कुछ साल पहले पढ़ते समय कुछ नोट की गई कुछ चीजें आज साझा कर रहा हूँ। पहले लेखक का नाम है, फिर नोट किए गए अंश हैं।
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आलोक पाण्डेय
क्या यही है जिन्दगी
कोई बढ़ता हुआ गाँव
या पिछड़ा हुआ शहर
हरिवंश राय बच्चन
प्रयोग और परम्परा का संघर्ष हर युग में होता है। नवयुवकों को अपने समय का संघर्ष सबसे बड़ा मालूम होता है।
मेरा ऐसा खयाल है कि छायावादी अपनी व्यक्तिगत वेदना को ही परमात्मा के विरह की पीर बनाकर कहते थे जैसे रीतिकाल के कवि अपनी वासना को राधा-कृष्ण पर आरोपित करते थे। समाज और युग ने व्यक्ति को अपना सुख-दुख अपनी आस-प्यास-वासना कहने की हिम्मत न दी थी। इसी से मैं छायावाद की आध्यात्मिक वेदना को नकली मानता हूँ।
विजय शर्मा
अत्याचार, अन्याय कहीं भी किसी पर भी हो रहा हो दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति उसका जिम्मेदार होता है।
लुत्फुर रहमान
आजादी उसकी होती है जो आजादी का मतलब जानता हो।
आनंद संगीत
कानून सबके लिए बराबर नहीं होता।
केदारनाथ सिंह
हमारे समय में सही का पता
सिर्फ गलत से चलता है।
जयप्रकाश कर्दम
ईश्वर तेरे सत्य और शक्ति को मैं अब पहचान गया हूँ
तेरे दलालों की कुटिलताओं
और कमीनेपन को भी
पहचान गया हूँ
शुक्र है तू कहीं नहीं है
केवल धर्म के धंधे का ट्रेड नेम है
अगर सचमुच तू कहीं होता
तो सदियों की
अपनी यातना का हिसाब
मैं तुझसे जरूर चुकाता
डॉ एन सिंह
मेरे हाथ की कुदाल
धरती पर कोई नींव खोदने से पहले
कब्र खोदेगी
उस व्यवस्था की
जिसके संविधान में लिखा है
तेरा अधिकार सिर्फ कर्म में है
श्रम में है
फल पर तेरा अधिकार नहीं
डॉ अम्बेदकर
यदि मेरे अनुयायी मेरे संघर्षों को आगे न बढ़ा पाए तो तो वे उन्हें वहीं छोड़ दें, पीछे न जाने दें।
(ध्यान नहीं किसका कहा है)
पेड़ का कटना प्रकृति से लकड़ी की किसी मात्रा का कम हो जाना भर नहीं है, बल्कि उससे कई गुना ज्यादा स्मृतियों का क्रमश: घटते जाना है।
विजय
जानवर अच्छा है इसीलिए उसे किसी देवल की पूजा नहीं करनी पड़ती।
कमलेश्वर
दो ही बातें हैं…न करके पछताना और करके पछताना, तो हम तो करके पछताना बेहतर मानते हैं।
समय सबसे बड़ा जज है।
जो भी लिखता-पढ़ता है, सोचता है और दुनिया को बेहतर बनाना चाहता है, वह प्रेमचंद की परम्परा से अलग हो ही नहीं सकता।
मधु कांकरिया
दुनिया इसीलिए आज उदास है कि हर व्यक्ति गलत जगह पर खड़ा है।
सुल्तान जमील नसीम
दौलत बार-बार दरवाजे पर दस्तक नहीं देती।
सलाम बिन रज़ाक
दूध पीने के लिए गाय पालना जरूरी तो नहीं।
निशा व्यास
तुम हमारे हाथ काट-काट कर फेंकते रहे
और वे भरी-पूरी फसल के रूप में
उग आये हैं
अब कई जोड़ी हाथ
तैयार हैं
जकड़ने के लिए
तुम्हारी गरदनें।
कुछ बातें, शायद संदर्भ से कटी होने के कारण हास्यास्पद सी लग रही हैं, कुछ का (महज) अंदाजे-बयां मजेदार है, कुछ दमदार भी हैं.
जवाब देंहटाएंराहुल सिंह जी की बात में दम है. पूरे संदर्भ न होने से कई बातों का अर्थ समाप्त हो जाता है. फिर भी आपने उन्हें संजो कर रखा है तो उसका कबी लाभ ही होगा.
जवाब देंहटाएंखुबसूरत पंक्तिया ||
जवाब देंहटाएंसालिम अली ने अपनी आत्मकथा में महमूद उज़ ज़फ़र खान को उद्धृत किया है- ''जीवन न केवल विषय-वासनामय है और न केवल वैराग्यमय, परंतु बहुवर्णी और क्षणभंगुर। इसका आनंद लेने के लिए योग्य शरीर चाहिए, समझने के लिए सामान्य बोध। धर्म तथा दर्शन, अतएव, न तो आवश्यक हैं और न व्यावहारिक ः तथापि विरोधाभास ही है कि, वे जमे हुए हैं।
जवाब देंहटाएंकमाल का कलेक्शन है भाई।
जवाब देंहटाएंअपने पुराने नोट्स सहेज कर रखिए। (अभी तक रखा ही है!)
यथार्थपरक सुन्दर सार्थक रचना...
जवाब देंहटाएंकुछ तो बहुत ही उम्दा...
जवाब देंहटाएंये आनंद संगीत हमारे शहर कोटा के ही हैं...