गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…


जगजीत सिंह का जाना मीडिया के लिए अमिताभ के जन्मदिन की खबर पर भारी पड़ गया। 40 साल तो दोनों ने गुजारे हैं संगीत और फिल्म जगत में। फिर भी जगजीत का अमिताभ पर भारी पड़ना उनकी हैसियत को दर्शाता तो है ही। अमिताभ ने अपने जन्मदिन की बात तो लिखी है अपने लिखाई-मशीन से लेकिन जगजीत पर नहीं लिखा कुछ। जब ट्वीट पर ही अखबार टूट पड़े हैं, तो वहीं पर अमिताभ ने भी काम चलाया है।
            जगजीत के जाने पर सबसे अलग और बहुत ईमानदारी से याद करते हुए लिखा दिनेश चौधरी जी ने। वे लिखते हैं जगजीत साहब के चले जाने की खबर एक चैनल पर देखकर झटका लगा। पर उम्मीद खत्म नहीं हुई थी, यह सोचकर कि ये चैनलवाले तो उल्टी-सीधी सच-झूठ खबरें देते ही रहते हैं, चलो किसी और चैनल पर देखें। चैनल बदल दिया। लेकिन दूसरे-तीसरे हरेक चैनल पर यही खबर।
और उम्मीद भी की थी कि जगजीत साहब अस्पताल से बाहर आकर फिर से गालिब की ग़ज़लों को गायेंगे। उनके अस्पताल में दाखिल होने के एक दिन पहले ही अखबारों में यह खबर पढ़ी थी कि गालिब की ग़ज़लों के साथ जगजीत व गुलजार साहब की जोड़ी एक बार फिर सामने आ रही है। इसी उम्मीद में मैं ग़ज़लों के पूरे सफरनामे को याद कर रहा था कि जगजीत साहब फिर से अपनी ग़ज़लों की महफिल सजायेंगे, पर अफसोस ऐसा हो न सका क्योंकि इस बार सच बोल रहे थे कमबख्त चैनल वाले! कितने बेरहम होते हैं खबरों पर काम करने वाले कि इधर जगजीत साहब गुजरे नहीं कि वे विकिपीडिया में हैंसे अपडेट होकर थेहो गये।

विकीपीडिया में हैं से थे, सोचिए कैसी अन्तर्जालीय कोशिश है, जगजीत साहब को याद करने की! दिनेश जी संगीत और गजल की बेहतर समझ रखते हैं। इन दिनों जगजीत साहब के बहाने गजलों के उस दौर को याद करते हुए वे लगातार लिख रहे थे, जब गजलों ने फिल्मी गीतों की तरह अपना स्थान लोगों के बीच बनाना शुरू किया था। दिनेश जी ने ध्यान दिलाया कि उम्र जलवों में बसर हो, ये जरूरी तो नहीं गजल में जगजीत साहब ने अजान की आवाज सुनाई है। इस गजल को यहाँ सुना भी जा सकता है। दिनेश जी के लिखे को पढ़िएगा, जो उन्होंने गजल गायकी की यात्रा पर लिखा है और लिख रहे हैं।

सबसे पहले पता चला भूषण जी के चिट्ठे पर। तुरन्त विकीपीडिया पर गया और शाम तीन-चार बजे पता चला कि सचमुच वे नहीं रहे। अखबारों ने भी पन्ने खर्च किए हैं। किसी बड़े गायक का जाना पहली बार हुआ मेरे होश में। (होश हमारे यहाँ उस अवस्था को कहते हैं जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाय और उसे ठीक से समझने और याद रखने की क्षमता पैदा हो चुकी हो) बहुत सारी जगहों पर अलग-अलग किस्म से उन्हें श्रद्धांजलि दी गई है। मखमली आवाज की बात बहुत जगह की जाती रही है, की गयी थी। मुझे नहीं पता कि मखमली आवाज कैसी होती है? आवाज में ऊँची आवाज, भारी आवाज आदि तो समझ में आता है, लेकिन यह लरजती या खनखनाती आवाज और मखमली आवाज मेरी समझ में नहीं आती। 

