बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ग्यान और भाखा - राहुल सांकिर्ताएन


भाषा एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस चिट्ठे का नाम भी हिन्दीभोजपुरी है। तो जाहिर है कि भाषा सम्बन्धी लेख यहाँ अक्सर पढने को मिलेंगे ही। राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ या ‘भागो नहीं बदलो’ से एक अध्याय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस किताब पर एक विस्तृत लेख इसी महीने पढने को मिलेगा। फिलहाल यह अध्यायजो किताब का सत्रहवाँ अध्याय हैयहाँ प्रस्तुत है। इस किताब की भाषा बड़ी लचकदार है। शुद्धतावाद के पक्षधरों के लिए यह भाषा एक चुनौती है। राहुल जी ने इस किताब की भूमिका में ही लिखा है कि यह किताब छपराबलिया इलाके की भाषा के असर के साथ हिन्दी में लिखी जा रही है। इस किताब में ‘’ के लिए ‘’, ‘’ के लिए ‘’, ‘ज्ञ’ के लिए ‘ग्य’ जैसे कई प्रयोग थे। हमारे इलाके में ऐसी ही भाषा बोली जाती है। किताब में कुछ पात्र हैं और पूरी किताब संवादात्मक शैली में लिखी गयी है। ‘भैया’ कोई गप्पी नहीं बल्कि एक प्रबुद्ध चिन्तक और विद्वान है। ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ सामान्य किसान हैं और ‘सोहनलाल’ एक पढ़ा-लिखा और शहर में रहनेवाला युवक है। किताब की भूमिका से लगता है कि ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ नाम के दो व्यक्ति थेऔर एक साधारण पढा-लिखा व्यक्ति जो मात्र  6-7 तक पढ़ पाया होवह भी समझ सकेराहुल जी के लिए इस किताब की भाषा को इस लायक मानने के आधार भी थे।
यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किताब 1945-46 के आस-पास की हैतो जाहिर हैकिताब पर उस समय का असर कई जगह दिखता है। बँगला और उर्दू को लेकर बंग्लादेश में चले लफड़े का पूर्वानुमान भी राहुल जी ने लगाया थाइसका अन्दाजा इस अध्याय के आखिरी वाक्य से लगता हैजो इंदिरा गाँधी के समय सच भी साबित हो गया।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है इस अध्याय को पूरी तरह टंकित भी मैंने नहीं किया है। इसे ओसीआर साफ्टवेयर की सहायता से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
राहुल जी ने इस किताब में अपना नाम ‘राहुल सांकिर्ताएन’ लिखा है। इसे अलग-अलग टुकड़ो में देना उचित नहीं लगाइसलिए पूरे अध्याय को एक ही बार में यहाँ रखा जा रहा है। थोड़ा अधिक समय लगेगा पढने में। इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।


 अध्याय 17

ग्यान और भाखा

सोहनलालदुक्खू मामाभी तक हमने भैया से बहुत सँभल-सँभल के सवाल पूछा हैअब एकाध अपने मन का भी सवाल पूछ लेने दो।

दुखराम: पूछो भैनेहम भी सुनेंगेलेकिन दो चार आना हम भी समझें ऐसा पूछना।

सोहनलाल: नहीं समझ पाओगे दुक्खूमामातो दो ही चार आना भरनही तो सभी समझोगे। अच्छा तो भैयाजोकें जो कहती हैंकि जितना ग्यान-विग्यान दुनिया में हैवह सब हमने ही पैदा किया हैहम  रहेंगे तो दिया बुझ जायगा।

भैया: हम कब कहते हैं जोंको ने भी अच्छा काम किया ही नहीं लेकिन जो दिया बुझ जाने की बात कहते हैंवह गलत है। हम दिया बुझने नहीं देंगे। हमारे कमेरों के राज में ग्यान-विग्यान बहुत चमकेगा। वहाँ ग्यान के विना कुछ हो भी नहीं सकता। जोंको के राज में आज अपढ़-अबूझ हलवाहे से भी काम चल सकता है लेकिन हमारे लिए तो मोटर-हल चलानेवाले हलवाहे चाहिए। राज सँभालते ही पहला काम में यह करना पड़ेगा कि देसभर में कोई बेपढ़ नहीं रहे।

दुखराम: लेकिन भैयाकितने लोगो में तो जेहन ही नहीं होतीवह कैसे पढ़ेंगे ?

भैया: जोंकों की जैसी पढ़ाई होगीतब तो सबको पढ़ नहीं बना सकते। जोंकें बिद्दा पढ़ाने के लिए भाखा पढ़ाती हैंअपनी भाखा पढ़ावे तो कोई उतनी मेहनत नहीं लेकिन वह पढ़ाती हैं अंगरेजीफारसीअरबीसंसकीरत। जो हम देस भर को अंगरेजी पढ़ा देने की परतिग्या करेंगे तो वह सात जनम का काम है दुक्खू भाईहम तो बल्कि भाखा पढ़ायेंगे ही नहीं। क्या कोई आदमी गूँगा है कि भाखा पढ़ायें। लोग कथा-कहानी कहते हैंहँसी-मजाक करते हैंदेस-बिदेस की बात बतलाते हैंसब अपनी ही भाखा में कहते हैं बस हम पहले तो यही कहेंगे कि दो-तीन दिन में अच्छर सिखला देंगे। अड़तालिस अच्छर तो कुल हई हैं। दो-तीन नहीं तो पाँच-छः दिन लग जायेंगेफिर आदमी जो भाखा बोलता हैउसी में छपी किताब हाथ में थमा देंगे।

दुखराम: ऐसा हो भैयातब पढ़ना काहे का मुस्किल हो।

भैया: ढोला-मारुसारंगा-सदाव्रिच्छलोरिकीसोरठीनैकाकुँअरि विजयमलबेहुला के कितने सुन्दर-सुन्दर खिस्से और गाने हैं। इन्हीं को छाप के दे दिया जायतब कहो दुक्खू भाई!

