(पैसा, वेतन, नीतीश कुमार, बिहार सरकार, प्रभात खबर, अंग्रेजी, निजी स्कूल, संसद, सांसदों के वेतन, आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी जनचेतना यात्रा…सब कुछ गड्डमड्ड हैं इस लेख में। इस लेख में सुसंगठित होना मेरे लिए सम्भव नहीं था। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ।)
निजी स्कूलों का पंजीयन और उनकी ताकत
कैसे पूँजी की ताकत सत्ता को या सरकार को उसकी औकात बताती है, उसका नमूना बिहार में इन दिनों निजी स्कूल हैं। बिहार सरकार ने सभी निजी शिक्षण संस्थानों को पंजीयन के लिए कुछ दिनों का समय दिया था। खबर है कि पटना जिले के दस प्रतिशत स्कूलों ने भी पंजीयन नहीं कराया है और यही हाल कमोबेश सभी जिलों का है। सरकार को सीधे चुनौती देने का काम किया है इन सबने। और हमारी प्यारी बिहार सरकार पता नहीं कौन-सा खेल कब खेलती है…
और सोचने की बात यह है कि निजी स्कूलों की मासिक फीस दो-चार सौ लेकर हजार-दो हजार तक है। लेकिन हमारी महान सरकार पंजीयन के लिए ली जा रही जानकारी में पैसे को छोड़कर सारी जानकारी माँग रही है। जैसे बच्चे कितने हैं, कमरे कितने हैं आदि। लेकिन बच्चों का, उनके अभिभावकों का जो आर्थिक शोषण जारी है, उसके लिए सरकार ने शायद(शायद इसलिए कि अभी तक सुनने को नहीं मिला है कि पैसे की बात सरकार पूछ रही है। अगर पूछा भी तो साल में पाँच सौ-हजार रूपये सरकार को दे देंगे ये सब, चंदा या भीख समझकर…सरकार भी निश्चिन्त और ये संस्थान भी) कोई सवाल पूछे नहीं और गलती से पूछ भी ले तो इस अन्दाज में कि इन संस्थाओं के मालिक परेशान न हों।
यहाँ विरोधाभास है कि निजी संस्थान पंजीयन करा भी नहीं रहे, सरकार पैसे या फीस के बारे में कुछ पूछ भी नहीं रही। फिर माजरा क्या है?…फिलहाल तो यह बात समझ नहीं आ रही।
+2 स्कूलों के माध्यम से बिहार सरकार ने किया क्या
लगभग छह सौ उच्च विद्यालयों को सरकार ने उत्क्रमित कर +2 बना दिया है। अब उच्च विद्यालयों के शिक्षक जो दशकों से दसवीं तक को पढ़ा रहे थे, वे तो इंटर को पढ़ा नहीं सकते थे/हैं। तो सरकार ने इन छह सौ विद्यालयों के लिए क्या किया यानी क्या उसने छह सौ +2 विद्यालयों के लिए शिक्षकों की नियुक्ति की? आइए कुछ हिसाब देखते हैं।
बिहार में लगभग 3000 उच्च विद्यालय हैं। इनमें से 1/5 को +2 कर दिया गया है। प्रति वर्ष इंटर में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या इन 600 विद्यालयों में चाहे जो हो, सवाल है कि एक +2 विद्यालय में इंटर को पढ़ाने के लिए कितने शिक्षक चाहिए? मेरी समझ में, कला, विज्ञान और वाणिज्य तीनों संकायों के लिए कम से कम 20-25।
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, भूगोल, इतिहास, राजनीति शास्त्र, श्रम एवं समाज कल्याण, समाजशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जंतुविज्ञान, गणित, मनोविज्ञान, गृहविज्ञान, तर्कशास्त्र, कम्प्यूटर, अर्थशास्त्र जैसे विषय तो हर विद्यालय में हैं।
लेकिन आप नीतीश कुमार से यह जानकर बहुत खुश होंगे कि किसी भी उत्क्रमित विद्यालय में पाँच (मेरी जानकारी में तो एक-दो भी नहीं) भी शिक्षक नहीं भेजे गये हैं।
अब मामला साफ है कि सरकार ने हजारों-लाखों छात्रों का भविष्य चौपट करने का मन बना लिया है। फिर भी बिहार और नीतीश की जयकार हो रही है।
सरकार रोजगार कितनों को दे सकती है?
