शनिवार, 17 सितंबर 2011

नीतीश कुमार के ब्लॉग से गायब कर दी गई मेरी टिप्पणी (हिन्दी दिवस आयोजन से लौटकर)


मैं किसी ऐसे आयोजन में शामिल नहीं हुआ था जो हिन्दी दिवस पर हुए। फिर वहाँ से लौटने की बात क्यों? कारण है भाई। पिछले कुछ दिनों से लगातार हिन्दी पर पढ़ने को मिलता रहा है। आयोजनों में भाषण-पुरस्कार-शपथ आदि के अलावा कुछ होता तो है नहीं, इसलिए हम ब्लॉग-जगत के अलग-अलग घरों में पैदल ही घूमते रहे। 40-50 से कम लेख-कविताएँ नहीं पढ़ी होंगी। कई जगह टिप्पणी भी की। तो मेरा यह काम भी तो आयोजन में शामिल होना ही माना जाएगा।
कुछ दिनों से हिन्दी का जोर सबमें मार रहा था। कई तो ऐसे भी दिखे जो 14 सितम्बर बीतते ही अंग्रेजिया गये, जो उनकी असली प्रवृत्ति रही है। ऐसे लोग बड़े चालू किस्म के होते हैं। पूरा का पूरा गिरगिट। जब चाहा रंग बदल लिया।
कई लोगों ने जो सम्माननीय भी हैं, अच्छी बातें भी कहीं।
      इनमें से कुछ लिखनेवाले महाबुद्धिमान थे, तो कुछ भगवान ही थे। कुछ लोग कम या ज्ञात जानकारी या भ्रमों के प्रभाव में थे, तो कुछ संसार की हजारों भाषाओं के बीच मात्र अंग्रेजी के लिए उदारमना बन रहे थे। इन उदारमनाओं में पता नहीं अन्य भारतीय या विदेशी भाषाओं के प्रति इतना सम्मान है या नहीं, लेकिन ये जी जान लगाकर अंग्रेजी को धो-पोंछ रहे थे।

अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना हिन्दी के विरोध का सूचक नही है। पर मैंने लिखा- रावण का साथ देना राम का सहयोग नहीं है।
      कुछ लोगों के पेट में इस बात का दर्द अधिक ही हुआ कि क्यों अंग्रेजी के खिलाफ़ लिखा जाता है। अब ये लोग बेचारे कितनी मेहनत से अंग्रेजी सीखते हैं और उसी के दम पर इनका काम चलता है, तब कैसे बरदाश्त करें भला! यह अलग बात है कि इनके पास संसार की अन्य विदेशी भाषाओं का सीखने का समय नहीं ही होगा। कुछ लोग सच में ऐसे होंगे या अपने को इस धोखे में रख रहे होंगे कि वे बड़े महान लोग हैं या विश्व-नागरिक हो गये हैं। और कुछ लोग तो निश्चय ही ऐसी धारणा, भारत में फैलाये गये जाल में गलती से या जानबूझकर फँसने के कारण रखे हुए हैं। विस्तार में जाने की फिलहाल आवश्यकता नहीं लगती।
            वहीं कुछ अलग भी देखने को मिला। एक नई लेकिन बेहतर लेखिका ने भी कुछ लिखा। भाषा पर एक सुन्दर कविता भी मिली।
     वहीं कुछ लोग अपनी एक यात्रा या घुमाई में दस आदमी से मिल के भाषा पर बड़े विद्वान ही बन जाते हैं। जैसे वे अधिकृत इतिहासकार हों और वही सत्य बता सकते हों। ऐसे लोग शुरू करते हैं अपनी यात्रा गाथा से, जैसे यात्रा साहित्य के प्रपितामह हों। जैसे कोई तमिलनाडु गया चार दिन के लिए और वहाँ से भाषा का शोध-पत्र लेते आया। अब विश्वविद्यालयों को सोचना चाहिए कि ऐस लोगों के घर जाकर पी-एचडी की उपाधि जरूर देनी चाहिए। लेकिन वे हमेशा गलत ही करते हैं। बेचारे ऐसे-ऐसे एकदिनी शोधकर्ताओं के शोध का सम्मान होता ही नहीं।
      वहीं कुछ लोग समय के साथ चलने की सलाह देते नजर आते हैं।* उनके अन्दर जैसे कोई शेर सोया है, ऐसे पेश आते हैं। समय के साथ चलना भी कुछ अलग अर्थ देता है। समय के साथ यानि जिस समय को हमने बदला या बना लिया है। अब हम उसके कारण हैं और फिर हम अपनी मूर्खता को ही समय बना देते हैं। ऐसे लोग हिंग्रेजी के बड़े पक्षधर हैं। और अंग्रेजी के शब्दकोश में जय हो या महात्मा शब्द जुड़ने से अपने को या अपनी भाषा को परम सौभाग्यशाली समझते हैं। (अमेरिका या ब्रिटेन की कोई संस्था, जो चिरकुट ही क्यों न हो, कोई रिपोर्ट छाप दे तो लगता है कि भूचाल आ गया है। जैसे उसने माना तो आपकी आँखें झूठ हो सकती हैं लेकिन वे? सवाल ही नहीं है। अभी नरेन्द्र मोदी और नीतीश पर ध्यान दे लें। यह हाइटेक जमाना है भाई। आपके घर की सच्चाई, आप गलत या कम जानते हैं लेकिन अमेरिकी लोग अधिक।) ये अंगिंदी(अंग्रेजी में हिन्दी) के पक्षधर नहीं हो सकते क्योंकि अंग्रेजी में मिलावट की बात करना तो कानूनन जुर्म है। ऐसे लोग हिन्दी के दस वाक्य बोलें तो सौ अंग्रेजी शब्द चल सकते हैं(हैं, हो, कि, जैसे, लगता है, एक आदि शब्दों को छोड़कर सारे शब्द अंग्रेजी के) लेकिन अंग्रेजी के दस वाक्य में दस क्या दो शब्द भी हिन्दी के हों तो हिमालय टूट जाएगा। और सब जानते हैं कि ऐसे लोग बहुत ईमानदार और शान्तिप्रिय होते हैं, जिम्मेदार नागरिक होते हैं, जैसे हमारी फिल्मों में अभिनेता हुआ करते थे/हैं। (यहाँ बताता चलूँ कि मैंने जानबूझकर अमिताभ बच्चन के ब्लॉग पर इसी 14 तारीख को ही एक टिप्पणी लिखी थी …और अंग्रेजी में ही लिखते रहें। हिन्दी का सम्मान अंग्रेजी लिखकर ही होता है। फिर भी आप हिन्दी के लिए जाने जाते हैं। इस टिप्पणी को वहाँ से बाद में हटा दिया गया।)
      चलते-चलते एक और बात इस आयोजन पर। पिछले लेख में नीतीश कुमार के भाषाई रवैये पर लिखा था। जब मैं नीतीश के ब्लॉग पर गया, तब वहाँ से भी मेरी टिप्पणी हटा दी गई है। मेरे पिछले लेख को प्रकाशित करने तक उनके ब्लॉग पर 13 सितम्बर वाले अंग्रेजी लेख पर आठ टिप्पणियाँ थीं। (उनके ब्लॉग पर माडरेशन चालू है, जैसे रवि रतलामी जी ब्लॉग पर है। यानि स्वीकृति के बाद ही टिप्पणियाँ दिख सकती हैं।) लेकिन जब मैं 16 सितम्बर को वहाँ जाता हूँ, तब पंद्रह सितम्बर तक की गई 18 टिप्पणियाँ दिखती हैं। जबकि मैंने 14 सितम्बर को ही दिन में टिप्पणी कर दी थी। इसका प्रमाण है कि मैंने अपने ब्लॉग पर 14 सितम्बर को ही 5 बजकर 43 मिनट पर यह सूचना दी थी कि मैंने उनके ब्लॉग पर क्या टिप्पणी की है।
      फिलहाल तो यही बातें हैं। अब इतना तो तय है कि माडरेशन या टिप्पणियों का संपादन नीतीश कुमार या उनके कोई सहायक ही करते हैं। फिर क्यों ऐसा किया गया? मुझे शायद इसका जवाब मालूम है। क्योंकि मैं सरकारी सोच नहीं रखता। अब यह सरकारी सोच क्या है। इस पर अगले दिन…