दुखराम: तो बूढ़े सुग्गे भी राम-राम करने लगेंगे क्या किसी को पढ़ने में परिस्त्रम मालूम होगा।

भैया: बिद्दा अलग चीज है दुक्खू भाईभाखा अलग चीज है। लेकिन जोंकें हमको सिखलाती हैं कि भाखा पढ़ लेना ही ग्यान है। यह ठीक है कि ग्यान सिखाते बखत उसे किसी भाखा में बोला जाता है। लेकिन अँगरेजी में काहे बोला जायअरबी-संसकीरत में काहे बोला जायउसे अपनी बोली में काहे  बोला जाय।

सोहनलाल: लेकिन बोली तो पांच कोस पर बदल जाती है। ऐसा करने से तो हजारों भाखा बन जायेगीऔर कौन-कौन में किताब छापते फिरेंगे?

भैया: पाँच को नहीं जो 5 अंगुल पर ही भाखा बदल जायतो भी हमको उसी में किताब छापनी पड़ेगी। तभी हम दस बरिस के भीतर अपने यहाँ किसी को बेपढ़ नहीं रहने देंगे।

सोहनलाल: लेकिन हिन्दी भी तो अपनी भाखा है।

भैया: जिसकी अपनी भाखा होउसे हिन्दी ही में पढ़ाना चाहिएतुम्हारे बनारस में सब लोग घर में हिन्दी ही बोलते हैं?

सोहनलाल: किताब वाली भाखा तो नहीं बोलते भैयाबोलते तो हैं वही बोली जो बनारस जिला के गाँव में बोली जाती है।

भैया: जो   अच्छी तरह सिखा दिया जाय तो अपनी बोली में आदमी कितने दिनो में सुद्ध-सुद्ध लिखने लगेगा?

सोहनलाल: अपनी बोली को तो भैयाअसुद्ध कोई बोल ही नहीं सकता। अच्छर में चाहे भले ही एकाध गलती हो जायलेकिन व्याकरन की गलती कभी नहीं होगी।

भैया: और हिन्दी कितना दिन पढ़ने पर व्याकरन की गलती नहीं करेगा।

सोहनलाल: कोई-कोई आदमी तो भैया जिन्दगी भर पढ़ने पर भी  सुद्ध बोल सकते हैं  लिख सकते हैं।

भैया: लेकि अपनी बोली को तो आदमी चाहे भी तो असुद्ध नहीं बोल सकतायह तो मानते ही हो। अच्छा जिनगी भर हिन्दी  बोलनेवालों की बात छोड़ो। मामूली तौर से सुद्ध हिन्दी लिखने-बोलने में कितना समय लगेगा। हमारे गाँव के एक लड़के को ले लोजिसकी भाखा हिन्दी नहीं बल्कि भोजपुरी या बनारसी है।

सन्तोखी: मैं कहूँ भैयाहमारे यहाँ लड़के आठ बरस पढ़ के हिन्दी मिडिल पास करते हैंलेकिन तो भी  सुद्ध हिन्दी बोल सकते हैं लिख सकते  हैं।

भैया: सोहन भाईतुम इन्ट्रेन्स पास वालों की बात कहो।

सोहनलाल: जब पूछते ही होतो मैं बतलाता हूँ कि कितने तो बीपास कर के भी सुद्ध हिन्दी लिख-बोल नहीं सकते।

भैया:  मैं आठ साल पढ़े मिडिल वाले को लेता हूँ  बीकी चौदह साल की पढ़ाई। मैं इतना समझता हूँ कि आदमी की जेहन बहुत खराब  हो और भाखा ही भाखा पढ़ता रहे तो पाँच बरस तो जरूर ही लगेंगे। लेकिन हिसाब और दूसरी चीज साथ ही साथ पढ़नी होतब काम नहीं बनेगा। हमारे मदरसों में जो हिसाबजुगराफिया सब कुछ अपनी ही भाखा में पढ़ना होतो पाँच बरस क्या भाखा सीखने में एक दिन भी नहीं देना होगा। ग्यान है हिसाबजुगराफियाइतिहासखेती की बिद्दाइंजन की बिद्दासड़कपुल मकान बनाने की बिद्दा और पचीसो तरह की बिद्दा। ग्यान पढ़ाने के लिए जब हम यह सरत रख देते हैं कि जब तक तुम पराई भाखा  पढ़ोगेतब तक ग्यान में हाथ नहीं लगा सकतेतब वह बहुत मुस्किल हो जाता है।

सन्तोखी: हम लोगों की भाखा को तो भैयालोग गँवारू कहते हैं।

भैया: आइल-गइल”, “आयन गयन”, “आयो-गयो”, “एल-गेल” बोलने से तो गँवारु भाखा हो गईऔर आये-गये” कहने से वह अच्छी भाखा होगी। और कम् वेन्ट” कहने से वह बहुत अच्छी भाखा हो गई। काहेसे वह साहेब लोगों की भाखा है। साहेब लोगों का डंडा  सिर पर हैउनका राज हैइसलिए अँगरेजी बोली बहुत अच्छी भाखा हैवह देवताओं की भाखा से भी बढ़कर हैलेकिन जब साहब लोगों का राज  रहेऔर गँवार यही किसान-मजूर अपना पंचायती-राज काय कर लेंतो क्या तब भी उनकी भाखा गँवारू रहेगीयह तो जिसकी लाठी उसकी भेंस” वाली बात हुई। गँवारू कह देने से काम नहीं चलेगा। जिस बखत इसी गँवारु भाखा में इसकूलकालेज सब जगह चौदह बरस तक पढ़ी जानेवाली बिद्दा पढ़ाई जायगी उसी में हजारों किताबें छपेंगी। उपन्यासकविताकहानी सब कुछ गँवारू भाखा में मिलने लगेगा। रोजानाहफ्तावारमाहवारीअखबार निकलने लगेंगेतब इस भाखा को कोई गँवारू नहीं कहेगा।

दुखराम: क्या ऐसा होगा भैया?

