गुरुवार, 1 सितंबर 2011

बिहार पर विशेष : शिक्षा में सारे घटिया प्रयोग कर रही नीतीश सरकार



बढ़ता हुआ बिहार जिन्हें देखना है, उनके लिए आज कुछ खास बातें हैं। जरा इस ओर भी एक नजर देख लीजिए ताकि आपका भ्रम भी टूटे।

बेहतर कहलाने की इच्छा अगर है, तो बेहतर काम भी तो करने चाहिए। लेकिन बिहार में नीतीश सरकार ठीक इसका उलटा कर रही है। बेहतर कहलाने की इच्छा तो बहुत है लेकिन बेहतर काम नहीं। यहाँ बात करते हैं इधर हुए शिक्षा-क्षेत्र में नए-नए खुराफ़ातों की। जैसे शिक्षक पात्रता परीक्षा, साइकिल बँटाई योजना, मैट्रिक में प्रायोगिक परीक्षा समाप्ति योजना, वित्तरहित महाविद्यालयों के लिए की गई दिखावटी योजना और दस हजारी योजना की। आइए जरा इसकी पड़ताल कर लेते हैं।

      पहले आते हैं पात्रता परीक्षा पर। इस परीक्षा के लिए अभी तक 20-25 लाख आवेदन आए हैं और माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षकों की पात्रता परीक्षा के लिए भी कार्यक्रम शुरु हो गए हैं। यानि 30 लाख से कम आवेदन नहीं आएंगे, इन दोनों को मिलाकर।
      अब जरा देखिए इसका मतलब क्या है। बिहार में प्रतिवर्ष लगभग 15 लाख परीक्षार्थी मैट्रिक और इंटर की परीक्षा में भाग लेते हैं। इंटर पास लोगों को प्राथमिक शिक्षक की पात्रता परीक्षा में सम्मिलित होना है और तब यह तय किया जाएगा कि कौन शिक्षक बनने का पात्र है और कौन नहीं। इसका मतलब क्या है। यही न कि इंटर पास सारे परीक्षार्थी पाँचवी और आठवीं को पढ़ाने के लायक नहीं हैं। तभी तो सरकार को इस तरह की परीक्षा आयोजित करनी पड़ती है कि इनमें से योग्य लोगों को चुना जा सके। यानि सरकार स्वयं मानती है कि उसकी व्यवस्था ऐसी है कि इंटर की परीक्षा पास अधिकतर उम्मीदवार गए गुजरे हैं और वे सब आठवीं तक को नहीं पढ़ा सकते। पाँचवी की बात भी नहीं जानते-समझते। जब सरकार को परीक्षा लेकर हम लाखों को छाँटते हुए देखेंगे तो इसका मतलब होगा कि उन लोगों को अयोग्य माना गया। तो क्या सरकार उनकी योग्यता बढ़ाने के लिए कोई इन्तजाम कर रही है या ऐसी कोई योजना है? अगर नहीं तो, क्या अयोग्यों को अयोग्य बनाए रखना ही सरकार की नीति है। यह जरूरी नहीं कि यहाँ उठाए गए सवाल हम हर राज्य या देश पर लागू करें। फिलहाल बात बिहार की हो रही है और सवाल उसी के लिए है। ऐसा इसलिए कहा गया कि बिहार की सत्तासीन सरकार पिछली सरकार को जब बेकार या निकम्मा (जो बहुत कुछ थी भी) साबित करने पर तुली है, क्या वह उससे  बेहतर काम शिक्षा या किसी दिशा में कर रही है। मुझे नहीं लगता कि सड़े हुए आम खाना न खाने से बेहतर है। इसलिए ऐसी व्यवस्था को जो दावा करती रहे कि उसने बड़ा तीर मार लिया है, आलोचनात्मक दृष्टि से देखना शायद गलत नहीं।
      क्या यह नहीं हो सकता था कि इंटर के सारे परीक्षार्थियों को ऐसी व्यवस्था दी जाती कि उनके अध्ययन और ज्ञान के स्तर में वृद्धि होती? यह तो एक सत्य की तरह है कि जिस व्यवस्था में पहले पास कर ली गई कक्षाओं के सवाल पूछे जाते हैं, वह व्यवस्था स्वयं साबित कर रही होती है कि उसमें बड़ी कमी रही है वरना इसकी आवश्यकता ही नहीं थी।
      बस, इसी कारण यह बात कही गई है। एक वाक्य में कहें तो, सरकार यह घोषणा करना चाहती है कि उसके शासन (क्योंकि अधिकांश उम्मीदवार नए ही हैं) में कितने लोग नकल करके या घटिया तरीके से पास कर रहे हैं। यह बात सरकार के ध्यान में नहीं है कि इस कार्य को ऐसे भी देखा जा सकता है। और सरकार अपनी ही असफलता बयान करने वाली है। मतलब पिछले छह सालों में इंटर पास सारे लोगों की संख्या 5-6 लाख भी मान लें, जो पात्रता परीक्षा देने लायक हैं, इनमें से अधिकांश को सरकार के घटिया शिक्षा-नीति के चलते अयोग्य साबित किया जाना है।