एक अनीश्वरवादी के लिए जगजीत का जाना

मैं किसी आत्मा-वात्मा में यकीन नहीं करता। इसलिए जहाँ भी लिखा देखा कि भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे, मुझे गुस्सा आया। आखिर कैसा भगवान है जो चित्रा सिंह के परिवार में पहले जगजीत-चित्रा के पुत्र को खा जाता है, फिर बेटी को आत्महत्या (ईश्वर के लिए परात्महत्या, परमात्महत्या नहीं) करवा देता है और अब जगजीत को भी मार डालता है! फिर भी सारे लोग ठगी का शिकार बने हुए जगजीत साहब की आत्मा को शान्त करने में लगे हुए हैं। 


जगजीत का जाना एक दुनिया का जाना है। आप कह सकते हैं कि एक अनीश्वरवादी का सम्बन्ध इन बातों से कैसे हो सकता है। हमारी समझ में हमारे पास कई दुनियाएँ हैं। उनमें से एक के खत्म हो जाने से जीवन न सही, एक दुनिया तो खत्म-सी होती ही है। हालांकि मैंने जगजीत को कभी आँखों से देखा नहीं। हाँ, उनके कुछ वीडियों देखे हैं। उनकी तस्वीरें देखी हैं और शायद बड़ी-बड़ी आँखें भी जिनमें सुख तो नहीं ही दिखता था। उनकी आँखें बिलकुल अलग हैं…थीं। यह सच है कि जिसने उन्हें देखा ही नहीं, उसे सिर्फ़ आवाज से मतलब हो सकता है। लेकिन जबतक हमें मालूम होता है कि उसे गाने वाला जिंदा है, चलता-फिरता है, बोलता है, गाता भी है, तब कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जैसे ही यह खबर आती है कि अब वह नहीं रहा, सारी बातें महत्वपूर्ण हो उठती हैं। उन्होंने भक्ति गीत गाए। हर किस्म के गाने-गजल-गीत गाए होंगे। यह कोई आसान बात नहीं कि जिस देश में हम सिर्फ़ उन्हीं गायकों को याद करते हैं या सुनते हैं जो फिल्मों में गाते रहे हैं। भारत में तो बड़े गायक का अर्थ ही है फिल्मों के गीत गानेवाला। लेकिन इन सब फिल्मी गायकों के बीच जगजीत एक अलग नाम था, है। इस देश की सीमाओं के पार भी गैर-फिल्मी गीतों-गजलों को गाकर जगजीत ने जो स्थान हासिल किया, वह एक मिसाल है। मैं कोई समीक्षक नहीं और न ही जगजीत को बहुत सुननेवाला रहा हूँ, हालांकि वे मेरे प्रिय गायकों में हैं और रहे हैं, हमेशा रहेंगे। मैं जिस जगजीत सिंह की बात कर रहा हूँ वह व्यक्ति नहीं, मात्र गायक है क्योंकि हम उन्हें इसीलिए जानते हैं और इस वक्त तो मैं इसके बाहर सोचना भी नहीं चाहता।
मैंने हमेशा सोचा-माना-कहा-लिखा है (इसका अधिकारी तो एकदम नहीं मैं) उनकी धीमी आवाज में गाने की आदत का कोई जोड़ नहीं। जितनी धीमी आवाज पर आवाज बैठ जाती है, बिगड़ जाती है, उस आवाज में जगजीत गाते थे, बेहतर गाते थे, लाजवाब गाते थे।

