मंगलवार, 27 सितंबर 2011

भगतसिंह नास्तिक और कम्युनिस्ट थे, थे और थे ( भगतसिंह पर विशेष )


भगतसिंह का लिखा एक लेख है- युवक, बलवन्तसिंह के नाम से। यह मतवाला के 16 मई, 1925 के अंक में छपा था। आलोचना के 32वें वर्ष के अक्टूबर-दिसम्बर, 1983 अंक में, इस बात की पुष्टि आचार्य शिवपूजन सहाय ने की थी। युवक शीर्षक लेख में भगतसिंह अमेरिका के युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी के अमेरिका के युवकों में की गई ज्वलन्त घोषणा “We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government.” अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है, को उद्धृत करते हैं। अफसोस है कि आज के अमेरिका की स्थिति एकदम 180 डिग्री पर उल्टी है। उस वक्त अमेरिका, इटली, रूस, आयरलैंड, फ्रांस आदि देशों के अनेक लेखकों-चिन्तकों से भगतसिंह प्रेरणाएँ लिया करते थे, क्योंकि इन सब देशों में क्रांतिकारी आन्दोलन हुआ करते थे या ईमानदार नेता भी अधिक थे।

      भगतसिंह ने 1928 में लिखे महारथी के संपादक में कहा है कि आदर्श या प्रेरणा लिए व्यक्तित्व-कृतित्व आधारित लेखों को सचित्र ही छापना चाहिए। बिना चित्रों के ऐसे लेखों की महानता कम हो जाती है।

      भगतसिंह ने मार्च, 1928 में दो चित्रों का परिचय लिखते समय पहले चित्र पर कहा है- भारत में भी चार दिन के लिए स्काउट दल, महावीर दल और स्वयं सेवक दल बने थे, अखाड़े स्थापित हुए थे परन्तु वह सब दूध का उफान रहा। नेताओं को चाहिए कि कौंसिलों में स्पीचें झाड़ने की अपेक्षा इन भावी नेताओं को कुछ बनाएँ। यह चित्र इटली के नवयुवकों का था, जिसमें प्रत्येक मुसोलिनी बनने का प्रयत्न कर रहा है, ऐसा संकेत कर रहा था।

      दूसरे चित्र का ध्यान खास तौर पर दिलाने का उद्देश्य यह है कि यह पता चल सके कि उस समय यानी आज से 83 साल पहले जिस तरह दिखावे के लिए आयोजन होते थे, आज भी होते हैं और वे नये नहीं हैं।

दूसरा चित्र हुनर नगर का है जो एक विशेष [आयोजन के] रूप में बम्बई में हुआ था। हमें विस्मय होता है, जब हम इस विशाल हुनर नगर की और गरीब, गँवार कारीगरों की दशा में तुलना करते हैं। इन हुनर-प्रदर्शनियों पर जितना रुपया उजाड़ा जाता है उसका शतांश भी तो कारीगरी की वास्तविक उन्नति में नहीं लगाया जाता।

11 फरवरी, 1930 को सेण्ट्रल जेल, लाहौर से भगतसिंह व अन्य साथियों द्वारा स्पेशल मजिस्ट्रेट, लाहौर को भेजे गये पत्र का एक हिस्सा:

प्रत्येक शिक्षित विचाराधीन कैदी को कम-से-कम एक अखबार लेने का अधिकार है। अदालत में एग्जीक्यूटिव कुछ सिद्धान्तों पर हमें हर रोज एक अखबार देने के लिए सहमत हुई। लेकिन अधूरी चीजें न होने भी बुरी होती हैं। अंग्रेजी न जानने वाले बन्दियों के लिए स्थानीय अखबार न देने के आदेश के विरुद्ध रोष प्रकट करते हुए हम दैनिक ट्रिब्यून लौटाते रहे हैं। (हिन्दुस्तान टाइम्स में 13 फरवरी, 1930 को यह पत्र प्रकाशित हुआ था।) इस अंश के यहाँ उल्लेख करने का उद्देश्य आप स्वयं सोचें।

सुखदेव को भूख हड़ताल के दौरान एक पत्र में भगतसिंह कहते हैं:

क्या आपका आशय यह है कि यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते, तो कोई क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता? यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं। यद्यपि यह ठीक है कि हम भी वातावरण को बदलने में बड़ी सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं, तथापि हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं।