भैया: जो तुम लोग हमेसा गँवार बने रहना चाहोगेतो नहीं होगाजो तुम हमेसा गुलाम बने रहोगेतो भी नहीं होगाजो हिन्दुस्तान के आधे आदमियों को बेपढ़ बनाये रखना हैतो नहीं होगानहीं तो इसमें  अनहोनी कौन-सी बात हैबल्कि अपनी बोली पकड़ने से तो छः बरस का रस्ता एक दिन में पूरा हो जाता है।

सोहनलाल: लेकिन अपनी-अपनी बोली पढ़ाई जाने लगीतो दरभंगाबनारसमेरठ और उज्जैन के आदमी एक जगह होने पर कौन-सी भासा बोलेंगे?

भैया: आज भी गौहाटीढाकाकटकपूनासूरतपेसावर के आदमी एकट्ठा होने पर क्या बोलते हैं।

सोहनलाल: हिन्दी बोलते हैंटूटी-फूटी हिन्दी से काम चला लेते हैं।

भैया: लेकिन इकट्ठा होने का ख्याल करके नसे यह नहीं  कहा जाता कि तुम असामीबँगलाउड़ियामराठीगुजरातीपस्तो छोड़ के हिन्दी-सिरिफ हिन्दी पढ़ोनहीं तो कभी जो इकट्ठे होओगे तो बात करने में मुस्किल पड़ेगा। जैसे उन लोगों को अपनी भाखा में सब कुछ पढ़ाया जाता हैउसी तरह दरभंगा वालों को मैथिलीभागलपुर वालों को भगलपुरिया ( अंगिका )गया वालों को मगही,  छपरा वालों को छपरही ( मल्ली )लखनऊ वालों को अवधीबरैली वालों को बरैलवी ( पंचाली ),  गढ़वाल वालों को गढ़वालीमेरठ वालों को मेरठी ( खड़ी बोली या कौरवी )रोहतक वालों को हरियानवी ( यौधेयी  )जोधपुर वालों को मारवाड़ीमथुरा वालों को ब्रजभाखा,  झाँसी वालों को बुन्देलखंडीउज्जैन वालों को मालवीउदयपुर वालों को मेवाड़ीझालावाड़ वालों को बागड़ीखँड़ुआ वालों को नीमाड़ीछतीसगढ़ वालों को छतीसगढ़ी सबको अपनी-अपनी भाखा में पढ़ाया जाय।

सोहनलाल: पढ़ाने में तो सुभीता होगा भैयाहर आदमी का पाँच-पाँच साल बच जायेगा और डर के मारे जो बीच ही में पढ़ाई छोड़ बैठते हैंवह भी बात नहीं होगी लेकिन हिन्दी भाखावालों का एका टूट जायगा।

भैया: एका टूटने की बात तो इस बखत नहीं कह सकते हो सोहन भाईइस बखत तो एका सिर्फ दिमाग में है। मध्य प्रान्त अलग हैयुक्त प्रांत और बिहार भी अलग हैहरियाना भी पंजाब में है ओर रियासतों ने छप्पन टुकड़े कर डाले हैंइसे आप देखते ही हैं।

सोहनलाल: लेकिन हम तो चाहते हैं कि सबको मिलाकर हिन्द का एक बड़ा सूबा बना दिया जाय।

भैया: सूबा नहींपंचायती राजप्रजातंत्र। सूबा क्या हम हमेसा विदेसी जोंकों के गुलाम बने रहेंगेऔर अपना राज होने पर किसी सुरुजबंसी को दिल्ली के तख्त पर बैठायेंगेहमारा पंचायती राज रहेगाजो एक नहीं बहुत से पंचायती-राजों का संघ होगा। जो लोग चाहेंगे तो दरभंगा से बीकानेऔर गंगोत्तरी से खँडवा तक का एक बड़ा प्रजातंत्र-संघ काय कर लेंगे जिसके भीतर पचीसों प्रजातंत्र रहेंगे।

सोहनलाल: तो भैयामल्ल प्रजातंत्र की बोली मल्लिका रहेगी और मालव प्रजातंत्र की मालवीयौधेय (अंबाला कभिश्नरीप्रजातंत्र की हरियानवीफिर जब वह हिन्द प्रजातंत्र संघ की बड़ी पंचायत (पार्लामेण्ट)  में बैठेंगेतो किस भाखा में बोलेंगे?

भैया: हिन्दी में बोलेंगे और किसमें बोलेंगे ? इन्हीं की बात क्यों पूछ रहे होमदरासकालीकटबेजवाड़ा,  पूनासूरतकटककलकत्ता और गोहाटी के मेम्बर भी जब सारे हिन्दुस्तान के प्रजातंत्र संघ की बड़ी पंचायत में इकट्ठा होंगेतो क्या वह अंगरेजी में लेच्चर देंगे। अंगरेज जोंको के जुवा के उतार फेंकने के साथ ही अंगरेजी भाखा का जोर हिन्दुस्तान में खतम हो जायगा तब हिन्दुस्तान में एक दूसरे के साथ बोलने-चालने और सारे देस की सरकार के काम-काज के लिये एक भाखा की जरूरत होगीतो वह भाखा हिन्दी ही होगी!

सोहनलाल: तो भैयाहिन्दी भाखा को तो तुम उजाड़ना नहीं चाहते हो ?

भैया: हम उजाड़ेंगे कि से और मजबूती से बसावेंगे। सारे हिन्द प्रजातंत्र संघ की वह संघ भाखा होगी। मदरसों में जैसे अंगरेजी के साथ दूसरी भाखा पढ़ाई जाती हैवैसे ही बारह बरस की उमर से 3-4 साल तक लड़कों को हर रोज एक घंटा हिन्दी पढ़नेका कायदा बना देंगे। उस बखत हिन्दी का जोर और बढ़ेगा कि घटेगा?

