योद्धा संन्यासी का जीवन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन एक महान् रचनाकार, अन्वेषी इतिहासकार और जनयोद्धा थे। भारतीय नवजागरण की चेतना के इस महान् अग्रदूत ने हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रगतिशील और प्रौढ़ वैचारिक मूल्यों से जोड़ते हुए एक नई रचना-संस्कृति विकसित की। व्यक्तित्व की तरह उनका रचना-संसार भी व्यापक और बहुआयामी है। सचमुच, आश्चर्य होता है कि किशोर वय में ही घर-बार छोड़कर संन्यासी बन गये राहुल व्यवस्थित शिक्षा-दीक्षा और समय एवं सुविधा सम्बन्धी कठिनाइयों के बावजूद इतने महान् रचनाकार और बुद्धिजीवी कैसे बने!
सन् 1907 ईo आते-आते राहुल का घर-परिवार से मोहभंग-सा होने लगा। इसी वर्ष वे पहली बार घर से भागे और कलकत्ता पहुँचे। फिर दूसरी बार सन् 1909 ईo में कलकत्ता गए। वहाँ कई तरह के काम किए। बनारस के सुँधनी साहू की वहाँ एक बड़ी दुकान थी। राहुल को उसमें नौकरी मिली। इस बीच वह बनारस भी रहे। सन् 1910 ईo के बाद से ही घुमक्कड़ी और सधुक्कड़ी उनके जीवन में रचबस गई। इस घुमक्कड़ संन्यासी का नाम पड़ा- राम ओदार दास। सन् 1911-12 ईo में पंडित मुखराम के यहाँ उनकी भेंट परसा मठ (छपरा) के महंत रामकुमार दास से हुई। वे मठ में रहने लगे और सन् 1912-13 ईo में महंत के उत्तराधिकारी तय किए गए। इस बीच एक बार वे कनैला-पंदाहा भी गए। लोगों ने बहुत फटकारा लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे फिर परसा मठ पहुँच गए। लेकिन धीरे-धीरे मठ के बँधे-बँधाए जीवन की यांत्रिकता से वे ऊबने लगे। सन् 1913-14 ईo में उन्होंने दक्षिण भारत की लंबी यात्रा की। जुलाई, 1913 ईo में उन्होंने परसा मठ छोड़ा। आसनसोल, आद्रा, खड्गपुर होते हुए वे पुरी और फिर मद्रास पहुँचे। तिरूमलै भी गए। उन्होंने यहाँ तमिल सीखी। फिर तिरुपति कांजी कांचीपुरम् और रामेश्वरम् गए। सन् 1914 ईo में एक बार फिर परसा मठ लौटे। कुछ दिनों तक यहाँ रहने के बाद वे अयोध्या गए। इसी दौरान वे आर्य समाज के प्रभाव में आए। तब तक उन्होंने वेदांत का अध्ययन कर लिया था। इस इलाके में ‘बलि’ चढ़ाने की परंपरा थी। काली मंदिर में बकरे की बलि देने के विरोध में उन्होंने एक जोरदार व्याख्यान दिया। सनातनी पुरोहितों ने उन्हें लाठियों से पीटा। वे एक युवा नास्तिक-आर्य समाजी संन्यासी के रूप में चर्चित हो चुके थे। फिर उन्होंने आगरा में रहते हुए संस्कृत, अरबी के धर्म ग्रंथों और इतिहास का अध्ययन किया। मेरठ से छपने वाले “भास्कर” में राहुल जी का पहला लंबा लेख इसी दौरान छपा। वह ढोंगी साधुओं के खिलाफ था। सन् 1916 ई में वे लाहौर गए और वहाँ संस्कृत एवं अरबी ग्रंथों का विशद् अध्ययन किया। सन् 1917 ईo में रूसी क्रांति हुई। उसकी खबरें राहुल जी रुचि के साथ पढ़ते। सन् 1918 ईo में उन्होंने साम्यवादी दर्शन का अध्ययन शुरु किया। उस वक्त इस बारे में बहुत कम साहित्य उपलब्ध था। सन् 1921-22 ईo में रूस के तत्कालीन कम्युनिस्ट नेता ट्राटस्की की प्रसिद्ध पुस्तक “बोल्शेविज्म एवं विश्वक्रांति” पढ़ने को मिली। 29 अक्टूबर, 1922 ईo को वे कांग्रेस के जिला सचिव चुने गए। फिर उन्होंने नेपाल की यात्रा की। यहाँ बौद्ध विद्वानों, लामाओं और भिक्षुओं से ज्ञान प्राप्त किया।