     अब आते हैं साइकिल बँटाई योजना पर। अब उच्च विद्यालयों के छात्रों को साइकिल के लिए पैसे दिए जा रहे हैं। इसका एक घटिया पक्ष देखिए। साइकिल देने  के पीछे एक कमजोर तर्क यह है कि  पढ़ने के लिए दूर से बच्चे आएंगे। इसका मतलब यह है कि विद्यालय कम हैं तभी दूर से पढ़ने आना पड़ता है। दस करोड़ की आबादी पर जहाँ लगभग दस लाख परीक्षार्थी मैट्रिक की परीक्षा में शामिल हों, वहाँ क्या इतने विद्यालय नहीं होने चाहिए कि छात्रों को अधिक दूर नहीं आना-जाना पड़े। एक-एक विद्यालय में हजार-पंद्रह सौ तक या इससे भी अधिक विद्यार्थी हैं और शिक्षक दस-बारह या इससे भी कम। अब एक हिसाब देखिए।
अगले साल से साइकिल के लिए 2500 रुपये दिए जाएंगे। इस साल नौ लाख से अधिक छात्र मैट्रिक की परीक्षा में शामिल हुए थे। इस हिसाब से दस लाख या अधिक छात्र आज के दिन जिस कक्षा में होंगे और जो अगले साल उसके आगे की कक्षा में साइकिल के लिए पैसे प्राप्त करेंगे, कुल 10 लाख * 2500= 250 करोड़ रुपये सिर्फ़ साइकिल के नाम पर प्राप्त करेंगे। अब जरा एक और हिसाब देखिए। अगर उच्च विद्यालय में तेरह कर्मचारी (शिक्षक-लिपिक सहित) हों और उन्हें आज के हिसाब से वेतन दिया जाय तो
250 करोड़ / 13(कर्मचारी-संख्या) * 7000(वेतन औसत आठ हजार मान लेते हैं) * 12(एक साल)= लगभग 22-2300 यानि नये दो हजार से अधिक उच्च विद्यालय तो आसानी से चलाए जा सकते हैं। इससे कम से कम आठ-दस हजार गाँवों के लिए यह साइकिल की योजना खत्म हो जाएगी। फिर सरकार नए उच्च विद्यालय क्यों नहीं खोल देती जिससे रोजगार भी मिलता, छात्रों को अपने नजदीक के विद्यालय में जाने के लिए साइकिल की आवश्यकता भी नहीं होती। जब सरकार अस्थायी जगहों पर महाविद्यालय चला सकती है तो उच्च विद्यालय क्यों नहीं? अगर हर पंचायत में एक उच्च विद्यालय खोल दिया जाय, तो क्या विद्यार्थियों को आराम, साइकिल न बाँटना, रोजगार आदि कई सुविधाएँ नहीं मिलने लगेंगी? सरकार चाहे तो कुछ दिनों में ही उच्च विद्यालय चलाने का इन्तजाम हो सकता है। किसी पंचायत के लोग आसानी से विद्यालय के लिए व्यवस्था कर देंगे। सरकार बाद में आराम से  विद्यालय-भवन आदि बनाती रहे। और इसके लिए पैसे की समस्या आती है तब विधायकों के लिए इतनी सुविधाएँ और ऊँची तनख्वाह किसलिए? जनता के चुने हुए लोग इसलिए तो नहीं जाते कि उन्हें बिल गेट्स या अम्बानी-सा घर मिले।
फिलहाल तो हाल यह है कि लगभग 30-32,000 की जनसंख्या पर एक उच्च विद्यालय है। महाविद्यालयों का हाल तो और खराब है। स्नातक की पढ़ाई के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इतने कम महाविद्यालय हैं कि सीधे जिला मुख्यालय का ही विकल्प प्राय: बचता है। क्या कम से कम हर प्रखंड में एक स्नातक स्तरीय महाविद्यालय नहीं होना चाहिए? अगर कोई यह कहे कि धीरे-धीरे सब होगा या किया जाएगा तब इसका सीधा मतलब तो इतना ही है कि तब तक लाखों विद्यार्थी परेशान रहें। सबसे अच्छा हो कि सरकार सारे संस्थानों को बन्द ही कर दे, जब तक व्यवस्था नहीं होती। लाखों बेरोजगार लोगों को शिक्षित करने की क्या आवश्यकता है जब सरकार के पास उतने लोगों को रोजगार देने की क्षमता नहीं है।
      लाखों बेरोजगारों की फौज खड़ा करके क्या मिलेगा?