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*(इसमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो कृष्ण के परम शिष्य हैं। बचपन से पर्दों पर छपे या रजिस्टरों के पीछे छपे, गीता-सार में लिखा रहता था, जो हो रहा है, वह अच्छा ही हो रहा है। जो हुआ, वह भी अच्छा ही हुआ और जो होगा, वह भी अच्छा होगा। ऐसी बेसिर-पैर की बातें ऐसे लोगों को सहायता प्रदान करती हैं। ऐसे लोगों का नाम लेने की जरूरत नहीं। बस, यही जान लीजिए कि ऐसी बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इसमें शामिल हैं, जिन्हें सरकार ने ऊँचे पदों पर बैठा रखा है। जैसे अकादमियों के निदेशक आदि। या फिर बड़े-बड़े लेखक भी शामिल हैं इसमें और ब्लॉगर भी)
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अभी-अभी एक नई खबर मिली है नीतीश सरकार के बारे में। इसे अवश्य देखें। अभी तक मैंने लगभग दस लेख बिहार सरकार के खिलाफ़ में लिखे हैं। जिनमें शिक्षकों और चिकित्सकों की लूट, सुशासन में अपराध, बेरोजगारी, घटिया शिक्षा नीति आदि विषय शामिल हैं। यह सरकार सिर्फ़ प्रशंसा करने वालों के लिए अच्छी है। चाहे अमिताभ हों या  कोई अभिनेत्री, कोई विदेशी हो या कोई बड़ा उद्योगपति, केवल इन्हें ही बिहार के मुख्यमंत्री और उनकी व्यवस्था अच्छी लगती है। क्योंकि जब पूँजीवाद के घोर समर्थक और शोषक लोगों को सुविधा मिलती है, तब वे भला सच कैसे बोलेंगे। मीडिया और कुछ तथाकथित भली संस्थाएँ नीतीश की छवि को महापुरुष में बदलने को जी-जान लगा रही हैं।

फेसबुक पर लिखने पर नीतीशराज में दो लेखकों का निलम्बन 

/ प्रमोद रंजन , 



क्या आपने कभी किसी ब्लॉग का सार्वजनिक विज्ञापन देखा है। कभी सुना है कि किसी बहुत बड़े बोर्ड-बैनर पर एक ब्लॉग का विज्ञापन किया हो? मैंने देखा है। पटना के गाँधी मैदान के पास, श्रीकृष्ण मेमोरियल सभागार के पास, रास्ते पर नीतीश के इसी ब्लॉग का विज्ञापन दिखता रहा है, मैंने कुछ महीने पहले तक देखा है। 
.......-11:26 पूर्वाह्न

12 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा किया जो नितीश को हिंदी टंकण सीखने के लिए नहीं कहा :) राजनीतिज्ञों के साथ पंगा क्यों. ऐसे ब्लॉग ये लोग स्वयं लिखते होंगे इसमें संदेह है. इनके पास इतना समय कहाँ. बलॉगिंग तो प्रचार का एक अतिरिक्त माध्यम भर है.

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  2. आदरणीय भूषण जी,
    समय तो इनके पास खूब होता है। बस कोई अमीर बुलाए उद्घाटन के लिए तब। या कोई पुरस्कार दे तब। नीतीश शायद हिंदी लिखना जानते होंगे ही।

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  3. इस प्रवष्टी की कड़ी प्रसारित कर दी है ।

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  4. @चन्दन भाई जी, मैंने बहुत थोड़ा सा अपने दो ब्लोग्स का सार्वजनिक विज्ञापन किया है. मेरी पुरानी पोस्टों में उसका जिक्र भी है. आपके पूरे लेख से सहमत हूँ. वैसे श्री अभिताभ बच्चन जी के ब्लॉग पर से मेरी हिंदी में लिखी टिप्पणियाँ हटा दी जाती है. मगर एक बार मैंने खरा-खरा लिखा तब उन्होंने खुद लिखा कि मैंने टिप्पणी नहीं हटाई. वो आज भी उनके ब्लॉग पर है या नहीं. इसका मुझे पता नहीं है. मगर गूगल पर मेरा नाम डालकर सर्च करने पर तीन महीने पहले उसका लिंक आता था.मगर अब पता नहीं है.

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  5. भावी प्रधानमंत्री और वर्तमान मुख्‍यमंत्री के बीच क्‍या कहे जनता.

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  6. भावी प्रधानमंत्री की टिप्पणी...मुख्यमंत्री के यहां से गायब...

    बढ़िया...

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  7. नीतीश भी आम मॉडरेटर ब्लॉगर ही साबित हुए।

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  8. चंदन, तुम मेरे सारे पुराने आलेख पढ़ रहे हो, इसके लिए बहुत धन्यवाद. इस समय भागाभागी में तुम्हारी बातों के बारे में मैं क्या सोचता हूँ, नहीं लिख पा रहा हुँ. चिट्ठों के द्वारा बहस की यही बात मुझे सबसे बुरी लगती है कि बहस सही तरीके से नहीं हो पाती. कोशिश करूँगा कि कुछ दिनों में कुछ अन्य उत्तर लिख सकूँ.

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  9. chandan jee dhanyvaad. www.cavstoday.blogspot.com
    par aane ke liye yun hee hauslaafzaai karte rahiye.
    vivek prabhat khabar

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