मैं तो यह भी कहूंगा कि साम्यवाद का जन्मदाता मार्क्स, वास्तव में इस विचार को जन्म देनेवाला नहीं था। असल में यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे। उनमें मार्क्स भी एक था। हाँ, अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्सन्देह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुआ है।

इसी पत्र में आगे वे कहते हैं:

एक और विशेष बात, जिस पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, यह है कि हम लोग ईश्वर, पुनर्जन्म, नरक-स्वर्ग, दण्ड-पारितोषिक, अर्थात् भगवान द्वारा किए जाने वाले जीवन के हिसाब आदि में कोई विश्वास नहीं रखते।

उनकी नास्तिकता और साम्यवाद-समाजवाद के पक्षधर होने की बात साफ-साफ मैं नास्तिक क्यों हूँ?, ड्रीमलैण्ड की भूमिका सहित उनके सत्तर से अधिक मूल दस्तावेजों में कम-से-कम 20 दस्तावेजों में दिखाई पड़ती है। और ध्यान में यह भी रखिए कि उनकी जेल डायरी के नोटों से कम से कम 40 जगह ऐसी बातें आई हैं, जिनका सम्बन्ध साम्यवाद-समाजवाद-नास्तिकता से है। और किसी भी अक्लमन्द आदमी के लिए दस्तावेजों और उनकी जेल डायरी से साठ बार से अधिक इन बातों का जिक्र भी साजिश लगता है, तब उनसे हमें कुछ नहीं कहना। यहाँ हम स्पष्ट कहते हैं कि भगतसिंह नास्तिक और कम्युनिस्ट थे, थे और थे। सबूत के लिए हम एक बात और कहना चाहेंगे।

भगतसिंह सुभाषचंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरु के बारे में लिखते समय हमेशा नेहरु की तरफ़ होते हैं। नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र (लाहौर के पीपुल्ज़ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के अभ्युदय में 8 मई, 1931 के अंक में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह दस्तावेज अंग्रेज सरकार की एक गुप्त पुस्तक बंगाल में संयुक्त मोर्चा आंदोलन की प्रगति पर नोट जिसका लेखक सी आई डी अधिकारी सी ई एस फेयरवेदर था, ने 1936 में लिखी थी, से प्राप्त हुआ। उसके अनुसार यह लेख भगतसिंह ने लिखा था और 3 अक्तूबर, 1931 को श्रीमती विमला प्रभादेवी के घर से तलाशी में हासिल हुआ था। सम्भवत: 2 फरवरी, 1931 को यह दस्तावेज लिखा गया। ) में तो स्पष्ट सुनने को मिलता है कि पण्डित जवाहरलाल को छोड़ दें तो क्या आप किसी भी नेता का नाम ले सकते हैं, जिसने मजदूरों या किसानों को संगठित करने की कोशिश की हो। नहीं, वे खतरा मोल नहीं लेंगे।

आगे इसी लेख में इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि पूरे समाज को समाजवादी दिशा की ओर ले जाने के लिए जुट जाना होगा। और यदि क्रांति से आपका यह अर्थ नहीं है तो, महाशय, मेहरबानी करें, और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाने बन्द कर दें। यहाँ इन पँक्तियों को उद्धृत करने का साफ मतलब है कि अन्ना और चुनावी रैलियों में इस नारे को बदनाम किया जाना बन्द किया जाय, क्योंकि इस नारे को फैलाने वाले महान और प्रेरक लोग ही जब इस नारे का अर्थ सीधे समाजवादी क्रांति से लगाते हैं, तब चुनावी या राजनैतिक मेलों में यह नारा बिलकुल नहीं लगाया जाना चाहिए। झंडे के रंगों को चेहरे पर पोत कर ज्यादा क्रांतिकारी बनने की बिलकुल जरूरत नहीं है।

शहीद यतीन्द्रनाथ दास के 63 दिन दिन की भूख हड़ताल के बाद, भारतीय जनता द्वारा शहीद के प्रति किए गए सम्मान और इन्कलाब जिन्दाबाद नारे की आलोचना माडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय ने की थी। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इसके उत्तर में भेजे अपने पत्र में कहा था कि इस नारे की रचना हमने नहीं की है। यही नारा रूस के क्रांतिकारी आन्दोलन में प्रयोग किया गया है। इससे मालूम पड़ता है कि भगतसिंह या उनके साथियों ने इस नारे के अनुवाद के रूप में यह दो शब्द इन्कलाब जिन्दाबाद हमेशा के लिए हमें दिए।

