23 मार्च 2011 को तेवरआनलाइन पर प्रकाशित मेरे आलेख ने मेरे अन्दर यह इच्छा पैदा की कि एक किताब लिखी जाय जो अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन बनाए। फिर विस्तार से हिन्दी और अंग्रेजी पर चर्चा करते हुए तथ्यों और तर्कों के साथ किताब लिखने में लग गया। अब वह किताब लगभग तैयार है। किताब कुछ वेबसाइटों पर प्रकाशित होने जा रही है। आज से यह सिलसिला शुरु कर चुके हैं तेवरआनलाइन के संपादक आलोक नंदन। मेरी किताब शुरु होती है एक कविता से जिसका शीर्षक है 'देशद्रोही की परिभाषा'। किताब का नाम रखा है 'देशद्रोहियों की भाषा है अंग्रेजी'। यह नाम कैसा है, जरूर बताएँ या अपना मत दें। आज से एक सर्वेक्षण शुरु कर रहा हूँ जो दाहिनी तरफ़ सबसे उपर दिखेगा। यह सर्वेक्षण तब तक चलेगा जब तक यह किताब ई-बुक या पुस्तक के रुप में प्रकाशित होगी। पूरी किताब जिन वेबसाइटों पर प्रकाशित होगी उनके लिंक जल्द ही दे दूंगा। पूरी किताब मैं यहाँ प्रकाशित नहीं करूंगा। हाँ, समाप्ति के बाद उसका पीडीएफ़-संस्करण अवश्य मेरे चिट्ठे पर उपलब्ध करा दूंगा। तो लीजिए आज पढ़िए उस किताब की शुरुआत में आनेवाली कविता को।
कभी विकास के नाम पर,
कभी कुछ सिक्कों की खातिर।
जिसने उस घर में नौकरी की, उसके तलवे चाटे
“जिस घर के लोगों ने बेरहमी से मेरे घर के
बच्चों को बचपन में पटक कर मार दिया,
बूढों को गोली मार दी,
मांओं से, बहनों से, बेटियों से बलात्कार किया और फिर जिंदा दफना दिया,
युवाओं को फांसी, कालेपानी की सजा दी।”
जिसने उससे भीख ली, कर्ज लिया,
“जिसने मेरे घर के लोगों से एक-एक पाई हड़पने के लिए सौ-सौ कोड़े बरसाये,
जिसने दुनिया की सबसे क्रूर हत्याओं को मेरे घर में अंजाम दिया।”
जिसने उसके सामने सिर झुकाया,
“जिसने मेरे घर में सैकड़ों साल तक आग लगायी,
एक-एक ईंट उठा ले गये जो,
जिनके अत्याचार के सामने काल भी काँप जाये”
जिसने उन हत्यारों की भाषा मुझसे ही बोलनी शुरु कर दी
झूठे बहाने बनाकर,
तुम ही बताओ, ऐ कविता पढ़ने वाले!
उसे मैं देशद्रोही के सिवा क्या कहूँ?
क्योंकि ये मेरे ही घर के रहनेवाले हैं,
मेरे ही खून को पीने वाले हैं,
और मैं ही तो देश हूँ, मेरा नाम भारत है
जिसे ये देशद्रोही इंडिया बना रहे हैं।
जिसने मेरे हर हिस्से को गिरवी रख दिया है
अत्याचारियों के पास
प्रगति का ढोंग करते-करते।
तुम ही बताओ, ऐ कविता पढ़ने वाले!
उसे मैं देशद्रोही के सिवा क्या कहूँ?
मैं इंतजार कर रहा हूं
हजार सालों से शान्ति का,
होकर क्षत-विक्षत,
थक गया हूं आक्रमणों से
और इस उम्मीद में बैठा हूँ कि
कोई तो पैदा होगा जो नपुंसक नहीं होगा।
जो उन क्रूर लोगों की विरासत नहीं थामेगा
और मेरी तरफ़ देखेगा।
क्यों कि सारे वीरों को तो उन राक्षसों ने मार डाला।
सिर्फ़ संतान पैदा कर देने से मर्द नहीं हो जाता कोई
संतान तो कुत्ते, भेड़िये, गदहे सब पैदा कर लेते हैं।
कोई तो पैदा होगा जो
समुंदर के पूरे पानी को थूक बनाकर
इनके मुँह पर उड़ेल देगा।
इस उम्मीद में बैठा हूँ मैं कि
कोई तो पैदा होगा जो मुझे उधार के राजसी वस्त्र न पहना कर
अपना फटा चिथड़ा ही पहनाएगा।
कोई तो मेरे घर के छीने हुए हिस्से को वापस लाएगा
कोई तो मेरा हीरा वापस छीन कर लाएगा
याद रखो माँगकर नहीं छीन कर लाएगा।
इस उम्मीद में बैठा हूँ कि
कोई तो पैसे, नौकरी, पत्नी, परिवार, मस्ती और विदेश के
मोह से निकलकर मुझे देखेगा।
इन देशद्रोहियों से कैसे उम्मीद करूँ?
ऐ कविता पढ़ने वाले!
तुम तो देशद्रोही नहीं हो!
फिर क्यों देख रहे हो यह सब चुपचाप?
तुम्हें उठना होगा और लड़ना होगा
इन देशद्रोहियों से।
उठो! निकलो अपने स्वार्थ के कुएं से
और कूद जाओ रणक्षेत्र में।
और खत्म कर डालो आक्रमणों का इतिहास
एक आखिरी आक्रमण से।
तुम्हें जीतना होगा
जीतना होगा
जीतना होगा , यह युद्ध कम से कम मेरी खातिर।
प्रशंसनीय आक्रोश
जवाब देंहटाएंव्यवस्था का दोष ||
बहुत सुंदर कविता है जो लोगों के आत्मसंतोष के मिथ्या खोल को नोंच कर फेंक देती है। इसे पढ़ कर भी जिसे अपने आज पर शर्म और क्रोध न आए तो वह जीवित ही मृत के समान है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता के लिए बधाई!
बहुत सुंदर कविता है मगर इस कविता को पढकर चार-पांच वाक्यों की टिप्पणी करना सबके लिए आसान है.लेकिन इसके लिए कोई दिल से और मन से कुछ नहीं करने वाला है.किसी न किसी चीज का बहाना बनाकर मज़बूरी का बहाना करेंगे.
जवाब देंहटाएंमेरी हिंदी को लेकर एक छोटी सी लड़ाई से आप भी अवगत हो जायेंगे अगर आप हिंदी में लिखी पूरी पोस्ट पढेंगे.जिसके लिंक नीचे दे रहा हूँ.
क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.
मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.