अनवरत पर इस लेख को पढ़ा तो टिप्पणी लिखते-लिखते यह लेख लिख दिया।
अन्ना से सरकार की अनबन और अन्ना के अनशन का खेल रोज दिख रहा है। तानाशाही तरीका अपनाना कहीं से न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। अन्ना के साथ जो हुआ, वह निश्चय ही ठीक नहीं लेकिन कुछ सवाल और समस्याएँ तो हैं ही।
मोमबत्ती जलाने से कुछ होगा? यह तो एक नकल मात्र है। दिवाली के दिन दिये कम नहीं जलते। और लोगों को एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि क्या अन्ना इतने प्रसिद्ध नहीं होते तब उनके साथ यही व्यवहार किया जाता? यानि आप किसी बात के लिए अनशन करेंगे तो आपके साथ सरकार और पुलिस इतने आदर से पेश आएंगे। आदर का अर्थ कि सरकार ने अन्ना को परेशान तो बिलकुल नहीं किया। जतिन दास जैसा आदमी मर जाता है लेकिन कुछ लोग अन्ना को न मरने देंगे, न खुद जाएंगे। अन्ना को आगे भेज कर अर्जुन जैसे कायर किस्म के लोग महाभारत का कौन सा हिस्सा लिख रहे हैं? मरें अन्ना, अनशन करें अन्ना और रेमन मैगसेसे किसी और को।
राष्ट्रपति तो इस देश में बनाई गई है सिर्फ़ इसलिए कि दिखाया जा सके कि एक महिला को भारत में राष्ट्रपति बनाया गया है। चुप रहने की कला सिखाने के महान शिक्षक हमारे प्रधानमंत्री और हमारी राष्ट्रपति तो मौन धारण करने वाले लोग हैं।
जितने लोग शोर मचा रहे हैं, उनमें से कितने को पता है कि वे क्यों शोर मचा रहे हैं? यानि शोर मचाने वाले तो लालू, नीतीश से लेकर कुम्भ के मेले तक की सभा में संख्या और शोर दिखा जाते हैं। उनमें से अधिकांश घूस लेते और देते हैं, फिर भी अच्छा है।
अन्ना जो मांग कर रहे हैं, उससे वास्तव में लोगों के बीच एक गलत संदेश जा रहा है। लोकतंत्र के लिए कुछ तो समस्या होगी ही। यद्यपि मैं लोकतंत्र को पसन्द नहीं करता। लेकिन क्या अपनी बात मनवाने के लिए हर किसी को अनशन नामक हथियार इस्तेमाल करने का रास्ता अन्ना ने नहीं दिखा दिया? अब तो जब चाहें लोग हल्ला कर के कानून बनवाना चाहेंगे। दूसरा गाँधी का लेबल चिपका कर घूमने वाले अन्ना का कहना है कि भ्रष्टाचार खत्म कर लेंगे इस कानून से। मूर्खतापूर्ण मांग से हो सकता है यह? मांग में रेमन मैगसेसे की बात क्यों अनिवार्य है या नोबेल की बात भी? और जब देश के प्रमुख को भी किसी कानून के दायरे में लाया जाय, उसे प्रमुख कैसे कहें? और क्या यह एक चक्र नहीं है जिसमें जनता-अधिकारी-नेता-मंत्री-प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति उलझे हुए हैं?
यानि आपको अपने देश के प्रमुख पर इतना संदेह है कि उसके लिए इस तरह की सीमा तय कर रहे हैं। और जब सीमा है तब प्रमुख और प्रथम नागरिक कैसे हुए ये? इन पदों को समाप्त कर दिया जाय।
सरकार की दमनकारी कोशिशें बिलकुल दुखद हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अन्ना की प्रसिद्धि और इतिहास के साथ अनशन से हिंसा का रास्ता साफ हो रहा है।
और वैसे भी कानून क्या कम हैं पहले से? एक और विभाग खोलने के लिए इतना शोर। और जब अनशन जैसा बड़ा हथियार अपनाया गया है तो कुछ अच्छी और प्रमुख रचनात्मक मांगें रख लेनी चाहिए। लेकिन किसी पार्टी के लोग झगड़े नहीं, इसका ध्यान रखते हुए भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार हो रहा है। भ्रष्टाचार एक समस्या है लेकिन वही एक समस्या नहीं है। यह समस्या पूँजीवाद के रहने तक बरकरार रहेगी ही। क्या कोई कह सकता है कि हत्या के लिए फाँसी और आजीवन कारावस जैसे दंड तय हैं फिर भी आतंकवाद और हत्याएँ बन्द हो गयी आज तक? यह सोचने पर पता चलेगा कि नाव में छेद होगा तब तो डूबना तो है ही चाहे जितना पानी निकालो और जैसे भी निकालो।
अब जरा सरकार की सुनें तो कुछ अलग ही सामने आता है। अनशन की इजाजत देने का अर्थ क्या है? अगर कोई आपको मरने की इजाजत दे तब इसे क्या समझें?