सोहनलाल: आज तो हिन्दी ही हिन्दी सब कुछ हैफिर तो ब्रिजमालवीमैथिली  अपने घर की मालकिन बन जाऐंगीफिरर बेचारी हिन्दी को जब कोई बुलायेगा तभी  चौखट के भीतर आयेगी।

भैया: आज-कल यह कहना तो गलत है कि हिन्दी सब कुछ हैकाहेसे कि सब कुछ तो अंगरेजी है। दूसरे हिन्दी के चौखट के भीतर बैठाने की बात भी ठीक नहीं है। मेरठ कमिश्नरी के साढ़े-तीन जिले, ( मेरठमुजफ्फरनगरसहारनपुर,  देहरादून .5, बुलंद सहर 1/4 की भी तो जनम भाखा वही है। उसके बाद सारे हिन्दुस्तान में घर-घर मे उसकी आव भगत रहेगी।

सोहनलाल: तो लोग अपनी-अपनी भाखा का प्रजातंत्र बना लेंगेफिर तो हिन्दुस्तान सौ टुकड़ों में बँट जायेगा।

भैया: सोवियत की आबादी हम लोगों से आधी है20 करोड़ ही हैलेकिन वहाँ तो 182 भाखा बोली जाती है और सबका अपना छोटा-बड़ा पंचायती-राज है। तुम चाहते हो कि पाँचों उगुँलियों को खुला नहीं रखा जाय बल्कि मिलाके सी दिया जायलेकिन इससे हाथ मजबूत नहीं होगा सोहन भाईसोवियत 182 प्रजातंत्र वाला होने पर भी एक बड़ा प्रजातंत्र है। हिन्दुस्तान भी 100 प्रजातंत्रों वालाएक बड़ा प्रजातंत्र हो तो कौन-सी बुरी बात है?

सोहनलाल: अच्छा तो यही होता कि सारे हिन्दुस्तान का एक ही प्रजातंत्र होता?

भैया: अच्छा तो होता जो हिन्दुस्तान के लेग एक ही बोली बोलते होतेलेकिन वह तो अब हमारे हाथ में नहीं है। क्या सारे हिन्दुस्तान का तुम एक सूबा बनाना चाहते हो?

सोहनलाल: नहीं सूबा तो हम अलग-अलग चाहते हैं। बंगालउड़ीसासिन्ध सबको मिटाकर एक सूबा तो बनाया नहीं जा सकता।

भैया: अंगरेजी राज में जो आज सूबा है और 12 लाख सालाना खरच पर वहाँ लाट साहब लाके बैठाये जाते हैंवही तब प्रजातंत्र कहा जायगाजिसका राजकाज पंचायत के हाथ में होगाअनेक सूबा को तो तुम मानते ही होउसका मतलब ही है कि अनेक प्रजातंत्र हिन्दुस्तान में रहेंगे और हिन्दुस्तान प्रजातंत्रों का संघ रहेगा। अब झगड़ा यही है  कि 14 प्रजातंत्र रहे या सौ ? मैं कहता हूँ कि उतने ही प्रजातंत्र हों जितनी भाखा लोग बोलते हों और अपने-अपने प्रजातंत्र में पढ़ाई-लिखाईकचहरी-पंचायत का सब कारबार अपनी भाखा में हो लेकिन सौ प्रजातंत्र होने का मतलब यह तो नहीं है कि अब वह एक-दूसरे से कोई वास्ता नही रखेंगेऔर कछुए की तरह मूँड़ी समेटकर अपनी खोपड़ी में घुस जाएँगे। हमारे महाप्रजातंत्र के ये भी प्रजातंत्र हाथ-पैरनाक-कान की तरह अंग होंगे। सबमें एक  खून बहेगा। सब एक-दूसरे की मदद करेंगे। उस बखत रेल की लाइनें आज से भी ज्यादा बढ़ जायेंगीपक्की सड़कें गाँव-गाँव में पहुँच जायँगी। हर प्रजातंत्र में हवाई जहाज के अड्डे होंगे। लोगों की जेब में पैसा रहेगासाल में महीने डेढ़ महीने की सबको छुट्टी मिलेगी। तो बताओ लोग कूएँ के मेढक बनकर बैठे रहेंगे या अपने महादेस में घूमने-फिरने जायेंगे?

दुखराम: घूमने-फिरने जायँगे भैयादेस परदेस देखने का किसका मन नहीं कहतानातेदारों-रिस्तेदारों से मिलने की किसकी तबियत हीं होती।

भैया: जनम-भाखा को कबूल करने से हिन्दी को नुकसान होगा यह ख्याल गलत है सोहन भाईउस बखत बनारस वाले कानपुर वालों से बहुत नगीच रहेंगे, टेलीफून भी नगीच कर देगाहवाई जहाज भी और जेब का पैसा भी। हिन्दी सीखना लोग बहुत पसन्द करेंगे, क्योंकि सारे देस की साझे की भाखा वही है,  फिर हिन्दी में पोथियाँ सबसे अधिक निकलेगी। आज-कल देखते हैं  हिन्दी के सिनेमा-फिल्म जितने निकलते हैंउतने बँगलामराठीतमिलतेलगू सारी भाखाओं के मिल के भी नहीं निकलते। हिन्दी भाखा की किताबों की भी वही हालत होगीउसके पढ़नेवाले देश भर में मिलेंगे। मुझे उमेद हैकि जैसे चौपटाध्याय फिल्म हिन्दी में निकल रहे हैंवह किताबें वैसी नहीं होंगी।

सोहनलाल: चौपटाध्याय फिल्म क्या कह रहे हो भैयाजो चौपटाध्याय होते तो इतने लोग देखने क्यों जाते और फिल्म वालों को लाखों रुपये का नफा कैसे मिलता?