जब सब जगह शिक्षा के स्तर को बढ़ाने-सँवारने की बात होती है तब बिहार में मैट्रिक से प्रायोगिक परीक्षा को खत्म किया गया है। कितने ऊँचे और महान शिक्षाशास्त्री सरकार में हैं, इसका अन्दाजा इससे भी लगता है। विज्ञान की शिक्षा और वह भी सिर्फ़ किताब से! सवाल यह नहीं है कि लालू के शासन में क्या था। सवाल यह है कि आप किस आधार पर बेहतर हैं? जहाँ प्रायोगिक शिक्षा का अच्छा इन्तजाम होना चाहिए था, वहाँ सीधे उसे खत्म कर दिया जाना, कितना घटिया कदम है! पहले से ही विद्यालयों में प्रायोगिक शिक्षा की कमी रही है। मैट्रिक के सौ विद्यार्थियों में से कितनों ने एक भी प्रयोग किया है, यह पूछकर पता चल सकता है कि लालू और नीतीश सरकार की शिक्षा व्यवस्था का परिणाम क्या है। प्रयोगशालाओं को बेहतर बनाने की जगह उसे बन्द कर दिया जाना उचित समझा गया। लेकिन फिर भी सरकार के गुणगान में लगे लोग कम नहीं हैं।

