रविवार, 23 अक्तूबर 2011

जेपी ही गायब थे आडवाणी की यात्रा में, हाँ…नीतीशायण चालू रही


बारह तारीख (12-10-11) को पटना आने के क्रम में सैकड़ों जगह बैनर दिखे। छपरा में एक दिन पहले ग्यारह तारीख को जयप्रकाश नारायण की जयंती पर खूब तमाशा हुआ था। छपरा से पटना लगभग 70 किलोमीटर है। लेकिन 70 किलोमीटर के रास्ते पर मुझे जयप्रकाश नारायण की तस्वीर सिर्फ़ 2-3 जगह ही दिखी। दिखे तो बस नीतीश, आडवाणी और छोटे-बड़े तथाकथित महान नेता। सुषमा स्वराज को बिहार की प्रशंसा करके बहुत सुकून मिलता है, बिहार मतलब नीतीश के बिहार की। कुछ बातें हैं बिहार के बारे में, उस दिन की यात्रा के बारे में, राजनीति के बारे में।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…


जगजीत सिंह का जाना मीडिया के लिए अमिताभ के जन्मदिन की खबर पर भारी पड़ गया। 40 साल तो दोनों ने गुजारे हैं संगीत और फिल्म जगत में। फिर भी जगजीत का अमिताभ पर भारी पड़ना उनकी हैसियत को दर्शाता तो है ही। अमिताभ ने अपने जन्मदिन की बात तो लिखी है अपने लिखाई-मशीन से लेकिन जगजीत पर नहीं लिखा कुछ। जब ट्वीट पर ही अखबार टूट पड़े हैं, तो वहीं पर अमिताभ ने भी काम चलाया है।
            जगजीत के जाने पर सबसे अलग और बहुत ईमानदारी से याद करते हुए लिखा दिनेश चौधरी जी ने। वे लिखते हैं जगजीत साहब के चले जाने की खबर एक चैनल पर देखकर झटका लगा। पर उम्मीद खत्म नहीं हुई थी, यह सोचकर कि ये चैनलवाले तो उल्टी-सीधी सच-झूठ खबरें देते ही रहते हैं, चलो किसी और चैनल पर देखें। चैनल बदल दिया। लेकिन दूसरे-तीसरे हरेक चैनल पर यही खबर।
और उम्मीद भी की थी कि जगजीत साहब अस्पताल से बाहर आकर फिर से गालिब की ग़ज़लों को गायेंगे। उनके अस्पताल में दाखिल होने के एक दिन पहले ही अखबारों में यह खबर पढ़ी थी कि गालिब की ग़ज़लों के साथ जगजीत व गुलजार साहब की जोड़ी एक बार फिर सामने आ रही है। इसी उम्मीद में मैं ग़ज़लों के पूरे सफरनामे को याद कर रहा था कि जगजीत साहब फिर से अपनी ग़ज़लों की महफिल सजायेंगे, पर अफसोस ऐसा हो न सका क्योंकि इस बार सच बोल रहे थे कमबख्त चैनल वाले! कितने बेरहम होते हैं खबरों पर काम करने वाले कि इधर जगजीत साहब गुजरे नहीं कि वे विकिपीडिया में हैंसे अपडेट होकर थेहो गये।

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र



ध्यान दें: यह लेख कुछ लोगों के लिए नहीं है। वे कौन हैं, यह पढ़कर वे स्वयं जान लें।

लीजिए हम भी अर्थशास्त्री हो गए। हम बिलायत के पीएचडी नहीं हैं भाई। इसलिए जीडीपी-फीडीपी समझा नहीं पाएंगे। इसलिए कुछ सीधी-सीधी बात कहेंगे। एक दिन खयाल आया कि भारत का अर्थशास्त्र क्या है, तो कुछ चीजें दिमाग ने मुझसे कहीं। हम वह अर्थशास्त्र रखने जा रहे हैं, जो भिखारी से लेकर किसान तक को समझ में आ सके। समझने के लिए अक्षरज्ञान होना भी आवश्यक नहीं है। हाँ, यह मेरी कोई बपौती (होती तो यह भी अपनी नहीं है।) नहीं है कि इसे मैंने ही सोचा है और दूसरे किसी ने कभी नहीं सोचा होगा, इसका दावा कर दूँ।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)


हमेशा की तरह आज दो अक्तूबर को गाँधी जी अधिक, लाल बहादुर शास्त्री कम ही याद किए जाएंगे। हम भी गँधियाते थे पहले। कई बार गाँधी जी कविताई का विषय बनते रहे थे। लेकिन अब यह सब 2004-05 के बाद बन्द है। विवेकानन्द भी इसी तरह कई बार अपने विषय होते थे। अभी थोड़े दिनों पहले ही आपने गाँधी जी पर जय हे गाँधी! हे करमचंद!! कविता पढ़ी थी यहाँ। आज गाँधी जी के प्रति सम्मान तो है लेकिन पहले जितनी श्रद्धा तो नहीं ही रही। उनपर एक कविता या गीत जो कहें, गाँधी जयंती, 2004 पर गाने के लिए ही मानिए, लिखा था। क्योंकि गाँधी जी लोकप्रिय क्यों विषय पर भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई थी, तो सोचा कि एक गीत भी हो जाए। हालांकि इसे गाया नहीं जा सका और बाद में 26 जनवरी, 2005 को इसे गाया गया। अब इन दिवसों में रुचि तो है नहीं। …इस रचना में भावनाएँ हैं, अब थोड़ा रूखा हूँ। पहले की अधिकांश मान्यताएँ एकदम बदल गईं है। फिर भी मेरी सबसे प्रिय खुद की रचनाओं में यह रचना आज भी शामिल है। अगर आप मोहम्मद रफ़ी का गाया क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे या इधर चलने वाला गीत कलियुग बैठा मार कुंडली की तर्ज पर इस रचना को गाकर देखें, तो आपको पसन्द जरूर आएगा। मुझे इसकी कुछ पँक्तियाँ बहुत पसन्द हैं, अब यह अपनी प्रशंसा ही सही, लेकिन सच है।