भैया: देखनेवाले तो इसलिए जाते है कि दूसरा अच्छा फिल्म है कहाँदूसरे नाच-गाना और सुन्दर मुँह के देखने की आदत लोगों की पहिले ही से हैबस वह समझते हैं कि चलो दो आना में तवायफ का नाच ही देख आएँलेकिन सिरिफ सुन्दर मुँह और सुरीले कंठ तक में ही फिल्म को खतम कर देना अच्छी बात नहीं है सोहन भाई। उसमें बात-चीतहाव-भाव और तसवीरों से दुनिया का असली रूप दिखलाना होता हैसाथ ही साथ लोगों को रस्ता भी दिखलाना होता है। लेकिन रस्ता दिखलाने की बात छोड़ दोकाहेसे कि जोंकों के राज में वह अनहोनी बात है। लेकिन हिन्दी फिल्मों में सब चीजों में बेपरवाही देखी जाती है। फिल्म बनानेवाले तो जानते हैं कि उनके पास रुपया चला ही आयेगाफिर क्यों परवाह करें?

सोहनलाल: हिन्दी फिल्मों मे आपको क्या दोस मालूम होता है भैया?

भैया: पहिले गुन बताता हूँ तब दोस बताऊँगा। गुन तो यह है कि हमारे फिल्म के खिलाड़ी (अभिनेता ) और खिलाड़िनें (अभिनेत्रियाँअपना करतब दिखलाने में दुनिया के किसी भी खेलाड़ी-खेलाड़िनी से कम नहीं हैं। और अच्छे फिल्म के लिए यह बहुत अच्छी चीज है। वह अपनी बात-चीतहाव-भाव गीत-नाच  सब में अच्छे हैंमैं सभी खेलाड़ी-खेलाड़िनों के बारे में नहीं कहता लेकिन अच्छे खेलाड़ी-खेलाड़िनों में यह सब गुन हैं। और इन्हीं गुनों का परताप है कि मदरासकालीकट और बेजवाड़ा में भी लोग अपनी भाखा के फिल्मों को छोड़कर हिन्दी फिल्मों को देखने आते हैंचाहे बेचारे फिल्म की भाखा को नहीं समझ पायें। मैं समझता हूँ कि ये हमारे खेलाड़ी-खेलाड़िनों के गुन का ही परताप है। पैसा बनानेवाले फिल्म मलिकों की चले तो सायद उसमें भी कुछ खराबी कर दें।

सोहनलाल: और दोस क्या है भैया!

भैया: भाखा तीन कौड़ी की होती है उसमें लचक कहावत और  गहराई होती है। यह क्यों होता हैबहुत से फिल्म मालिक भाखा जानते ही नहींलेकिन तो भी अपने को महाविद्वान समझते हैं। एक तो उनके भाखा लिखनेवाले भी बहुत से उन्हीं की तरह हैं और जो कोई अच्छा भी लिखता होतो अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने का अख्तियार फिल्म तैयार करनेवाले अपने हाथ में रखते हैं। समझ लो पूरी दमद-सोधन हो जाती है।

सोहनलाल: दमद-सोधन क्या है भैया?

भैया: किसी पंडित ने एक मुरुख से अपनी लड़की ब्याह दी। दामाद एक दिन ससुरार आया। छापाखाने से पहिले की बात हैउस वक्त किताबों को उतारनेवाले मामूली पढ़े-लिखे लेखक हुआ करते थे वह मजूरी लेक किताब उतार दिया करते थे। पंडित लोग किताब लेके फिर पढ़ते और जो असुद्ध होता उसपर पीला हड़ताल फेरते और जिसको ज्यादा ध्यान में रखना होता उसे गेरू से लाल कर देते। पंडित के दामाद ने पोथी, हड़ताल और गेरू को देखा। उन्होंने पोथी को हाथ में ले लिया। पंडिताइन को अपने दामाद पर बहुत गरव थाउन्होंने समझा कि दामाद भी बड़ा पंडित है और उससे कहा—“पंडित गेरू और हड़ताल से किताब को शोध रहे हैं तुम भी तो सोधते होगे बाबू!” दामाद कब पीछे रहनेवाले थे। उन्होंने कहा—“हाँ अइयामैं अच्छी तरह जानता हूँ।“ फिर जहाँ मन आया हड़ताल लगायाजहां मन या गेरू पोथी की दमद-सोधन हो गई।

सोहनलाल: तो इसमें फिल्म पैदा करनेवालों का ज्यादा दोस है या भाखा लिखनेवालों का।

भैया: फिल्म पैदा करनेवालों का बहुत बड़ा दोस हैनमें ख़ुद लियाकत नहीं है और  लायक आदमियों को चुन सकते हैं। भाखा लिखनेवालों में जो थोड़े से अच्छे भी हैंउनमें भी एक बड़ा दोस है। वह हिन्दी या उर्दू की किताबी भाखा लिखते हैं। किताब से पढ़के सीखनेवाले की भाखा में जीवट नहीं होता और सहरों मे जो थोड़े-बहुत बाबू लोग अपने घरों में हिन्दी भाखा बोलते हैंवह भी किताबी भाखा जैसी ही होती है।

सोहनलाल: तो जीवट वाली भाखा कौन बोलते हैं भैया?

भैया: मेरठमुजफ्फरनगरसहारनपुर के जिलों के गँवार।

सोहनलाल: तब तो  फिल्म की भाखा सीखने लिए इन गँवारों के पास जाना पड़ेगा?