इसी लेख में साफ शब्दों में कहा गया है कि नवजवानों को जो संगठित पार्टी बनानी है, उसका नाम कम्युनिस्ट पार्टी हो। इससे अधिक खुलेआम वाक्य क्या हो, कि भगतसिंह एवं उनके साथी कम्युनिस्ट थे। हमारी कोशिश होगी कि हम भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज को अन्तर्जाल पर धीरे-धीरे उपलब्ध कराएँ। ताकि सारी बातें लोगों के सामने आ सकें।

बार-बार भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज पढ़ते समय हम सर्वहारा या श्रमिक वर्ग की क्रांति का नारा सुनते हैं। क्या अब भी यह जानना बाकी रहा कि भगतसिंह किस विचारधारा के मानने वाले थे। जिन महाशय ने गीता के मांगने मात्र से आस्तिकता का गहरा रिश्ता जोड़ लिया और जिन लोगों ने उनके पक्ष में उनके शोध को महाबोध मान लिया है, उनको सारी बातें ध्यान में रखनी चाहिए।

जरा इस दस्तावेज के इस वाक्य पर ध्यान दीजिए- हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रांति के अतिरिक्त न किसी और क्रांति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।

भगतसिंह ने राज्य के विज्ञान, राजनीति और विधिशास्त्र का बहुत ही गम्भीर अध्ययन किया था, यह बात उनके डायरी में लिए गए बहुत से उद्धरणों से पता चलती है। सजा के ऊपर भी उन्होंने कई बातें नोट की हैं। ऐसा लगता है कि भगतसिंह फाँसी की सजा के पक्ष में नहीं थे। हालांकि उन्होंने और उनके साथियों ने मांग की थी कि इन्हें गोलियों से उड़ा दिया जाय। यह एक अद्भुत उदाहरण है इन वीरों का। हालांकि इसका कोई ठोस प्रमाण हम नहीं दे पाएंगे कि वे फाँसी की सजा के पक्ष में नहीं थे। लेकिन एक जगह उनके नोट से ऐसा संकेत मिला है।

आइए इस महान क्रांतिकारी चिन्तक की डायरी के कुछ अंश हम देखते हैं। ये उद्धरण उन्होंने अपने द्वारा पढ़ी गयी किताबों से लिए हैं। इन उद्धरणों के संदर्भ नहीं हैं।  जैसे  ये डायरी में बिना संदर्भ के हैं, वैसे ही यहाँ भी दिए जा रहे हैं। भगतसिंह के दस्तावेज पढ़ने से स्पष्ट होता है कि वे न तो एक अपरिपक्व क्रांतिकारी विचारक हैं और न ही एक भावुक क्रांतिकारी। जिन लोगों ने यह बात फैलाई है कि वे अगर अधिक दिन जीते तब, उनके विचार बदल जाते, जैसे कि वे आस्तिक हो जाते, उन्होंने इस अत्यन्त गम्भीर चिन्तक और महान क्रांतिकारी के व्यक्तित्व और चिन्तन को न तो समझा है, न समझने की कोशिश की है। भगतसिंह के लेखों का एक-एक शब्द झूठ और पाखण्ड के गाल पर तमाचा है। 

भगतसिंह की जेल डायरी से कुछ नोट:

इन दोनों पृष्ठों पर भगतसिंह ने न्याय से संबंधित उद्धरण लिए थे। दीवानी न्याय, फौजदारी न्याय व इसके उद्देश्य, सजा, प्राणदण्ड का औचित्य आदि पर उन्होंने कुछ वाक्य लिखे हैं। यह उनके विधिशास्त्र के अध्ययन के समय के उद्धरणों और गम्भीर अध्ययन-चिन्तन का एक सबूत भी है। उनका कई विषयों पर ऐसा अध्ययन हैरत में डालता है कि एक तेइस साल का आदमी ऐसा भी हो सकता है। कई मामलों में वे विश्व स्तर पर एक मिसाल हैं।