राहुल जी ने संन्यासी जीवन में ज्ञानार्जन किया और इस ज्ञान ने उन्हें समाज और राजनीति से जोड़ा। 11 जनवरी, 1922 ईo को छपरा जिला कांग्रेस कमेटी की बैठक के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। बक्सर जेल में रहे। रिहा होने के बाद यात्रा पर निकले। लौटने पर आंदोलन छिड़ा और और फिर जेल गए। अप्रैल, सन् 1923 ईo में उन्हें हजारीबाग जेल में भेजा गया। जेल प्रवास के दौरान उन्होंने “बाईसवीं सदी” नामक पुस्तक की रचना की। उनका जेल जाना, जेल में अध्ययन-लेखन, बाहर निकलकर आंदोलनों में शामिल होना और फिर जेल जाने का सिलसिला निरंतर जारी रहा।
18 अप्रैल, 1925 ईo को दो वर्ष की सजा भुगतकर हजारीबाग जेल से रिहा हुए। इस वक्त तक यह विद्वान संन्यासी बिहार में ब्रिटिश हुकूमत के लिए ‘सिरदर्द’ बन चुका था। प्रशासन ने उन्हें ‘आंदोलनकारी नेता’ के रूप में चिन्हित कर लिया था। सन् 1926 ईo में वे कानपुर कांग्रेस के लिए प्रतिनिधि और आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने। उसी वर्ष उन्होंने तिब्बत की यात्रा की। फिर गोहाटी कांग्रेस में भाग लिया।
सन् 1922 ईo से ’37 के बीच के वर्ष राहुल जी के जीवन और चिंतन के विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने जीवन-जगत, दर्शन, राजनीति और धर्म का गहरा अध्ययन किया। सन् 1930-31 ईo आते-आते वे अनीश्वरवादी हो गए। बौद्ध-दर्शन ने उन्हें गहरे सार तक प्रभावित किया। इसके अध्ययन के क्रम में वे तिब्बत, श्रीलंका और चीन गए। सन् 1927-28 ईo में उन्होंने श्रीलंका में अध्ययन और अध्यापन किया। सन् 1929-30 ईo के दौरान सवा साल उन्होंने तिब्बत में बिताए। सन् 30 ईo में भारत के लिए रवाना होने से पहले पुस्तकें, चित्रपट और अन्य महत्वपूर्ण चीजें बाँधकर खच्चरों के माध्यम से कलिंगपोंग रवाना कर दिया। अब वे रामओदार साधु से राहुल सांकृत्यायन बन गए। श्रीलंका स्थित विद्यालंकार विहार में बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षित होने के बाद यह नया नाम मिला।
सन् 1932-33 ईo में वे यूरोप की यात्रा पर रहे। सन् 1934 ईo में दुबारा तिब्बत गए। वे कम्युनिस्ट-दर्शन के नज़दीक आ गए। इंग्लैंड-प्रवास के दौरान वे “डेली-वर्कर” नामक पत्र नियमित पढ़ते थे। उस वक्त अपने राजनीतिक चिंतन में आए परिवर्तन को उन्होंने स्वयं ही रेखांकित किया है— “मैं कम्युनिस्ट पार्टी का मेम्बर नहीं था लेकिन लेनिन-स्टालिन की पार्टी को छोड़ मैं किसी के विचारों और कार्यप्रणाली को पसन्द नहीं करता था।” सन् 35 ईo में उन्होंने जापान, कोरिया, मंचूरिया, ईरान और सोवियत संघ की यात्रा की। सन् 1936 ईo में तीसरी बार तिब्बत गए। फिर 1937 ईo में दूसरी बार सोवियत संघ जा पहुँचे। सन् 1936-37 ईo के दौरान उन्होंने “गांधीवाद और साम्यवाद” और “जमींदारी-प्रथा” जैसे लेख लिखे। सोवियत संघ में उनकी मुलाकात लोला (पूरा नाम—एलेना नर्वेर्तोवना कोजैरोवस्काया) नामक प्रबुद्ध महिला से हुई। वह अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और मंगोल भाषाएँ बोल सकती थीं। उन्होंने ‘लोला’ से रूसी सीख ली और उसे संस्कृत सिखाया। राहुल ने लोला से विवाह कर लिया और 5 सितम्बर, 1938 ईo को एक पुत्र ‘ईगोर’ का जन्म हुआ। लेकिन जन्म से पहले ही राहुल स्वदेश लौट आए। लोला नहीं आ सकी।