भैया: उनके चरन में जाकर बैठना पड़ेगा। हिन्दी भाखा को किताब वालों ने नहीं पैदा कियाबल्कि इन्हीं गँवारों ने पैदा किया। हिन्दी पढ़नेवालों ने सैकड़ों बरस पहले उन गँवारों से भाखा तो ले लीलेकि भाखा में जीवट आने के मुहाविरेकहावतेंसबदों का तोड़ना-मरोड़ना और उन्हें मनमाने तौर से रखना इत्तादि बातें नहीं सीखींइसलिए हिन्दी भाखा में वह चमतकार नहीं  सका। किताब पढ़ने में तो किसी तरह आदमी बरदास भी कर लेगा लेकिन नाटक की बातचीत में इससे काम नहीं चल सकता।

सोहनलाल: तो भैयातुमने कोई फिल्म ऐसा नहीं पायाजिसमे कुछ जीवट वाली भाखा दिखाई दे।

भैया: मैंने सिर्फ एक फिल्म ऐसा देखा है जिसकी भाखा मुझे पसंद आईवह था –“जमीन।” मैं समझता हूँ जब तक फिल्म पैदा करनेवाले अपने को सब कुछ जाननेवाला मानना नहीं छोड़ेंगे और जब तक भाखा लिखनेवाले मेरठ के उन गँवारों के चरनों में नहीं बैठेंगेतब तक यह दोस नहीं जायेगा।

सोहनलाल: और दूसरे दोस क्या हैं भैया?

भैया: दूसरे दोस फिल्म पैदा करनेवालों को है चाहे उन्हें उनका अंधापन कह लो चाहेचाहे कम दाम ज्यादा नफा” का ख्याल समझ लोचाहे फिल्म मालिकों का अपने घर के पास ही फिल्म बनाने का हठ समझ लो। हिन्दी के फिल्म बम्बई या कलकत्ता में ही तैयार किये जाते हैं। वहीं के आस-पास के गाँवोपहाड़ोंनदियों का फोटो खींचा जाता है। वहाँ  हिन्दी बोलने वाले  गाँव हैं  हिन्दी वालों के रीति-रवाज कपड़े-लत्ते। इसका फल यह होता है कि सब चीजें नावटी दीख पड़ती हैं। बहुत-सी चीजों को तो वह आने नहीं देते। जमीन” की तसवीरों में भी यह दोस मौजूद है। यह दोस बँगलामरहठी या तमिल फिल्मों में नहीं पाया जाताकाहेसे कि नमें उन्हीं गाँवोंनदियोंपहाड़ों और लोगों की तसवीरें ली जाती हैंजो उस भाखा को बोलते हैं। हिन्दी-फिल्मों का यह दोस तब तक दूर नहीं होगाजब तक देहरादून,  कालसी जैसी जगहों में फिल्म वाले अपने डंडा-कुंडा उठाके नहीं  जाते।

सोहनलाल: और कौन दोस है भैया?

भैया: हिन्दी फिल्मों की सारी तसवीरें दो-एक मील के छोटे से घेरे में घूमती रहती हैंवह विसाल नहीं होतीं। नदियोंपहाड़ोंखेतोंगाँवों का जो विसाल रूप हमें मिलना चाहिए उसे हम नहीं पाते। क्या जाने यह पैसा बचाने के ख्याल से होता होगा।

सोहनलाल: और कोई दोस है भैया?

भैया: हस्तिनापुर के पास गंगा का विसाल कछार हैवहाँ सैकैड़ों गाएँ-भैंसे चरती हैंचरवाहे मस्त होकर गाना गाते हैंगंगा में मलाह नाव खेता है और अपनी तान में सारी मेहनत भूल जाता है। धोबीकुम्हार सबके अपने-अपने गीतअपने-अपने बाजेचित्र विचित्र नाच हैं। सहरों में भी औरतों के ब्याह और दूसरे वक्त के अपनी खास-खास नाच और नाटक हैं। इस तरह की सैकड़ों चीजें हैंजिनका बम्बई और कलकत्ता के फिल्मों में कहीं पता नहीं है।

सोहनलाल: और कोई दोस है भैया?

भैया: मैं अब एक ही दोस और कहूँगा। हिन्दी भाखा हिमालय की गोद में बोली जाती है। दुनिया के फिल्म वाले हिमालय के सुन्दर पहाड़ोंनदियोंझरनोंदेवदार वनों और बरफीली चोटियों को पा के निहाल हो जातेलेकिन हिन्दी फिल्म वालों के लिए वह कोई चीज नहीं। जापान के राज्य की राजधानी तोकियो हैलेकिन फिल्मों की राजधानी क्योतो हैकाहेसे कि क्योतो को थोड़ा-सा हिमालय का रूप मिला है। लेकिन हमारे आज के फिल्मवालों को इसका कभी ख्याल आयेगाइसमें सक है।

सोहनलाल: तो भैयाजो फिल्म बनानेवाले मेरठ कमिसनरी के हिमालय वाले टुकड़े में  जायँतो उनके बहुत से दोस हट जायँगे?

भैया: यह मैं मानता हूँलेकिन यह भी समझता हूँकि सेठ अपना घर छोड़ तपोबन में थोड़े जाना चाहेंगेवह पचास तरह का बहाना कर सकते हैं। और सबसे बड़ी बात यह हैकि नफा तो उन्हें खूब हो ही रहा है और थोड़े ही खर्च में। लेकिन हम फिल्म की बात करते-करते बहुत दूर चले गये सोहन भाईमैं कह रहा था हिन्दी भाखा के बारे में

सोहनलाल: हाँतो तुम समझते हो कि अपनी-अपनी भाखा को पढ़ाई की भाखा मान लेने पर हिन्दी को नुकसान नहीं होगालेकिन भैयादुनिया को हमें और एक दूसरे के नगीच लाना है। मरकस बाबा तो सारी मानुख जाति को एक बिरादरी देखना चाहते थेफिर किसी संजोग से जो हिन्दी के नाते हिन्दुस्तान के आधे लोग एक भाखा से बँध गये हैंउनको फिर तोड़-फोड़ के अलग करनायह तो पैर पकड़ के पीछे खींचना है।

