यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किताब 1945-46 के आस-पास की है, तो जाहिर है, किताब पर उस समय का असर कई जगह दिखता है। बँगला और उर्दू को लेकर बंग्लादेश में चले लफड़े का पूर्वानुमान भी राहुल जी ने लगाया था, इसका अन्दाजा इस अध्याय के आखिरी वाक्य से लगता है, जो इंदिरा गाँधी के समय सच भी साबित हो गया।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है इस अध्याय को पूरी तरह टंकित भी मैंने नहीं किया है। इसे ओसीआर साफ्टवेयर की सहायता से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
राहुल जी ने इस किताब में अपना नाम ‘राहुल सांकिर्ताएन’ लिखा है। इसे अलग-अलग टुकड़ो में देना उचित नहीं लगा, इसलिए पूरे अध्याय को एक ही बार में यहाँ रखा जा रहा है। थोड़ा अधिक समय लगेगा पढने में। इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
अध्याय 17
ग्यान और भाखा
सोहनलाल: दुक्खू मामा! अभी तक हमने भैया से बहुत सँभल-सँभल के सवाल पूछा है, अब एकाध अपने मन का भी सवाल पूछ लेने दो।
दुखराम: पूछो भैने! हम भी सुनेंगे, लेकिन दो चार आना हम भी समझें ऐसा पूछना।
सोहनलाल: नहीं समझ पाओगे दुक्खूमामा! तो दो ही चार आना भर, नही तो सभी समझोगे। अच्छा तो भैया! जोकें जो कहती हैं, कि जितना ग्यान-विग्यान दुनिया में है, वह सब हमने ही पैदा किया है, हम न रहेंगे तो दिया बुझ जायगा।
भैया: हम कब कहते हैं जोंको ने कभी अच्छा काम किया ही नहीं । लेकिन जो दिया बुझ जाने की बात कहते हैं, वह गलत है। हम दिया बुझने नहीं देंगे। हमारे कमेरों के राज में ग्यान-विग्यान बहुत चमकेगा। वहाँ ग्यान के विना कुछ हो भी नहीं सकता। जोंको के राज में आज अपढ़-अबूझ हलवाहे से भी काम चल सकता है लेकिन हमारे लिए तो मोटर-हल चलानेवाले हलवाहे चाहिए। राज सँभालते ही पहला काम हमें यह करना पड़ेगा कि देसभर में कोई बेपढ़ नहीं रहे।
दुखराम: लेकिन भैया! कितने लोगो में तो जेहन ही नहीं होती, वह कैसे पढ़ेंगे ?
भैया: जोंकों की जैसी पढ़ाई होगी, तब तो सबको पढ़ नहीं बना सकते। जोंकें बिद्दा पढ़ाने के लिए भाखा पढ़ाती हैं, अपनी भाखा पढ़ावे तो कोई उतनी मेहनत नहीं लेकिन वह पढ़ाती हैं अंगरेजी, फारसी, अरबी, संसकीरत। जो हम देस भर को अंगरेजी पढ़ा देने की परतिग्या करेंगे तो वह सात जनम का काम है दुक्खू भाई! हम तो बल्कि भाखा पढ़ायेंगे ही नहीं। क्या कोई आदमी गूँगा है कि भाखा पढ़ायें। लोग कथा-कहानी कहते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, देस-बिदेस की बात बतलाते हैं, सब अपनी ही भाखा में कहते हैं न? बस हम पहले तो यही कहेंगे कि दो-तीन दिन में अच्छर सिखला देंगे। अड़तालिस अच्छर तो कुल हई हैं। दो-तीन नहीं तो पाँच-छः दिन लग जायेंगे, फिर आदमी जो भाखा बोलता है, उसी में छपी किताब हाथ में थमा देंगे।
दुखराम: ऐसा हो भैया! तब पढ़ना काहे का मुस्किल हो।
भैया: ढोला-मारु, सारंगा-सदाव्रिच्छ, लोरिकी, सोरठी, नैका, कुँअरि विजयमल, बेहुला के कितने सुन्दर-सुन्दर खिस्से और गाने हैं। इन्हीं को छाप के दे दिया जाय, तब कहो दुक्खू भाई!
दुखराम: तो बूढ़े सुग्गे भी राम-राम करने लगेंगे क्या किसी को पढ़ने में परिस्त्रम मालूम होगा।
भैया: बिद्दा अलग चीज है दुक्खू भाई! भाखा अलग चीज है। लेकिन जोंकें हमको सिखलाती हैं कि भाखा पढ़ लेना ही ग्यान है। यह ठीक है कि ग्यान सिखाते बखत उसे किसी भाखा में बोला जाता है। लेकिन अँगरेजी में काहे बोला जाय, अरबी-संसकीरत में काहे बोला जाय, उसे अपनी बोली में काहे न बोला जाय।
सोहनलाल: लेकिन बोली तो पांच कोस पर बदल जाती है। ऐसा करने से तो हजारों भाखा बन जायेगी, और कौन-कौन में किताब छापते फिरेंगे?
