-बहरे में उलझाने की कोशिश की कई बार…और वैज्ञानिकता पर भी या किसी बात पर कुछ कहने की बजाय यूँ ही कुछ कुछ कहते-गुनगुनाते रहे…ऐसा हमें लगा। और अगर यह सब गलत लगा तो माफी चाहूंगा।
सादर और यहाँ आने के लिए धन्यवाद सहित,
चंदन
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प्रिय चंदन कुमार मिश्र,
१-हमारा लक्ष्य धर्म व ईश्वर के नाम पर असमानता को बढ़ाते व येन-केन-प्रकारेण यथास्थिति को बनाये रखते इस प्रपंच को उखाड़ फेंकना होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं... सहमत हूँ आपसे...
२-बाकी धोती वाले मामले पर तो यही कहूँगा कि अगर वाकई ऐसा है तो शायद इसका संबंध इस बात से है कि धोती पहनना सहज नहीं है, या इसे धर्म विशेष से जुड़ा माना जाता है अब...क्योंकि मुसलिम कोट-पैंट, जींस-टीशर्ट, कुर्ता पाजामा, कुर्ता-चूढ़ीदार, टीशर्ट-बरमूदा, गंजी-लोअर, शर्ट-मुंडू, तहमद-कमीज, लुंगी-बनियान आदि आदि बाकी हिंदुस्तानियों की तरह ही पहनते हैं... वैसे मैंने यह भी देखा है कि दो सौ में से एक सौ निन्यानवे हिन्दू कभी भी क्रोशिये वाली सफेद टोपी कभी नहीं पहनते सिर में... क्या वजह है मित्र... ;)
३- एक वैचारिक ब्लॉग पर टेक्स्ट-सलेक्शन ताला लगा होने से विमर्श प्रभावित होता है... ऐसा मेरा अनुभव है... यदि हटा लेंगे तो बहुतों को सुविधा होगी...
...
ali ने आपकी पोस्ट " 100 में 99 मुस्लिम धोती नहीं पहनते। क्यों? " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएं@ प्रिय श्री चन्दन कुमार जी ,
आप मेरा भड़कना देख सकते हैं तो उसकी एवज में आपको :) से अपरिचित होने का संकेत भी ना दूं !
गूंगे बहरे पे जोर इसलिए दिया कि कोई भी भाषा इसलिए श्रेष्ठ नहीं होती कि उसे मैं बोलता हूं याकि उसमें ध्वनि होती है बल्कि इसलिए कि वह संचार में सफल होती है ! बस इसीलिये मैं यह आग्रह नहीं करना चाहता कि फलां भाषा में फलां भाषा के शब्द क्यों प्रयुक्त हुए हैं ! गूंगे बहरों की भाषा में उन शब्दों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती , हम जिनके प्रयोग के लिए बहस कर रहे हैं ! मेरा तो यह मानना है कि कोई भी भाषा किसी भी दूसरी भाषा से श्रेष्ठ या हीन नहीं होती उसकी सफलता केवल सफल संचार में है !
मैंने आप पर कोई फैसला आरोपित नहीं किया है ! बहस का दूसरा पक्ष रखने के लिए प्रतिप्रश्न खड़े किये हैं और इसे किसी भी बहस ( छेड़ने वाले बंधु ) के लिए अतार्किकता नहीं माना जाना चाहिए !
आप बच्चे नहीं हैं !
सामाजिक , अकादमिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में प्राणी होना और मनुष्य होना दो अलग अलग स्तरों की बात है ! मनुष्यों के लिए निर्धारित संबोधन प्राप्त नहीं होने पर भी यह संतोष रहा कि आपने मुझे कम से कम प्राणी तो माना !
मैंने समय के अभाव में हिंदू बनाम मुसलमान का मुद्दा टाल दिया था
और मुझे आपके सवालों के जबाब भी नहीं देने थे बल्कि सवाल बुनियाद से ही गलत हैं , ये कहना था ! मैंने वही प्रयास किया !
मेरा मानना है कि कपड़े चुने जाने का आधार वैज्ञानिक हो सकता है और होना भी चाहिए पर वैज्ञानिकता की कोख में धर्म को ठूंस देना भयंकर अतार्किक बात है !
खैर मैं आपको रुष्ट करने यहाँ नहीं आया था और ना ही आपको कोई मानसिक क्लेश पहुंचाना मेरा मकसद था ! एक मुद्दे पर जो मेरा अभिमत था और जो उचित जान पड़ा वह मैंने कह दिया ! संभवतः स्वस्थ बहस और स्वस्थ निष्कर्ष ऐसे ही आते हैं !
यदि मेरे कारण से आपको ठेस पहुँची हो तो विश्वास कीजिये कि मैं इस मंतव्य से यहाँ नहीं आया था !