जो लोग मानते हैं कि जन लोकपाल बिल की जीत होगी (जनता की नहीं), उन्हें ध्यान रखना होगा कि सरकार के पास सांसद हैं और कानून बनाते तो वे ही हैं। चाहे कानून कुछ ऐसा बने
सभका खातिर एक बा, भइया ई कानून।
साँझे छूटल जे कइल, भोरे दस गो खून॥
हिन्दी अर्थ:
सबके लिए समान है, भैया यह कानून।
रिहा हुआ वह शाम जो, सुबह किया दस खून॥
अगर सरकार अन्ना के बिल को संसद में लाती है, तब क्या होगा? ज्यादा मत तो सरकारी लोगों का ही होगा। और सरकारी लोकपाल बिल ही बनेगा। और अगर सरकार लोगों को देखते हुए सरकारी लोकपाल नहीं बनाती है, तब फिर जनता से यह पूछा जाय कि 120 करोड़ लोगों के एक प्रतिशत एक करोड़ बीस लाख के बीस प्रतिशत चौबीस लाख लोग भी इसके लिए आन्दोलन रत हैं, तब? मतलब देश में जिस बात के लिए एक प्रतिशत लोग भी हल्ला नहीं मचा रहे उस कानून को क्यों बनाया जाय। यहाँ राम मन्दिर के मुद्दे पर 25 लाख तो सक्रिय हो जाते हैं लेकिन दिमाग से किसी आन्दोलन में पच्चीस हजार लोग भी मुश्किल हैं। पिछलग्गू लोगों के शोर में और आन्दोलन में फर्क होता है।
सबसे बड़ा सवाल है कि क्या सोचकर इस देश की जनता ने भले ही वह बीस-तीस या पचास प्रतिशत ही रही हो इन लोगों को संसद में पहुंचाने से बाज न आयी।
वैसे एक सवाल और परेशान करता है कि भारत की यह जनता 65 सालों तक किस गुफ़ा में छिपी हुई थी। अद्भुत क्षमता है सहने की और झेलने की यहाँ की जनता में। भारत में पहले भी गुलामी झेला और फिर 65 साल। तो और झेल ही लेंगे शायद।
यह अन्ना पहले कहाँ थे? जब वे पिछसे 40 सालों से सामाजिक कार्यों में हैं तो बस कांग्रेसी शासन के समय अनशन का क्या अर्थ है? यह कोई जवाब नहीं कि 2010 में बड़े घोटाले हुए इसलिए। इसका मतलब तो इतना ही है कि जब तक कोई बड़ा घोटाला न करे, तब तक झेल सकते हैं यहाँ के लोग।
अन्त में एक बात। आप कह सकते हैं कि मैं ऐसा बार-बार सोचता हूँ। टीवी पर आप चाहे चिदम्बरम का, चाहे प्रणव का, चाहे कपिल का, चाहे लोकसभा-राज्यसभा में मनमोहन का, अरुण जेटली का, हामिद अंसारी का इन दिनों सुनें तो मालूम हो जाएगा कि देश की जनता के कितने लोग इनकी बातों को समझ पाते हैं!