भीख

धरती पर उस आदमी से अधिक घृणास्पद और अरुचिकर और कोई नहीं है जो भीख देता है। और, वैसे ही उस आदमी से अधिक दयनीय और कोई नहीं है जो उसे स्वीकारता है। 

( मैक्सिम गोर्की )

अधिकार

      अधिकार मांगो नहीं। बढ़कर ले लो। और उन्हें किसी को भी तुम्हें देने मत दो। यदि मुफ्त में तुम्हें कोई अधिकार दिया जाता है तो समझो कि उसमें कोई न कोई राज जरूर है। ज्यादा संभावना यही है कि किसी गलत बात को उलट दिया गया है।

क्रांतिकारी की वसीयत से

मैं चाहूंगा कि किसी भी अवसर पर, मेरी कब्र के निकट या दूर, किसी भी किस्म के राजनीतिक या धार्मिक प्रदर्शन न किए जाएँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि मर चुके के लिए खर्च किए जाने वाले समय का बेहतर इस्तेमाल उन लोगों की जीवन-दशाओं को सुधारने में किया जा सकता है, जिनमें से बहुतेरों को इसकी भारी आवश्यकता है।

( फ्रांसिस्को फेरेर की वसीयत )

नया सिद्धांत

समाज हत्या, व्यभिचार या ठगी को नजरअंदाज कर सकता है; पर वह एक नए सिद्धांत के प्रचार को कभी माफ नहीं करता। 

( फ्रेडरिक हैरिसन )

दान

…दान गरीबी के विद्रोह को नष्ट कर देता है। …
      दान दोहरा अभिशाप है - यह दाता को संगदिल और प्राप्तकर्ता को नरम दिल बनाता है। यह गरीबों का शोषण से कहीं अधिक नुकसान करता है, क्योंकि यह उन्हें शोषित होने का इच्छुक बनाता है। यह दास भावना को जन्म देता है, जो नैतिक आत्महत्या ही है।… 

( बक व्हाइट पादरी, जन्म 1870, यू एस ए )

खुदाई अत्याचारी

एक अत्याचारी शासक के लिए जरूरी है कि वह जाहिरा तौर पर धर्म में असाधारण आस्था दिखाये। जनता एक ऐसे शासक के दुर्व्यवहार के प्रति कम सचेत होती है, जिसे वह ईश्वर से डरने वाला और पवित्र मानती है। दूसरे, वह आसानी से उसके विरोध में भी नहीं जानती, क्योंकि उसे विश्वास रहता है कि देवता भी शासक के साथ है।

सैनिक और चिंतन

यदि मेरे सैनिक सोचना शुरू कर दें, तब तो उनमें से कोई भी सेना में नहीं रहेगा। 

(फ्रेडरिक महान)

आत्मा की अमरता

यदि तुम्हें कभी ऐसा आदमी मिल जाए जो अमरता में विश्वास रखता हो, तो बस समझ लो कि अब तुम्हारी कोई भी कामना शेष नहीं रह जाएगी; तुम उसकी सारी की सारी चीजें ले सकते हो अगर तुम चाहो तो जीते-जी उसकी खाल उतार सकते हो और वह इसे एकदम खुशी-खुशी उतार लेने देगा। 

( अप्टन सिंक्लेयर )

बाल श्रम

गौरैए का बच्चा गौरैए को दाना नहीं चुगाता
      चूजा मुर्गी को चुग्गा नहीं कराता
बिल्ली का बच्चा बिल्ली के लिए चूहे नहीं मारता
      यह महानता तो सिर्फ मनुष्य को नसीब है।
हम सबसे बुद्धिमान, सबसे बलवान नस्ल हैं
      हम काबिले तारीफ हैं
एकमात्र जिन्दा प्राणी
      जो जीता है अपने बच्चों की मेहनत पर।

( शार्लोट पर्किन्स गिलमैन )

जनतंत्र

जनतंत्र हरेक वर्ग या पार्टी से संबंधित हरेक व्यक्ति के लिए समान अधिकार और सभी राजनीतिक अधिकारों में भागीदारी सुनिश्चित नहीं करता (काउत्स्की)। यह तो मौजूदा आर्थिक असमानताओं के लिए खुले राजनीतिक और कानूनी खेल की अनुमति देता है…। इस प्रकार पूंजीवाद के अन्तर्गत जनतंत्र सामान्य अमूर्त जनतंत्र नहीं, बल्कि विशिष्ट बुर्जुआ जनतंत्र…या जैसा कि लेनिन ने इसका नाम दिया है बुर्जुआ वर्ग के लिए जनतंत्र होता है।