      वित्तरहित वाला मामला भी कुछ ऐसा ही है। प्रथम श्रेणी पाने वाले छात्र पर इतना और द्वितीय श्रेणी पाने वाले पर उससे कम रुपये दिए जाने की बात कही गई है। अब इसका एक परिणाम देखिए। एक महाविद्यालय में सौ छात्र हैं और उनके परिणाम के आधार पर एक व्याख्याता को एक-दो हजार प्रति माह तो दूसरे में अगर पाँच सौ छात्र हैं तब एक व्याख्याता को दस हजार रुपये प्रति माह और हजार छात्र हैं तब बीस हजार प्रतिमाह। पता नहीं किस बुद्धिमान प्राणी के द्वारा ये सारे विचार रखे जाते हैं और इन्हें लागू भी कर दिया जाता है। अब सोचिए कि संयोग से एक व्याख्याता जो दरभंगा के किसी महाविद्यालय का है, जब सीवान के किसी महाविद्यालय के व्याख्याता से मिलता है तब, दोनों क्या बात करेंगे? एक का वेतन एक हजार और दूसरे का बीस हजार। यह है बिहार की शिक्षा व्यवस्था का परिणाम। एक मजदूर की कमाई से भी कम पर रहे और एक अगर राजधानी या शहरों में है तो पचास हजार या अधिक भी प्राप्त करे, यह क्या है। कौन सा खेल खेल रही है बिहार सरकार। यह सब्जी बाजार में आलू का भाव है, जो हर दुकान पर अलग नजर आ रहा है या शिक्षकों-व्याख्याताओं का वेतन?
      फिर छात्राओं को दस हजार रुपये इंटर में देने की योजना भी है, अगर वे मैट्रिक में प्रथम श्रेणी प्राप्त करती हैं। सब जानते हैं कि कैसे प्रथम श्रेणी प्राप्तकर्ताओं में भारी इजाफ़ा हुआ है। सरकार के सारे लोग जानते हैं लेकिन सरकार नहीं जानती? कैसी है यह सरकार? क्या शिक्षा को डुबाने का जिम्मा इसी सरकार ने ले रखा है? एक तो पहले से  गहरे पानी में गरदन तक फँसी है शिक्षा और अब उसे दस हजार फीट गहराई तक पहुंचाने के लिए तैयारी जोर-शोर से चल रही है।
      हाँ तो हम बात कर रहे थे दस हजारी योजना की। इसका तर्क यह हो सकता है कि छात्राओं के लिए पढ़ने का खर्च है यह। यानि सरकार फिर वही कह रही है कि छात्राओं के लिए इंटर के पढ़ाई की व्यवस्था   उनके निवास से दस किलोमीटर दूर रखो ताकि वे आने-जाने , पढ़ने में खर्च कर सकें। लेकिन यही सरकार न तो इंटर के लिए विद्यालय खोलना चाहती है न ही स्नातक स्तरीय किसी विद्यालय में उसे कोई रुचि है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि सारण जिले में जितनी लड़कियाँ पढ़ेंगी, सब इंटर के आगे पढ़ने के लिए सिवाय छपरा, जो जिला मुख्यालय है, के कहाँ जाएंगी? पूरे जिले की जनसंख्या 34-35 लाख से कम नहीं होगी। लेकिन इसके अन्दर स्नातक स्तरीय महाविद्यालय 35 भी नहीं हैं। और तो और बीस प्रखंडों के मुख्यालय में भी अधिकांश जगह नहीं हैं। कई गाँवों से चालीस किलोमीटर दूर तक स्नातक स्तरीय महाविद्यालय नहीं हैं और इंटर के लिए भी कुछ कुछ ऐसा ही हाल है। यह सब तो 2050 के लिए सोचा गया होगा शायद। दस हजारी योजना पर पहले भी लिखा जा चुका है।
      वहीं यह सरकार इसपर नहीं सोचती कि क्यों निजी विद्यालय लूट में लगे हैं और क्यों सरकारी शिक्षण संस्थानो में लोग रुचि कम लेने लगे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि न तो सरकार शिक्षा में कोई सुधार कर रही है और न ही इसकी कोई उम्मीद दूर तक दिख रही है। ढोल पीटा जा रहा है। लोग नाच रहे हैं। 

7 टिप्‍पणियां:

  1. वित्त रहित वाला मामला तो खौफनाक मंजर है .

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  2. इसका एक ही अर्थ निकलता है कि बिहार की व्यवस्था कुछ हाथों में खेल रही है. वहाँ विवेकपूर्ण नीति को धता बता दिया गया है. वे लोग निजी स्वार्थ के लिए कुछ भी लागू करा लेने की हालत में हैं. बढ़िया आलेख.

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  3. आदरणीय ब्रजकिशोर जी,

    आज ही पढ़ा कि विश्व में कहीं वित्तरहित शिक्षा नीति नहीं है। लेकिन फिर भी सरकार और नीतीश की जय-जयकार के खिलाफ़ जहाँ कुछ बोलिए कि आपको ही गलत सोच का आदमी करार दिया जाता है। बार-बार कम से कम मेरे साथ तो ऐसा होता ही है। मुद्दे तो कई और हैं, उनपर भी लिखने की सोचूंगा।

    और सब लोगों को धन्यवाद।

    भूषण जी,

    लेकिन क्या करें, जब देखते हैं कि सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का पुरस्कार झटकते समय बिहार रोता है और सरकार हँसती है।

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  4. सुन्दर , आभार .

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

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  5. दूसरे पहलू से भी अवगत कराया है आपने.

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