(जन्मदिन: 23 जुलाई) |
चंद्रशेखर आजाद को उनके जन्मदिन के दिन याद करना तो बस एक झूठा उत्सव है। होना तो यह चाहिए कि हम साल के हर दिन ऐसे लोगों को याद करें। और सिर्फ़ याद ही नहीं करें वरन इनसे प्रेरणा भी लें। जन्मदिन और शहादत के दिन किसी शहीद को याद कर लेना या एक आलेख चिपका देना तबतक महत्वहीन है जबतक हम उनके सपनों का भारत नहीं बना डालते। लेकिन यहाँ तो सालों से परम्परा बन चुकी है कि बस जन्मदिन के दिन दो फूल स्मारकों पर, चित्रों पर चढ़ा लो और ड्यूटी पूरी हो जाती है। लेकिन इन उत्सवों के बहाने हम उन लोगों को याद तो कर लेते हैं वरना देश और इसके लोगों को अब फुरसत नहीं है कि वे रिमिक्स गानों, पब, बार, डांस और पार्टी के चक्कर से बाहर निकलकर एक झलक इधर भी देख लें। इसी समाज का हिस्सा होने के चलते आइए मैं भी एक बार इस झूठे उत्सव में शामिल हो जाता हूँ।
हिन्दी विकीपीडिया, चन्द्रशेखर आजाद महाकाव्य और भारतकोश पर आप चंद्रशेखर आजाद के बारे में आप पढ़ सकते हैं।
अभी हम मन्मथनाथ गुप्त का लिखा लेख पढ़ते हैं।
“आजादी किसे अच्छी नहीं लगती। चाहे पिंजड़े में बंद पक्षी हो, चाहे रस्सी से बँधा हुआ पशु। सभी परतंत्रता के बंधनों को तोड़ फेंकना चाहते हैं। फिर मनुष्य तो पशुओं की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और संवेदनशील होता है। उसे गुलामी की जंजीर सदा ही खटकती रहती है। सभी देशों के इतिहास में आजादी के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले वीरों के उदाहरण हैं।
1947 ई0 के पूर्व भारत परतंत्र था। तब अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के प्रयत्न बराबर होते रहते थे। 1857 ई0 में एक ऐसा ही सामूहिक संघर्ष भारतीय लोगों ने किया था। उसके बाद भी यह संघर्ष निरंतर चलता रहा। जनता में आजादी की चिनगारी सुलगाने का काम प्राय: क्रांतिकारी किया करते थे। अंग्रेजों को भारत से किसी भी प्रकार निकाल बाहर करने के लिए वे कटिबद्ध थे। ऐसे क्रांतिकारियों को जब भी अंग्रेजी सरकार पकड़ पाती, उन्हें फाँसी या कालेपानी की सजा देती।
भारत मा की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले ऐसे क्रांतिकारियों में चंद्रशेखर आजाद का नाम अग्रगण्य है।
चंद्रशेखर आजाद का जन्म एक बहुत ही साधारण परिवार में मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के एक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम और माता का नाम श्रीमती जगरानी देवी था।
बचपन से वे बहुत साहसी थे। वे जिस काम को करना चाहते थे उसे करके ही दम लेते थे। एक बार वे लाल रोशनी देनेवाली दियासलाई से खेल रहे थे। उन्होंने साथियों से कहा कि एक सलाई से जब इतनी रोशनी होती है तो सब सलाइयों के एक साथ जलाए जाने से न मालूम कितनी रोशनी होगी। सब साथी इस प्रस्ताव पर खुश हुए, पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि इतनी सारी सलाइयों को एक साथ जलाए, क्योंकि…”
अब इसे चित्रों के माध्यम से पढ़िए।
जारी…
(इस लेख को प्रस्तुत करने की याद उसी शख्स के चलते आई जो इन दिनों भगतसिंह पर अपना लेख प्रकाशित कर रहे हैं। इसलिए उनको मैं धन्यवाद देता हूँ। उम्मीद है वे उसे स्वीकारेंगे।)
BADHIYA.......
जवाब देंहटाएंSAYAD AAP YE LEKH 'ANURAG CHACHHA' SE PRERIT HOKAR LIKHE HO......
ACHHI BAAT HAI.........
SADAR.
आपकी बात मे दम है । दरअसल सच्ची श्रद्धांजलि तो महात्माओं के पथ पर चल कर ही दी जा सकती है । थोथे बयानों से क्या होने वाला है!
जवाब देंहटाएंसार्थक और महत्त्वपूर्ण पोस्ट ... आभार
जवाब देंहटाएंसही कहा हरी शंकर जी ने आपकी बात में दम है
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