यहाँ आने पर उन्होंने कई स्थानों पर आन्दोलन में भाग लिया। कांग्रेस से उनका पूरी तरह मोहभंग हो चुका था। सन् 1938-39 ईo में अमवारी के किसानों का नेतृत्व किया। बड़हिया रेवड़ा और गया के किसान आन्दोलन में भी भाग लिया। फरवरी, 1939 ईo में अमवारी आन्दोलन के दौरान उन पर प्राणघातक हमला हुआ और जेल भेजे गए। जेल-प्रवास में उन्होंने ‘तुम्हारी क्षय’ लिखी। 10 मई को जेल से रिहा हुए। छितौली किसान आन्दोलन में भाग लेते वक्त फिर गिरफ्तार हुए और हजारीबाग जेल भेजे गए। जेल में अनशन कर दिया। अनशन के 17वें दिन उन्हें रिहा किया गया।
सन् 1940 ईo में उन्हें प्रान्तीय किसान सभा का सभापति चुना गया। उधर रामगढ़ कांग्रेस के लिए प्रतिनिधि और प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गए। मार्च महीने में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग से ‘देवली कैंप जेल’ भेजे गए। यहीं पर उन्होंने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के साथ 23 अक्टूबर, 1941 ईo से इतिहास प्रसिद्ध भूख हड़ताल की।
इस दौरान उन्होंने अपनी पुस्तकें—“दर्शन-दिग्दर्शन”, “विश्व की रूपरेखा”, “मानव समाज”, “वैज्ञानिक भौतिकवाद”, “बौद्धदर्शन” लिखीं। राहुलजी दो दर्जन से अधिक भाषाओं के ज्ञाता थे पर उन्होंने आमतौर पर हिन्दी में ही लिखना पसंद किया। प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता और उनके सहकर्मी रहे—रमेश सिन्हा, अली अशरफ और इंद्रदीप सिन्हा के अनुसार वे 34 भाषाएँ जानते थे। मित्र और सहयोगी रहे डॉo प्रभाकर माचवे ने भी लिखा है—“वे 34 से अधिक भाषाओं के ज्ञाता थे। यह जानकर विस्मय होता कि कैसे उन्होंने इतनी भाषाएँ सीखीं!”
(जारी...)
राहुल जी के जीवन की यह संक्षिप्त रूपरेखा बहुत महत्वपूर्ण है। इस के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंराहुल जी की रचनाएँ तो पढ़ी थीं लेकिन उनके जीवन और यात्राओं के बारे में जो आपने दिया है वह मेरे लिए नया है. आपको धन्यवाद चंदन जी.
जवाब देंहटाएंश्री मनोज कुमार जी ने २१ नवम्बर २०११ १:१६ अपराह्न पर टिप्पणी की,
जवाब देंहटाएं_____
बड़ा विस्तार से पढ़ने को मिल रहा है राहुल जी के बारे में।
आभार इस प्रस्तुति के लिए।
यायावर की यात्राएं...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआनंद...
जवाब देंहटाएंराहुल का जीवन एक अनवरत, अनोखी यात्रा है...
बाईसवी सदी मैंने पढी है -राहुल सरीखी दिव्य दृष्टि बहुत कम बल्कि नगण्य भारतीय लेखकों में दिखती है .....
जवाब देंहटाएंश्री अरविन्द जी, बाईसवीं सदी सम्भवत: हिन्दी का पहला या शुरूआती विज्ञान गल्प भी माना जाता है। एक सुखद स्वप्न दिखाता है वह लघु उपन्यास।
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