प्रचार और कार्रवाई

और जब सर्वहारा वर्ग की पार्टी तैयारी से, यानी प्रचार और संगठन एवं आंदोलन से, आगे बढ़कर सत्ता के लिए वास्तविक संघर्ष में उतरती है और बुर्जुआ वर्ग के विरूद्ध एक वास्तविक जन-विद्रोह को अंजाम देने लगती है, तब एक अत्यन्त अचानक बदलाव घटित होता है। ऐसे में पार्टी के भीतर ऐसे तत्व जो दृढ़संकल्प नहीं रखते, या संदेहशील, या समझौतावादी, या कायर होते हैं वे जन-विद्रोह का विरोध करने लगते हैं, अपने विरोध को उचित ठहराने के लिए सैद्धांतिक दलीलें खोजने लगते हैं, और उन्हें ये दलीलें, अपने कल के विरोधियों के बीच, एकदम पके-पकाए तौर पर, मिल भी जाती हैं।

लेनिन ने बार-बार कहा, अभी या कभी नहीं

( त्रात्सकी )

अधीर आदर्शवादी

अधीर आदर्शवादी के लिए और बिना कुछ अधीरता के शायद ही आदमी प्रभावी सिद्ध हो सके यह लगभग तय बात है कि दुनिया को खुशहाल बनाने की कोशिश में उसे अपने विरोधियों की घृणा का पात्र बनना होगा और निराश भी होना पड़ सकता है।

( बर्ट्रेण्ड्र रसेल )

सिविल सेवा पर

… क्या तुम चाहते हो कि भारतीयों की एक बड़ी संख्या सिविल सर्विस में भर्ती हो जाए? तो आओ देखें कि क्या 50, 100, 200 या 300 सिविलियन भर्ती हो जाने से सरकार हमारी हो जाएगी…। भले ही पूरी की पूरी सिविल सर्विस भारतीय हो जाए, लेकिन सिविल सर्वेण्ट्स को तो सिर्फ हुक्म की ही तामील करनी होगी वे कोई निर्देश नहीं दे सकते, कोई नीति नहीं निर्धारित कर सकते। एक मुर्गा विहान नहीं लाता। ब्रिटिश सरकार की सेवा में एक सिविलियन, 100 सिविलियन या 1000 सिविलियन भर्ती होकर सरकार को भारतीय नहीं बना सकते। जो परम्पराएँ हैं, कानून हैं, नीतियाँ हैं, और ताबेदारी तो हर सिविलियन को करनी होगी, चाहे वह काला हो या भूरा हो, गोरा हो, और जब तक ये परम्पराएँ नहीं बदलीं जाती, जब तक इनके सिद्धांतों में रद्दोबदल नहीं किया जाता, और जब तक इनकी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया जाता, तब तक यूरोपियनों के स्थान पर भारतीयों की भर्ती कर देने मात्र से ही इस देश में अपनी सरकार नहीं कायम हो सकती…
अगर आज सरकार आकर मुझसे कहे कि स्वराज लो, तो मैं इस उपहार के लिए धन्यवाद तो दे दूंगा, पर उस चीज को स्वीकार नहीं करूंगा जिसे मैंने स्वयं अपने हाथों से अर्जित नहीं किया है…।
( लाल-बाल-पाल के विपिन चन्द्र पाल)

एक और वाक्य
    

दांतो का कहना था, कार्रवाई, कार्रवाई। सत्ता पहले, बहस बाद में।

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ध्यान दें: मुझे पता है कि लेनिन, मार्क्स जैसे नाम कितनों के लिए कितने खतरनाक हैं! बटुकेश्वर दत्त के बारे में जब आप यह लेख पढ़ेंगे तब आपको इस देश पर गर्व होगा?

12 टिप्‍पणियां:

  1. दुर्लभ साम्ग्री उपलब्ध कराई है आपने।

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  2. क्या आप भगत सिंह पर राममनोहर लोहिया के विचार (यदि हों ) तो ढूंढ सकते हैं -अनुग्रह होगा !