पुनः शुभकामनाओं सहित !
ali द्वारा भारत के भावी प्रधानमंत्री की जबानी के लिए २३ नवम्बर २०११ ९:४३ अपराह्न को पोस्ट किया गया
आदरणीय प्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंआपके निर्देश पर अब नकली सुरक्षा कवच हटा लिया गया है…
अब बात धोती की…वह बस एक प्रतीक के रूप में कहने की बात थी…वरना आज से पचास साल पहले भी जब किसी इलाके में सौ घर मुस्लिम लोगों के और 1000 घर हिन्दू लोगों के थे, तब यह बात स्वीकारने लायक नहीं लगती सहजता की बात किसी ने सोची होगी। निश्चय ही धोती पहनना उतना सहज नहीं जितना अन्य। लेकिन इसके पीछे सहजता की बात से क्या ऐसा नहीं लग रहा क्या हर मुस्लिम को यह सहजता सोचने में आती है कि कौन सा कपड़ा सहज है और कौन सा नहीं?…
क्रोशिये का अर्थ मैं नहीं समझ सका, शायद कलफ जैसा कुछ हो … समझा नहीं। लेकिन अगर ऐसा है तो मैं उन कपड़ों के मामले में उन सभी हिन्दुओं पर वही आरोप लगाता हूँ जो मुस्लिमों पर लगाए हैं। मुझे किसी धर्म विशेष की पक्षधरता में बचाव तो नहीं ही करना है। आगे कभी हिन्दू समाज पर भी ऐसी बातें कह सकता हूँ, कभी ईसाई पर भी, जैन पर भी, सिक्ख पर भी…
लेकिन सहजता वाली बात कुछ ठीक नहीं लग रही है। क्योंकि एक साथ एक पूरे वर्ग में ऐसी वैज्ञानिकता-चेतना-चिन्तन का खयाल नहीं आ सकता, ऐसा लगता है। इसमें कुछ पारम्परिक है, कुछ जड़ता है, लेकिन यह वैज्ञानिकता …? दूर-दूर तक इसका अन्देशा हमें नहीं हो रहा।
आदरणीय अली जी,
जवाब देंहटाएंब्लागर की किसी समस्या के कारण कई बार टिप्पणियाँ नहीं दिख रहीं।
भाषा के मामले पर आप फिर वह सब कहते गये जिसका इन मुद्दों से कोई सम्बन्ध नहीं दिखता, कम से कम मुझे ऐसा ही लगता है।
प्राणी का अर्थ आप इस रूप में ले लेंगे, इसका तनिक भी अन्दाजा नहीं था। इसके लिए माफी चाहता हूँ। कई बार हम जो कहते हैं, सामने वाला कुछ और ही समझ लेता है। ऐसा जानबूझकर भी होता है और अनजाने में भी…
मुझे आपके बात रखने से कोई मानसिक क्लेश नहीं पहुँचा। और यह कहना कि 'सवाल बुनियाद से ही गलत हैं'…आपकी मान्यता या विचार है…हालाँकि एक वैज्ञानिक सोच हमेशा मानती-जानती है कि 'सवाल कभी गलत नहीं होते, उनके जवाब नाराज करने वाले हो सकते हैं या सवाल अनुत्तरित रह सकता है लेकिन सवाल गलत नहीं होते…और फिर से…सवाल कभी गलत नहीं होता'
एक बात कहना चाहूंगा कि आपकी बातें मुझे कोई संतोषजनक समाधान न सुझा सकीं, न ही मैं कुछ मार्गदर्शन पा सका।
फिर भी, आप यहाँ आए, अपनी बातें कहीं…शुक्रिया…
प्रिय श्री चन्दन कुमार मिश्र जी ,
जवाब देंहटाएंमैं कहना नहीं चाहता था प्रवीण जी ने कहा :)
क्रोशिये वाली टोपी वही सवाल है जो धोती वाला है :)
शायद इससे आपके सवालों पर सवाल ध्वनित हो पाये और मैं , जो संकेत देना चाह रहा था वे भी !
सस्नेह !
आदरणीय अली साहब,
जवाब देंहटाएंआपने ऊपर पढ़ा हो तो मैं अपनी बात कह चुका हूँ……क्रोशिए का अर्थ बताते तब आगे कुछ कहता।
छोड़िये भेदभाव के तर्क और शुरू कीजिये एक नया अध्याय जो ख़तम करदे हर एक फासला , हर एक फर्क और बदल दे दकियानूसी विचारधारा , ताकि पनप सके आपसी सोहार्द इस हिन्दू बनाम मुस्लिम विचारधारा में |
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क्रोशिया माने तो Crochet, यानी आगे से मुड़ा हुआ एक छोटा सा औजार जिससे मोजे, टोपी और मेजपोश बुने जाते हैं... आशय उस गोल, सफेद, सूती Skullcap से है जिसे नमाजी पहनते हैं।
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यहां तो सौहार्द्र की (राम तेरी मैली) गंगा बह रही है, रपट पड़े तो हर गंगे.
जवाब देंहटाएंआदरणीय राजपूत जी,
जवाब देंहटाएंचाहते तो हम वही हैं…
आदरणीय प्रवीण जी,
अब क्रोशिए का मतलब समझ आया। अब नमाज का नाम लिया जा रहा है, तो इस्लाम धर्म तो स्वयमेव उपस्थित है। हमने हिन्दुओं के रक्षा-सूत्र या जनेव या यज्ञोपवित की बात सबके लिए नहीं की। उनका ही उल्लेख किया है जहाँ धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है…वैसे भी पता नहीं कि हजरत मोहम्मद के यहाँ पैजामा-कुरता पहनते थे कि नहीं?…
अब तो मन्दिरों में पूजा करने वाले या पुरोहित भी पैंट-शर्ट या गैर-धोती धारण किए मिल जाते हैं। लेकिन मौलवी साहब बिना पैजामे-कुरते के?
वैसे ये टोपी वाली परम्परा हो या धोती वाली इसकी शुरूआत में या इसके पहनने में हाथ तो धर्म का दिखता है लेकिन साफ कहूँ तो मुस्लिमों में इस मामले में चिपके रहने का गुण दिखता है। यही क्यों होता है? इसी को समझना चाहता हूँ…
बाकी क्या कहें?
सादर,