सोमवार, 7 नवंबर 2011

स्वेटर (कविता)

पहले
माँ बुनती थी स्वेटर
अपने बेटे के लिए ।
पत्नी, पति के लिए,
प्रेमिका, प्रेमी के लिए,
बहन, भाई के लिए ।
आज
स्वेटर तैयार हो रहे
कंपनियों द्वारा,
कस्टमर के लिए
उपभोक्ता के लिए ।


(फेसबुक पर कुछ पढ़ने के बाद कल इस कविता का खयाल आ गया। फरवरी 2008 में लिखी इस कविता को मैं अपनी पसन्दीदा कविताओं में मानता रहा हूँ।)


5 टिप्‍पणियां:

  1. महिलाओं पर बढ़ते बोझ के कारण समाजसेवी कंपनियाँ मैदान में उतर आईं. ये कंपनियाँ महिलाओं के लिए भी स्वेटर बनाती हैं. :))
    कविता हमें सहज ही सही बिंदु पर ले जाती है. खूब.

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  2. आलंबन बदल रहे हैं, बदलते रहे हैं सदैव.

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  3. आपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।

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  4. रिश्तों के भी तो आज ख़रीद-फ़रोख़्त हो रहे हैं।

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