भैया: पैर पकड़कर पीछे खींचना नहीं है सोहन भाईयह हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाना है। नम-भाखा से पढ़ाई करने पर दस बरस के भीतर ही हमारे यहाँ को अपढ़ नहीं रह जायगा। और एक-दूसरी जगह जानेआपस में मिलने से हिन्दी भाखा सभी लोग थोड़ा-बहुत बोल लेंगे। और समझने में तो किसी को मुसकिल नहीं होगाकाहेसे कि इन सब भाखाओ में बहुत से सबद एक ही से हैं। कविताकहानीउपन्यास का ढंग भी एक-सा ही रहेगा। हिन्दी पोथियों की उतनी ही ज्यादा माँग होगीजितनी ही अधिक इन भाखाओं के पढ़ने-लिखने वाले बढ़ेंगे। कमी इतनी होगीकि आज जो हमारे कितने ही भाई यह समझते हैंकि अवधीब्रजमालवीबनारसीमैथिली इत्तादि भाखायें कुछ दिनों में मर जायेंगीउनको जरूर निरास होना पड़ेगा। निरास वैसे भी होना पड़ेगाक्योंकि जो जनम-भाखाओं को किताब की भाखा  भी बनाया जायतो भी सौ-पचास सालो में उन भाखाओं के मरते देखने की खुसी हमारे भाइयों को नहीं मिलेगी। अभी उन्हें मरना भी नहीं चाहिएक्योंकि उन्होंने अपने भीतर अपनी जाति की भाखासमाज,  विचारविकास ओगरह के इतिहास की बहुत सी अनमोल सामिगरी रखी है। मैं जानता हूँ जो दुनिया से जोंके उठ जायँगीतो मानुख जाति जरूर एक होगी और फिर सबकी एक साझी भाखा भी होगी। हो सकता है कि एक साझी और एक अपनी जनम-भाखा दो भाखाओं का रहना मुसकिल हो जाय। लेकिन वह अभी सैकड़ों बरसों की बात है। उस बखत तक हरेक भाखा के भीतर जितने रतन छिपे हुए हैंसब जमा करके अच्छी तरह रख लिए गये रहेंगे। इसलिए किसी भाखा के नास होने से उतना नुकसान नहीं होगा।

सोहनलाल: लेकिन भैयायह बोलियाँ अभी ऐसी नहीं हैं कि इनमें साइन्स-विग्यान पर किताबें लिखीं जायँ। हिन्दी ने बड़ी मुसकिल से यह कर पाया है।

भैया: जो मान लें कि बनारसी बोली में साइन्स की किताब नहीं लिखी जा सकतीतो कितने ही दिनों तक हिन्दी में किताबें पढ़ेंगेजब तक कि हिन्दी बोली नाबालिग से बालिग  हो जायगी। हिन्दी जैसी किसी भाखा की किताब पढ़ना और उसमें लिखना-बोलना दोनों में बहुत फरक है । समझ लेना बहुत सहज है। अपनी बोली के पढ़ाने का मतलब यह नहीं हैकि हिन्दी को लोग छुयेंगे नहीं। दूसरी बात यह है कि बनारसीमालवी किसी भी भाखा में साइन्सइन्जीरिंग की किताबों के लिखने में उतनी ही दिक्कत होगी,  जितनी हिन्दी में। आखिर हिन्दी ने भी साइन्स के सबदों को संसकीरत से लिया हैबँगलागुजराती , मराठी भी संसकीरत से ही सबदों को लेती हैं फिर बनारसीमैथिलीब्रिजमालवी ने क्या कसूर किया है?

सोहनलाल: हिन्दी-उर्दू के बारे में तुम्हारी क्या राय है भैया?

भैया: मेरी राय क्या पूछ रहे होमैंने तो पहिले ही कह दिया है कि जिसकी जो जनम-भाखा हो उसको उसी भाखा में पढ़ाना चाहिए। बनारस में बहुत से बंगाली भी रहते हैंउन्हें बँगला में पढ़ाना होगा। मराठे भी हैंउनको मराठी में पढ़ाना होगा। हाँकोई दो भाखा बोलनेवाला हो तो वह चाहे जिस पाठसाला में जाय। इसी तरह बनारस में जिस लड़के की जनम-भाखा हिन्दी हैउसके लिए हिन्दी की पाठसाला काय करनी होगीजिसकी जनम भाखा उर्दू है उसके लिए उर्दू का मदरसा कायम करना होगा।

सोहनलाल: तो भैयातुम हिन्दी-उर्दू को मिलाके एक भाखा नहीं करना चाहते।

भैया: मिलाना हमारे बस की बात नहीं हैदस पाँच आदमी बैठकर भाखा नहीं गढ़ा करते। हिन्दी-उर्दू के बनने में सैकड़ों बरस  जाने कितनी पीढ़ियों ने काम किया है। मैं मानता हूँ कि हिन्दी और उर्दू भाखा मूल में एक ही भाखा है। कामेंपरसेइसउसजिसतिसनातागा” दोनों ही में एकसे हैंखाली झगड़ा है उधार लिए सबदों का। हिन्दी ने संसकरित से सबदों को उधार लिया है  और उर्दू ने अरबी और कुछ-कुछ पारसी से भीलेकिन दोनों ने इतना अधिक उधार लिया हैकि अकबाल की कविता को समझनेवाला सुमित्रानन्दन पन्त की कविता को बिलकुल नहीं समझ सकता और सुमित्रानन्दन पन्त की कविता जाननेवाला अकबाल को बिलकुल नहीं समझ सकता। इसलिए मूल में दोनों एक हैंकहने से काम नहीं चलेगा। अकबाल और पन्त दोनों के समझने के लिए दोनों भाखाओं को अच्छी तरह पढ़ना होगा।

सोहनलाल: तो हिन्दू-मुसल्मानों की भाखाओं के मिलने का कोई रस्ता है?

भैया: चोटियों पर तो नहीं मालूम होतालेकिन जड़ में उसका झगड़ा ही नहीं है,

सोहनलाल: जड़ क्या है भैया?