बिहार सरकार हर साल कितने लोगों को रोजगार दे सकती है? यह सवाल कोई मजाक नहीं, बल्कि बहुत गम्भीर और आवश्यक सवाल है। हर साल बिहार की आबादी कम-से-कम पंद्रह लाख अधिक हो जाती है। अब समस्या यह है कि अगर हर साल कम से कम 3-4 लाख रोजगार भी राज्य में पैदा नहीं होंगे/होते तब बेरोजगारी की समस्या का हल क्या है और हमारी बिहार सरकार 2015 तक विकसित बिहार कैसे बना लेगी? दस करोड़ अड़तीस लाख की जनसंख्या के राज्य में 2011 में नियुक्तियों की कुल संख्या बीस-तीस हजार भी शायद ही है। अब जितने लोग स्विस बैंकों पर भिड़े हैं या किसी राजनैतिक (वास्तव में नीतिविहीन) पार्टी को कोसते हैं, खासकर दक्षिणपंथियों के लिए कह रहा हूँ, उनके पास इस समस्या का समाधान क्या है? यह समस्या राज्य की भी है, इसे देश के लिए भी समान समझा जाय। जनसंख्या अधिक होने का बहाना यहाँ नहीं चलेगा क्योंकि अगर देश की जनसंख्या आज से आधी भी होती तब समस्या ज्यों-की-त्यों रहती। बेरोजगारी का प्रतिशत वही रहता। जब तक आपके पास ऐसी व्यवस्था ही नहीं है कि सबको रोजगार मिल सके, आपका हाल बुरा होना ही है।
बिहार के लिए मैंने पहले भी कहा है कि हर साल बीस लाख लोग सारी परीक्षाएँ देते हैं और रोजगार पचास हजार भी नहीं तो सीधा सा अर्थ है कि राज्य 19 लाख से अधिक लोगों को हर साल बेरोजगार रखने की व्यवस्था कर चुका है। चिल्लाकर या रोकर रोजगार की संख्या कोई भी सरकार कितना कर सकती है? यही न कि बीस लाख में से अधिकतम (वैसे मालूम है कि ऐसा सम्भव ही नहीं) दो लाख लोगों को रोजगार मिल सकता है और फिर अठारह लाख लोग बेरोजगार रहेंगे। अब जीवन तो सबका चल रहा है ही, वह चाहे भीख माँगकर हो, मजदूरी कर के हो, दुकान चलाकर हो या जैसे भी हो।
साफ है कि कोई भी सरकार बेरोजगारी की समस्या का हल नहीं कर सकती। हम किसी पार्टी को या नेता को कितना भी कोसें लेकिन इसका समाधान आपके पास भी नहीं है। समाधान तलाशना होगा।
(समाप्त)
हालात पर 'तीखी' नजर.
जवाब देंहटाएंबहुत ही तल्ख-तीखी प्रतिक्रिया।
जवाब देंहटाएंअभी-अभी बिहार से लौटा हूं। पिछले ढ़ाई दशक में इतना अच्छा बिहार नहीं पाया। दो-ढ़ाई साल बिहार सरकार में नौकरी की थी, और लगभग बाइस साल पहले बिहार से बाहर आ गया, नौकरी के सिलसिले में। तब से मुश्किल से साल में एकाध बार ही बिहार जाना होता है। फिर भी कह सकता हूं, इतना अच्छा बिहार होता तो नौकरी करने बिहार से बाहर न जाता।
बेहतर...
जवाब देंहटाएंतल्ख है…मुझे लगता है कि छह साल में या फिर 2005 से पहले 1999 में या 1993 एक जैसा तो नहीं था बिहार। इतना तो समय के साथ भी बदल जाता है…कुछ बदलाव तो समय के साथ सहज ही होते रहते हैं, उनके लिए हम व्यक्ति को या नेता विशेष को कभी भी श्रेय नहीं दे सकते…
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