पहले
माँ बुनती थी स्वेटर
अपने बेटे के लिए ।
पत्नी, पति के लिए,
प्रेमिका, प्रेमी के लिए,
बहन, भाई के लिए ।
आज
स्वेटर तैयार हो रहे
कंपनियों द्वारा,
कस्टमर के लिए
उपभोक्ता के लिए ।
(फेसबुक पर कुछ पढ़ने के बाद कल इस कविता का खयाल आ गया। फरवरी 2008 में लिखी इस कविता को मैं अपनी पसन्दीदा कविताओं में मानता रहा हूँ।)
महिलाओं पर बढ़ते बोझ के कारण समाजसेवी कंपनियाँ मैदान में उतर आईं. ये कंपनियाँ महिलाओं के लिए भी स्वेटर बनाती हैं. :))
जवाब देंहटाएंकविता हमें सहज ही सही बिंदु पर ले जाती है. खूब.
good expression.
जवाब देंहटाएंआलंबन बदल रहे हैं, बदलते रहे हैं सदैव.
जवाब देंहटाएंआपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।
जवाब देंहटाएंरिश्तों के भी तो आज ख़रीद-फ़रोख़्त हो रहे हैं।
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