आप ने बहुत सवाल खड़े किए हैं। उन में बहुत वाजिब भी हैं। सवालों के उत्तर दे सकता हूँ। लेकिन तब मुझे एक नहीं कई चिट्ठियाँ लिखनी होंगी। मैं जवाब में एक सवाल कर रहा हूँ। कितने लोग समझते हैं और विश्वास करते हैं कि पूंजीवाद भ्रष्टाचार के मूल में है? फिर यह सच भी अधूरा है। भ्रष्टाचार तो तब भी था, जब पूंजीवाद नहीं था। वस्तुतः भ्रष्टाचार की जड़ है व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार और वर्गीय समाज। इस सच को कितने लोग समझते हैं? यदि नहीं समझते हैं तो आप कहेंगे समझाना चाहिए। लेकिन समझाने से कोई नहीं समझता। लोग समझते हैं अपने अनुभव से। यह आंदोलन जो उमड़ पड़ा है वह इसीलिए है कि लोगों की सहनशक्ति जवाब दे रही है। सरकार इसे समझ नहीं रही है। हो सकता है यह केवल दूध का उफान हो औऱ कुछ ठंडे पानी को छींटो से बैठ जाए। लेकिन यह उफान जनता को बहुत चीजों की सीख दे जाएगा, अनुभव दे जाएगा।
जवाब देंहटाएंफिर क्या पूंजीवाद को आज समाप्त किया जा सकता है? मेरा उत्तर है कि नहीं किया जा सकता। इस से अगली व्यवस्था के लिए भी आर्थिक शक्तियों का उस के अनुरूप विकास होना जरूरी है। जब तक वे विकसित नहीं हो जाती वह भी संभव नहीं है। लेकिन पूंजीवाद को झेलना दुष्कर हो रहा है। इसे नियंत्रित करना ही एक मात्र मार्ग है। इसे गरीब और श्रमजीवी जनता के हित में नियंत्रित करना पड़ेगा। जनतंत्र को पूंजीपतियों और भूस्वामियों के गोदामों से निकाल कर आम जनता की धरोहर बनाना पड़ेगा। इस के विकास के मार्ग खोलने पड़ेंगे। ताकि समाज को विकास की अगली मंजिल में प्रवेश के द्वार तक पहुँचा जा सके। हमें जनतंत्र के लिए लड़ना पड़ेगा। ऐसा जनतंत्र जिस में जनता को अधिक से अधिक हिस्से को निर्णयों और प्रशासन में भागीदार बनाया जा सके। जिस में भ्रष्टाचार न हो, जिस में अधिक से अधिक चीजें पारदर्शी हों।
दिनेशराय द्विवेदी जी ने पर्याप्त शब्दों में बात कह दी है. इस विषय पर उनकी टिप्पणी को मैं अभी तक पढ़ी टिप्पणियों में से सब से बढ़िया मानता हूँ. उन्होंने मर्म को पकड़ा है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय द्विवेदी जी, व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार वाली बात एकदम सही है। मैं इस पर अधिक जोर देना चाहूंगा। वर्त्तमान व्यवस्था की सम्पत्ति का बँटवारा नियंत्रित होना चाहिए। जैसे यह सीमा तय की जा सकती है कि मुकेश अम्बानी को 70-75 लाख की बिजली केवल इसलिए इस्तेमाल करने को नहीं मिल सकती कि उनके पास पैसा है और वे भुगतान कर सकते हैं। हम एक अधिकतम सीमा तय कर सकते हैं कि कुछ करोड़ तक की सम्पत्ति कोई भी रख सकता है और इससे अधिक सम्पत्ति सामाजिक होगी न कि व्यक्तिगत।
जवाब देंहटाएंशायद इस आन्दोलन(?) से कुछ हो भी जाय क्योंकि बिलकुल बेकार तो नहीं ही हो रहा यह।
जनतंत्र को आम जनता की धरोहर बना सकने का अधिकार ही हम सांसदों-विधायकों दे चुके हैं, समस्या यही है। हाँ, एक बात अवश्य कहूंगा कि समझौते हमेशा डगमगाते हैं। लोग समझेंगे नहीं और इसके पीछे धर्म का बड़ा हाथ भी है क्योंकि वह पूँजीवादी व्यवहार का ही पोषक है।
अब इस अन्नामय माहौल में इन्कलाब जिंदाबाद की क्या जरूरत है? बहुत जगह यह भी कहा जा रहा है और लिखा हुआ है। इसका अर्थ अन्ना के विषय से कहीं भी मेल नहीं रखता।
सार्थक प्रस्तुति .आभार
जवाब देंहटाएंBLOG PAHELI NO.1