रविवार, 2 अक्टूबर 2011

एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)


हमेशा की तरह आज दो अक्तूबर को गाँधी जी अधिक, लाल बहादुर शास्त्री कम ही याद किए जाएंगे। हम भी गँधियाते थे पहले। कई बार गाँधी जी कविताई का विषय बनते रहे थे। लेकिन अब यह सब 2004-05 के बाद बन्द है। विवेकानन्द भी इसी तरह कई बार अपने विषय होते थे। अभी थोड़े दिनों पहले ही आपने गाँधी जी पर जय हे गाँधी! हे करमचंद!! कविता पढ़ी थी यहाँ। आज गाँधी जी के प्रति सम्मान तो है लेकिन पहले जितनी श्रद्धा तो नहीं ही रही। उनपर एक कविता या गीत जो कहें, गाँधी जयंती, 2004 पर गाने के लिए ही मानिए, लिखा था। क्योंकि गाँधी जी लोकप्रिय क्यों विषय पर भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई थी, तो सोचा कि एक गीत भी हो जाए। हालांकि इसे गाया नहीं जा सका और बाद में 26 जनवरी, 2005 को इसे गाया गया। अब इन दिवसों में रुचि तो है नहीं। …इस रचना में भावनाएँ हैं, अब थोड़ा रूखा हूँ। पहले की अधिकांश मान्यताएँ एकदम बदल गईं है। फिर भी मेरी सबसे प्रिय खुद की रचनाओं में यह रचना आज भी शामिल है। अगर आप मोहम्मद रफ़ी का गाया क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे या इधर चलने वाला गीत कलियुग बैठा मार कुंडली की तर्ज पर इस रचना को गाकर देखें, तो आपको पसन्द जरूर आएगा। मुझे इसकी कुछ पँक्तियाँ बहुत पसन्द हैं, अब यह अपनी प्रशंसा ही सही, लेकिन सच है।
यह रही वह रचना 
             (गीत) एक बार फ़िर आ जाओ

बापू आपसे फ़िर आने का,
विनती करता शरणागत है।
एक बार फ़िर आ जाओ तुम,
आ पड़ी तेरी ज़रूरत है।
छुआछूत को तुमने बापू,
हमसे दूर हटाया था।
सत्य, अहिंसा और प्रेम का,
हमको पाठ पढ़ाया था।
हिंदी को ही तुमने बापू,
राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।
थी जन के हृदय की भाषा,
तुमने देशोद्धार किया।
बापू आपसे फ़िर … … … …

दलितों को तुमने समाज में,
उच्च स्थान दिलाया था।
तुमने अपने उत्तम चरित्र से,
पूरा संसार हिलाया था।
ना जाने है कैसी हो गयी,
बापू युग की हालत है।
एक आदमी को दूज़े से,
ना जाने क्यों नफ़रत है।
आवश्यकता आन पड़ी अब,
एक नहीं शत गाँधी की।
जड़ से इस तम की बगिया को,
फेंके ऊँखाड़, उस आँधी की।
बापू आपसे फ़िर … … … …

चारों तरफ़ पश्चिम-पश्चिम की,
लगी ना जाने क्यों रट है।
सूख रहा बूढ़ा बेचारा,
इस भारत का यह वट है।
बढ़ती जाती आज ज़रूरत,
बापू हमको तेरी है।
भारत के इस दीपक गृह में,
छायी आज अँधेरी है।
मुक्त देश को किया तुम्हीं ने,
लोकप्रियता प्राप्त हुई।
हम जिस दिन आज़ाद हुए,
उस दिन उन्नति समाप्त हुई।
बापू आपसे फ़िर … … … …

क्या मुंबई है, क्या काशी है,
होता चारों तरफ़ पतन।
छोड़ के सब भारतीय संस्कृति,
अपनाते केवल फ़ैशन।
दिन प्रतिदिन जाता है भारत,
तीव्र गति से रसातल में।
केवल तुमसे आशा बापू,
इस विनाश के दलदल में।
अंत में कहता तुमसे बापू,
बिलखता ये शरणागत है।
ऐसी हालातों में बापू,
तेरी सिर्फ़ ज़रूरत है।
बापू आपसे फ़िर … … … …

8 टिप्‍पणियां:

  1. गांधी जी का विश्वास अहिंसा की नीति में था। वे एक अहिंसक समाज की स्थापना के पक्षधर थे। एक ऐसा समाज जहां किसी भी व्यक्ति का शोषण न हो। इस तरह से स्वदेशी की भावना का भी विकास होता। यह भावना विदेशी चीज़ों के इस्तेमाल से लोगों को रोकती। ग्रामीण लोगों को रोज़गार के पर्याप्त अवसर मिलते। अंततोगत्वा वे न्यासीकरण के सिद्धांत को अमल में लाना चाहते थे। यानी भूमि का स्वामित्व सामूहिक होता। लोग मित्रवत रहते क्योंकि यह समाज अहिंसक समाज होता। ऐसा समाज आधुनिक अवधारणा और तौर तरीकों के रूप में नहीं था।

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  2. हमें तो यही गीत याद आता है-
    आज है दो अक्‍टूबर का दिन
    आज का दिन है बड़ा महान
    आज के दिन दो फूल खिले थे,
    जिनसे महका हिन्‍दुस्‍तान
    एक का नारा अमन एक का
    जै जवान जै किसान
    .

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  3. राहुल सर का गीत तो बहुत अच्छा है .
    मैंने अपना विचार पहले पोस्ट किया ,
    फिर लगा कि आप ने भी कुछ लिखा होगा .
    चेक किया तो सही निकला मेरा सोचना ,
    कविता वाकई पसंद आने वाली है

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  4. अच्छे उदगार समाहित किए है यह पोस्ट .आभार .

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  5. भई गीत तो बढ़िया लिखा है.
    व्यक्ति की मान्यताएँ बदलती रहती हैं उन विचारों के साथ जो उसे समय-समय पर प्राप्त होते हैं और जिन्हें उसकी बुद्धि मानती रहती है.

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