जगजीत का जाना…मतलब…एक पूरे संगीत का जाना

गानों का शौक नहीं था मुझे। इंटर में पढ़ने के लिए जब पटना गया, तो बगल वाले कमरे में किशोर कुमार का एक फैन रहता था। नाम था सरोज मानसी (मानसी शायद उसके गाँव आदि का नाम था)। उसके दरवाजे पर कलम या स्केच से मोटे अक्षरों में लिखा था सरोज मानसी। किशोर कुमार के गाने रेडियो पर खूब बजते थे। विविध भारती का राज था, रेडियो मिर्ची का आगमन अभी नहीं हुआ था। मैं गानों को सुनने में कोई रुचि नहीं रखता था। सरोज गानों का ऐसा शौकीन था कि जब पढ़ने के लिए बाहर कोचिंग जाता और बिजली नहीं रहती तब भी उसका रेडियो न होता और अक्सर गाने कमरे से बाहर सुनाई पड़ते थे। और जब वह कमरे में होता तब तो बजना ही था। लेकिन बहुत जल्दी वह दूसरी जगह चला गया।
कुछ दिनों बाद मेरे बगल वाले कमरे में सुजीत नाम का लड़का आया। जगजीत सिंह को सुनने का शौकीन। ध्यान रहे ये लोग ऐसे शौकीन नहीं थे कि कैसेट लाकर सुन सकें, शायद आर्थिक या पारिवारिक कारण रहे होंगे। प्राय: हर सुबह या हर शाम को कानों में आवाज आती ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो। और कोई गीत याद नहीं मुझे। सुजीत मेरे कमरे से सटे बगल वाले कमरे में ही रहता था। अब गाने हमेशा सुनाई पड़ने लगे। गानों का अभ्यस्त होने लगा मैं। अब नहीं बजना पता चलने लगा या महसूस होने लगा। फिल्मों का शौक भी नहीं था उस समय। अब गानों और फिल्मों की तरफ़ कुछ झुकाव होने लगा था। ये दौलत भी ले लो को, ऐसा कौन आदमी है जो बुरा मानता है या पसन्द नहीं करता! इस तरह धीरे-धीरे रफी, लता मंगेशकर सहित एक-से-एक लाजवाब गायक प्रिय होते गए।
फिर घर आना हुआ और सीडी प्लेयर का आगमन घर में हो चुका था। एकदिन एक सीडी आई गजलों की। मैंने नहीं लाई। कैसेट की दुकानों पर जाना अच्छा नहीं माना जाता था। कम से कम मेरे घर में। आज भी बहुत अन्तर नहीं है इन बातों में। लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं। अन्तर्जाल यानी इंटरनेट की कृपा से अधिक मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती है। हाँ, तो सीडी सुनना शुरू किया। अनूप जलोटा और जगजीत सिंह की गायी गजलें शब्दों से कम, आवाज से ही अधिक पसंद आयीं। एक गजल थी- जिंदग़ी यूँ हुई बसर तनहा। काफ़िला साथ और सफ़र तनहा। गाने वाले थे, जगजीत सिंह। बचपन से राष्ट्रीय गीतों का शौक पहले भी रहा था लेकिन गैर-राष्ट्रीय गीतो-गजलों का कोई रिश्ता नहीं था मुझसे। यह गजल इतनी पसन्द आई कि सबसे प्रिय गजलों में आज भी शुमार है। यह भी कह सकते हैं कि सबसे पहले जिस गजल को मैंने ठीक से पसन्द किया, वह जगजीत सिंह का गाया हुआ था। सम्भवत: यह गुलजार साहब की लिखी गजल है।
बाद में जब प्रोग्रामिंग पढ़ रहे थे, उस समय एक ऐसा अन्तराल भी आया था जिसमें अपने कम्प्यूटर के गानों को सुनना शुरू किया। हालांकि आज तक यह सम्भव नहीं हो सका और सम्भव है भी नहीं कि कम्प्यूटर के सारे गाने सुने जा सकें। गाने सुनने का अर्थ मेरे लिए ऊँची आवाज में दूसरों को परेशान करना कभी नहीं रहा है। न ही खूब ऊँची आवाज के लिए साउंड के अन्य साधनों में कोई रुचि है। बस गाने सुनने हैं, आवाज ठीक से आनी चाहिए, इससे अधिक जरूरत नहीं रही कभी।