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  3. क्या आप विचार करने तैयार हैं ?
    मेरी जानकारी में कम्युनिस्ट लोग , विचारधारा और संगठन ढुलमुल नहीं होते.आप ने लिखा है की भगत सिंह ने मुसोलिनी की प्रशंसा की है जब कि मुसोलिनी ने कम्युनिस्ट आंदोलन का दमन किया था. दूसरी बात यह है कि यतीन दास जिनको आप ने याद किया है वे सुभाष बोस के कार्यकर्त्ता थे . बोस और भगत सिंह का सीधा लिंक है. २ फरवरी १९३१ तक भगत सिंह यह नहीं जानते थे ,ऐसा मानना उनकी अध्यनशीलता का अपमान है.दास कि अन्त्येष्टी में बोस की सीधी भागीदारी है...और भी कुछ है कहने को मेरे पास .यह सब नेहरूवादी इतिहासकारों का प्रपंच और प्रक्षिप्त लेखन है .जिन्नाह कांग्रेस छोड़ चुके थे लेकिन भगत सिंह के लेखन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बताया जाता है .क्या भगत सिंह अपने समय के घटना क्रम से इतने अनजान थे?
    आप ने जिन्हें उद्धृत किया है वे भी भगत सिंह को १९३१ में कम्युनिस्ट मानते हैं.तब तक वे जेल जा चुके थे .वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर नहीं बने.उनकी आत्मा पर वामपंथी रंग चढाने की कोशिश की जा रही है.
    आशा है कि इसका असर हमारे व्यक्तिगत संबंधों पर नहीं पड़ेगा

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  4. आदरणीय डॉ ब्रजकिशोर जी,

    विचार करने को बिलकुल तैयार हैं। मुसोलिनी के बारे में तो मैंने कुछ कहा ही नहीं। भगतसिंह और बोस एक दूसरे को जानते तो थे ही। इन बातों के स्रोत में यह स्पष्ट लिखा है कि 19 अक्तूबर, 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन में एक पत्र(विद्यार्थियों के नाम, जो भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त का लिखा है) पढ़कर सुनाया गया था। उस अधिवेशन के सभापति नेताजी बोस ही थे।

    यतीन की अन्त्येष्टि में भागीदारी का पता भी अभी चला और वह है भी। आप सही हैं। जिनकी बात आपने की है, वे भी स्वीकार करते हैं कि भगतसिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं रहे हैं कभी। भूमिका ही इन सब बातों से हुई है। जेल तो 1929 में ही वे स्थाई रूप से जा चुके हैं। हम इस दुविधा में हैं कि आपकी सब बातें उनसे मिलती हैं, जिनका उद्धरण हम कर रहे हैं, फिर माजरा क्या है…

    व्यक्तिगत सम्बन्ध अपनी जगह हैं, उनसे इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। आपके विचारों का स्वागत है। धन्यवाद।

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  5. हाँ, उस विद्यार्थियों के नाम पत्र को पढ़कर सुनानेवाले बोस ही थे, ऐसा जिक्र है वहाँ।

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  6. माजरा यह है कि भगत सिंह जी पर लिखते हुए 'बोस नेहरु मैच' शुरू कर दिया जाता है और भगत जी के हवाले से नेहरु को महान बताया जाता है जब कि बोस का खेमा भगत जी के साथ शहीद हो रहा था .

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  7. हाँ। बोस नेहरु मैच…मैं स्वयं नेहरु को अधिक पसन्द नहीं करता, बोस की तुलना में लेकिन भगतसिंह के पूरे दस्तावेज में मात्र एक ही जगह तो ऐसा लगा है और कहीं नहीं। बोस भगतसिंह के लिए ही काम कर रहे होंगे, यह तो ऐसे ही समझा जा सकता है।

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  8. इस सारगर्भित और श्रमसाध्य लेख के लिए बधाई. जहाँ तक नेहरू-सुभाष प्रसंग की बात है, हम अस्सी साल बाद उन बातों पर नीत-क्षीर विवेक कर सकते हैं, लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों को व्यावहारिक कार्रवाइयों के दौरान जिनसे जीतनी और जिन बातों पर एकता हो सकती, उनके साथ मिल कर काम करना था. हमारे लिए यह भी एक कीमती सबक है.

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