भैया: जड़ यही है किजिसे जनम-भाखा कहते हैंअवधी बोलनेवाले गाँव में चले जाइयेवहाँ चाहे बाभन देवता हो चाहेमोमिन जोलाहादोनों एक ही बोली बोलते हैं। बनारसछपरागुड़गाँवाथानाभवन के पास किसी गाँव में चले जाइयेकिसानों-मजूरों की भाखा एक हैचाहे वह हिन्दू हो या मुसल्मान।

दुखराम: वही जोंकों से जिनका बेसी रिसता-नाता नहीं है।

भैया: देखा  सोहन भाईजड़ में अपनी एक भाखा तैयार हैहिन्दू-मुसल्मान दोनों कमेरे उसी भाखा को बोलते हैं और फिर उनका  संसकीरत के साथ पच्छपात है  अरबी फारसी के साथ। यही दुक्खू भाई ने जो अभी कहा, “बेसी रिसता-नाता” इसमें बेसी और रिसता पारसी भाखा से आया है और नाता अरबी भाखा से। रिसता-नाता कहने से बिलकुल निपढ़गँवार बुढ़िया भी समझ लेगीलेकिन सम्बन्ध” कहने से उतना नहीं समझ पायेगी। हमने भी अपने इतने दिनों के सत्संग में पाँच- सौ अरबी-फारसी सबदों को लिया है, और हिन्दी में उनकी जगह अब सिरिफ संसकीरत के सबद ही लिखे जाते हैं। मै समझता हूँ कि कोई अदमी समरकन्द बुखारा से सात पीढ़ी पहिले आया होलेकिन अब उसकी भेख-भाखा सब हिन्दुस्तान की हैतो वह हिन्दुस्तानी है। वह अपने पुरखा के सहर समरकन्द-बुखारा में जायगातो वहाँ भी उसे लोग हिन्दुस्तानी कहेंगे आजकल समरकन्दबुखाराउजबेकिस्तान सोवियत प्रजातन्त्र के अच्छे सहर हैं। उसी तरह जिन अरबीपारसी सबदों को निपढ़ गँवारों ने अपना लिया है और उसको वह अपने ढंग से तोड़-मरोड़ के बोलते हैंवे सबद अब बिदेसी नहींसुदेसी हैं। जिन संसकीरत सबदों को हमारे गँवार” छोड़ चुके हैंउनको फिर से लादना भी ठीक नहीं।

सोहनलाल: लेकिन भैयाइन गँवारों ने तो हजार बारह सौ संसकीरत के सबदों को निकाल कर अरबी के सबद लिए है। हमेसा’, ‘दिक्कत’, ‘मुसकिल’, ‘मवस्सर’, ‘अरज’, ‘गरज’, ‘लेकिन’, ‘बेसी’, ‘अमहक’ ( अहमक ), ‘इफरात’, ‘जमीन’, ‘हवा’, ‘तुफान’, ‘सहर’, ‘नौबत’, ‘जुलुम’, ‘परेसानी’, ‘मेहरबानी’, ‘वगैरह’  सबदों को उन्होंने लेकर संसकीरत के सबदों को छोड़ दिया है। जो संसकीरत के सबद रखे हैंउनके बोलने में भी लाठी से पीट के ठीक-ठाक कर डालते हैं। और आप इसी भाखा को अपनाने को कहते हैं?

भैया: दोनों बातों को एक में  मिलाओ सोहन भाईजहाँ तक जनम-भाखा की बात, है उसके लिए  रामसरूप पंडित की बात मानी जायगी  कुतुबुद्दीन मोलबी कीउसके लिए तो धनिया भौजीगाँव की बेपढ़ अहिरिन को ही परमान माना जायगा। दोनों सबदों को उसके सामने रखा जायगाजो अरबी वाले सबद को वह समझेगी तो उसे ले लिया जायगासंसकीरत वाले को समझेगी तो उसको। बोलने में कठिन सबदों की धनिया भौजी कपाल-कीरिया करे हीगीऔर उसकी कपाल किरिया को भी मानना पड़ेगा। हिन्दी-उर्दू को मिलाने का काम भी यही जनम-भाखायें करेंगीक्योंकि जनम-भाखाओं में हिन्दू-मुसल्मान का झगड़ा नहीं है। जड़ वालों का रस्ता साफ हैचोटी वालों का झगड़ा है। उनमें जो अपनी जनम-भाखा उरदू मानता हैवह उरदू में लिखे-पढ़ेगा जो हिन्दी मानता है वह हिन्दी में। मेरठ कमिसनरी के साढ़े तीन जिले में भी कौन भाखा माननी चाहिए। इसका फैसला वहाँ कोई जाट की धनिया भाभी के हाथ में होगा।

सोहनलाल: और जो हिन्दुस्तान के संघ की भाखा हिन्दी होगीउसमें हिन्दी-उर्दू का झगड़ा कैसे मिटेगा ?

भैया: पहिले तो हिन्दी के अपने साढ़े तीन जनम जिलों की भाखा के मुताबिक उसको मानना पड़ेगा। जिसके कारन बहुत से संसकीरत के सबद छूट जायँगेऔर बहुत से अरबी फारसी के भी। फिर यह प्रजातन्त्रों के ऊपर छोड़ दिया जायगा कि वह कौन भाखा पसन्द करेंगे। जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दो तरह के प्रजातंत्र हमारे देस में बनेंगेतो हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ में हिन्दी संघ भाखा होगी और पाकिस्तान में उरदू। मैं यह भी जानता हूँ कि आज की उरदू को जो बंगाल वाले पाकिस्तान पर लादा जायगातो बहुत मुसकिल होगी।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. लगा जैसे घर-दुआर में बैठकर गप-शप सुन रहे हैं।

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  2. अफसोस,कि भाषा अब हमारे लिए केवल राजनीति का विषय है। इसके प्रति असंवेदनशील रवैया हमारी संस्कृति पर भी चोट करेगा।

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  3. भाषा संस्कारों का वाहिका के रूप में कम और राजनीतिक मुद्दे के रूप महत्व पा गई. अफसोस होता है.

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