 उस दौरान जगजीत की भी बारी आई। रात भर कानों में हेडफोन, कानों में जगजीत सिंह की आवाज, हाथ कीबोर्ड पर प्रोग्राम लिखने में और इसी तरह सुबह करके 4-5 -6 बजे जाकर सोने का काम भी किया। फिर जगजीत सिंह की गजलें जो शो में गायी गई थीं, को वीडियो के साथ भी सुनने का मौका मिला। तब पता चला वे बहुत तेज भी गाते हैं, पंजाबी टोन में। कई बार ऐसा लगा कि पूरा ध्यान लगाकर उनके बोले शब्दों को सुने बिना शब्द कान तक पहुँचते ही नहीं, इतनी धीमी आवाज में भी वे गाते थे। हाँ, उनका किया वह खाँसी वाला विज्ञापन पसन्द नहीं आया था। उनकी आँखें हमेशा ध्यान खींचती थीं। एक बार शायद यह भी सुना कि वे गजलें लिखते भी थे और बाद में गाने की योजना भी थी। शायद गाया भी हो, मुझे जानकारी नहीं। जगजीत सिंह ने जब दोहे गाये, तब भी एक नये तरीके से। दोहे हमने महेन्द्र कपूर से लेकर कई गायकों की आवाज में सुने हैं। जगजीत ने भी गाए, तब धुन अलग थी लेकिन वह भी अच्छी रही। ठीक इसी तरह कल चौदहवीं की रात थी को गुलाम अली और जगजीत सिंह, दोनों की आवाज में सुनिए। दोनों का अलग और अपना अंदाज है। दोनों को सुनना अच्छा लगता है। लेकिन मेरी समझ में गुलाम अली की तुलना में अधिक मधुर आवाज में इस गजल को जगजीत ने ही गाया है। उसमें एक जगह जोगी शब्द आता है, वहाँ जगजीत सिंह जोगी पर बहुत देर तक ठहरते हैं और आभास होने लगता है कि यहाँ जोगी है। इस तरह से अनूप जलोटा भी खूब प्रभावित करते हैं, जहाँ वे मैं नहीं माखन खायो में सुबह और शाम का आभास करा देते हैं। आजतक मनुष्य संगीत, लय और धुनों को ठीक से लिखने में असमर्थ ही रहा। इसलिए हम शब्दों में साफ कह ही नहीं सकते। इसके लिए तो ध्वनि या आवाज ही विकल्प है।
जगजीत सिंह की आवाज भी लता मंगेशकर की आवाज की तरह बाद में बदल गई थी, जैसा कि मुझे लगता है। बाद में और अच्छी आवाज में गाने गाते थे वे, लता के साथ भी ऐसा ही है। यह जरूर बेहतर होता कि जगजीत की जगह कुछ घटिया गायक गुजर जाते, लेकिन यह किसी की मुट्ठी में नहीं, ईश्वर की भी मुट्ठी में नहीं। वरना वह दौलत भी ले लेता, शोहरत भी ले लेता और लौटा देता …
जगजीत को गजल सम्राट कहा गया। पता नहीं सम्राट के बिना साम्राज्य कैसे चलेगा? दारू पीकर गाने वाले और उल्टी खोपड़ी करके ढिसुम-ढिसुम किस्म के गाने जो पार्टियों में बजते हैं, ये दसदिनी गाने तो निश्चित ही भुला दिए जाएंगे लेकिन जगजीत के गाए को भुलाने की हैसियत किसकी है?…
मोहम्मद अजीज का गाया मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया गाना याद आ रहा है। जगजीत सिंह के गाए कुछ गानों-गजलों को यहाँ पढ़ भी सकते हैं। स्मृति डॉट कॉम गानों को पढ़ने की शानदार साइट है, सम्भवत: हिंदी गानों के लिए इकलौती।
 जगजीत को लेकर हमने भी अपनी बहुत सारी बातें कहीं। न चिट्ठी न कोई संदेश को ही अधिकांश अखबारों आदि ने मुख्य शीर्षक बनाया उनके जाने पर।

होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो को सुनकर बच्चन की तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये याद आती है।
जिंदगी तो कभी नहीं आई, मौत आई जरा-जरा कर के, अभी ये बात चित्रा सिंह के बारे में सही साबित हो रही है।
जगजीत ने इतना ही कहा कि इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ… 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और जानकारी से परिपूर्ण आलेख है. आपने काफी अच्छे शब्दों का प्रयोग करके स्व. जगजीत सिंह को आलेख में जीवित कर दिया है.

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  2. सदमा है उनका जाना .जगजीतसिंहजी जी सभी सुननेवालों को आखरी साँस तक के लिए अपना कर्ज़दार छोड़ गए हैं .ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे .

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  3. आने वाली पीढ़ियों के लिए उनकी आवाज़ ही रह जाएगी। हमारा सौभाग्य यह रहा कि हम उन्हें सुनने के साथ-साथ देखते भी रहे।

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  4. उनकी आवाज़ जिन्दा रहेगी ....
    शुभकामनायें आपको !

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  5. त्योहारों की नई श्रृंखला |
    मस्ती हो खुब दीप जला |
    धनतेरस-आरोग्य- द्वितीया
    दीप जलाने चला चला ||

    कृपया अपना / अपने मित्रों का विस्तृत परिचय बुधवार की संध्या तक प्रेषित करने का कष्ट करें | ब्लॉग लिंक भी कर दें |
    परिचय लिखने में संकोच कैसा ?

    अन्यथा मेरी ओर से लिख लें ||
    बहुत बहुत आभार ||

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  6. अच्छे लोग जल्दी क्यों चले जाते हैं. भावुक कर देने वाली जानकारी.

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