बुधवार, 16 नवंबर 2011

प्रभात प्रकाशन मतलब भाजपा-जदयू का प्रकाशन…राष्ट्रीय पुस्तक मेला, पटना से लौटकर

इस बारह तारीख को पुस्तक मेले में गए। बहुत अच्छा तो नहीं कह सकते लेकिन अच्छा ही लगा। वैसे भी पुस्तक मेले में पाठक को किताब लेकर पढ़ने-देखने की जितनी छूट दुकानदार देते हैं, उतनी दुकान में तो देते नहीं। नेशनल बुक ट्रस्ट और बिहार सरकार ने मिलकर पुस्तक मेला आयोजित किया है। पटना पुस्तक मेला भी जल्द ही लगेगा। सरकारी प्रकाशनों की किताबें भी खूब महँगी हुई हैं। अकादमियाँ भी किताब इतने कम दाम में बेचती हैं कि आम आदमी के खरीदने का सवाल ही नहीं उठता।
      विज्ञापनबाजी और करियर के नाम पर दुकानें धीरे-धीरे पुस्तक मेले में बढ़ती जा रही हैं। और पर्चियाँ भी पाठकों को पकड़ा ही दी जाती हैं। लोगों की जेब और हाथ में पर्चियाँ कैसे ठूँस या पकड़ा दी जाती हैं, इसपर दो-तीन साल पहले का एक कार्टून जरूर याद आ जाता है, जो सम्भवत: हिन्दुस्तान में छपा था। वह खोजने पर मिल नहीं रहा। हालाँकि मैं पोस्टरों, पर्चों से दूर रहता हूँ, विज्ञापन कुछ ठीक नहीं लगता। विज्ञापन पर कुछ विचार रखूंगा कभी।
      हाँ, तो रपट लिखने-विखने हमें आती नहीं। इसलिए सीधे बात पर आते हैं।
एक कोई पत्रकार महाशय (नाम रत्नेश था शायद) भाषण दे रहे थे। कह रहे थे कि कुछ दिन पहले उनसे निबन्ध लिखवाने के लिए किसी ने उनको दो-ढाई सौ किताबें दीं, और वह भी 3-400-500 पेज(उन्होंने पेज ही कहा था) की सब। और जनाब 4-5 महीने में सब पढ़ गए और धमाकेदार निबन्ध लिख गए। सम्भवत: मौर्य टीवी(प्रकाश झा का है) में काम करते हैं। ऐसे ही लग रहा है कि सफेद झूठ झाड़ रहे हैं।
      जयप्रकाश नारायण पर पढ़नेवालों के लिए सस्ता साहित्य मंडल ने कुछ कृपा की है। वहाँ से काफी कम कीमत पर जयप्रकाश पर कुछ पढ़ने-सोचने को मिल रहा है।
      बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी पुरानी किताबों पर नए दाम की मुहर लगाकर किताबें बेच रही हैं। एक चीज पर ध्यान गया और मैंने अकादमी वालों से कहा भी। दर्शनशास्त्र की कोई किताब थी। लेखक- हरिमोहन झा। मैथिली के स्वनामधन्य साहित्यकार। उनकी खट्टर काका का कोई जवाब नहीं। उसके कुछ अंश संशयवादी विचारक पर आप पढ़ सकते हैं। हाँ, तो किताब फिर से छपी है और उसपर लेखक के बारे में लिखा है कि सम्प्रति वे पढ़ा रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि उनकी मृत्यु 1985 में ही हुई थी। और किताब का नया संस्करण भी इधर आया है। लेकिन अकादमी के लोगों को इससे भी मतलब नहीं कि लेखक जीवित है या मृत और उसका पता भी किताब में छाप गये।
      और सब अपनी किताबें बेच रहे हैं, उनपर अधिक नहीं कहना है। प्रभात प्रकाशन के बारे में जरूर कुछ कहना है। वहाँ, मैं बोल रहा हूँ सिरीज की किताबें आई हैं, जैसे- मैं तिलक बोल रहा हूँ, मैं विवेकानन्द बोल रहा हूँ, मैं भगतसिंह बोल रहा हूँ आदिआश्चर्य तो तब हुआ जब उस सैकड़ों पन्ने की किताब में अलग-अलग विषयों पर सूक्तियों की तरह बहुत सारे वाक्य पढ़ने को मिले। लेकिन ईश्वर, समाजवाद, नास्तिकता, आस्तिकता आदि पर कुछ नहीं था। अब कोई बताए कि जब किसी विचारक की किताब में सैकड़ों विषयों पर उसकी बातें रखी जा रही हैं तब इन विषयों या बिन्दुओं को क्यों छोड़ा गया है? वामपंथ की आलोचना पर भी किताबें दिखी। निश्चय ही आलोचना भी एक आवश्यक चीज या विधा है। लेकिन वहाँ भाजपा या संघ के लोगों द्वारा घृणात्मक और राजनीतिक आलोचना ही दिखी। नीतिन गडकरी, आडवाणी, जसवंत सिंह, अरुण शौरी सहित सब भाजपाइयों की किताबें दिखीं। कलाम को छापकर भी प्रभात ने भाजपाई होने का ही प्रमाण दिया था। प्रभात खबर के संपादक हरिवंश की बिहार पर किताबें हैं, जिसमें नीतीश कुमार का यशोगान किया गया होगा, मैंने देखा तो नहीं लेकिन लगा ऐसा ही। स्वयं नीतीश की किताब भी है। मतलब साफ कहें तो मुझे लगा कि प्रभात प्रकाशन मतलब भाजपा-जदयू…

इससे अधिक नहीं कहना है कुछ…बहुत कुछ लिखा जा सकता था लेकिन मेरे वश का नहीं है फिलहाल…
      

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है चंदन जी. बहुत ही सही चित्र खींचा है. पुस्तक मेलों के व्यापार, जिसे विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य के आपने सीधी नज़र से देखा है, का असली स्वरूप यही होता है. बढ़िया.

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  2. कुछ ज़रूरी मुद्दों की ओर ध्यानाकर्षण किया आपने।

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  3. प्रकाशक द्वारा हरमोहन जी के सन्दर्भ में आप ने अच्छा ध्यान दिलाया है ,

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  4. बहुत अच्छी जानकारी के साथ अच्छी प्रस्तुति।धन्यवाद चंदन जी।

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  5. 16 नवम्बर को 11:45 अपराह्न में मनोज कुमार जी टिप्पणी:

    सुना है बिहार में लगने वाले पुस्तक मेले में सबसे अधिक किताबें बिकती हैं।
    सही ही होगा। बिहार में अब भी किताब खरीद कर पढ़ने का चलन है।

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  6. यानि फिर गुनगुना लें- 'जमाना खराब है...'

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