भैया: पाँच को स नहीं जो 5 अंगुल पर ही भाखा बदल जाय, तो भी हमको उसी में किताब छापनी पड़ेगी। तभी हम दस बरिस के भीतर अपने यहाँ किसी को बेपढ़ नहीं रहने देंगे।
सोहनलाल: लेकिन हिन्दी भी तो अपनी भाखा है।
भैया: जिसकी अपनी भाखा हो, उसे हिन्दी ही में पढ़ाना चाहिए, तुम्हारे बनारस में सब लोग घर में हिन्दी ही बोलते हैं?
सोहनलाल: किताब वाली भाखा तो नहीं बोलते भैया! बोलते तो हैं वही बोली जो बनारस जिला के गाँव में बोली जाती है।
भैया: जो क ख अच्छी तरह सिखा दिया जाय तो अपनी बोली में आदमी कितने दिनो में सुद्ध-सुद्ध लिखने लगेगा?
सोहनलाल: अपनी बोली को तो भैया! असुद्ध कोई बोल ही नहीं सकता। अच्छर में चाहे भले ही एकाध गलती हो जाय, लेकिन व्याकरन की गलती कभी नहीं होगी।
भैया: और हिन्दी कितना दिन पढ़ने पर व्याकरन की गलती नहीं करेगा।
सोहनलाल: कोई-कोई आदमी तो भैया जिन्दगी भर पढ़ने पर भी न सुद्ध बोल सकते हैं न लिख सकते हैं।
भैया : लेकि न अपनी बोली को तो आदमी चाहे भी तो असुद्ध नहीं बोल सकता, यह तो मानते ही हो। अच्छा जिनगी भर हिन्दी न बोलनेवालों की बात छोड़ो। मामूली तौर से सुद्ध हिन्दी लिखने-बोलने में कितना समय लगेगा। हमारे गाँव के एक लड़के को ले लो, जिसकी भाखा हिन्दी नहीं बल्कि भोजपुरी या बनारसी है।
सन्तोखी: मैं कहूँ भैया! हमारे यहाँ लड़के आठ बरस पढ़ के हिन्दी मिडिल पास करते हैं, लेकिन तो भी न सुद्ध हिन्दी बोल सकते हैं, न लिख सकते हैं।
भैया: सोहन भाई! तुम इन्ट्रेन्स पास वालों की बात कहो।
सोहनलाल: जब पूछते ही हो, तो मैं बतलाता हूँ कि कितने तो बी0 ए0 पास कर के भी सुद्ध हिन्दी लिख-बोल नहीं सकते।
भैया: न मैं आठ साल पढ़े मिडिल वाले को लेता हूँ न बी0 ए0 की चौदह साल की पढ़ाई। मैं इतना समझता हूँ कि आदमी की जेहन बहुत खराब न हो और भाखा ही भाखा पढ़ता रहे तो पाँच बरस तो जरूर ही लगेंगे। लेकिन हिसाब और दूसरी चीज साथ ही साथ पढ़नी हो, तब काम नहीं बनेगा। हमारे मदरसों में जो हिसाब, जुगराफिया सब कुछ अपनी ही भाखा में पढ़ना हो, तो पाँच बरस क्या भाखा सीखने में एक दिन भी नहीं देना होगा। ग्यान है हिसाब, जुगराफिया, इतिहास, खेती की बिद्दा, इंजन की बिद्दा, सड़क, पुल मकान बनाने की बिद्दा और पचीसो तरह की बिद्दा। ग्यान पढ़ाने के लिए जब हम यह सरत रख देते हैं कि जब तक तुम पराई भाखा न पढ़ोगे, तब तक ग्यान में हाथ नहीं लगा सकते, तब वह बहुत मुस्किल हो जाता है।
सन्तोखी: हम लोगों की भाखा को तो भैया! लोग गँवारू कहते हैं।
भैया: “आइल-गइल”, “आयन गयन”, “आयो-गयो”, “एल-गेल” बोलने से तो गँवारु भाखा हो गई, और “आये-गये” कहने से वह अच्छी भाखा होगी। और “कम् वेन्ट” कहने से वह बहुत अच्छी भाखा हो गई। काहेसे वह साहेब लोगों की भाखा है। साहेब लोगों का डंडा सिर पर है, उनका राज है, इसलिए अँगरेजी बोली बहुत अच्छी भाखा है, वह देवताओं की भाखा से भी बढ़कर है, लेकिन जब साहब लोगों का राज न रहे, और गँवार यही किसान-मजूर अपना पंचायती-राज काय म कर लें, तो क्या तब भी उनकी भाखा गँवारू रहेगी? यह तो “जिसकी लाठी उसकी भेंस” वाली बात हुई। गँवारू कह देने से काम नहीं चलेगा। जिस बखत इसी गँवारु भाखा में इसकूल, काल ेज सब जगह चौदह बरस तक पढ़ी जानेवाली बिद्दा पढ़ाई जायगी उसी में हजारों किताबें छपेंगी। उपन्यास, कविता, कहानी सब कुछ गँवारू भाखा में मिलने लगेगा। रोजाना, हफ्तावार, माहवारी, अखबार निकलने लगेंगे, तब इस भाखा को कोई गँवारू नहीं कहेगा।
दुखराम: क्या ऐसा होगा भैया?
भैया: जो तुम लोग हमेसा गँवार बने रहना चाहोगे, तो नहीं होगा; जो तुम हमेसा गुलाम बने रहोगे, तो भी नहीं होगा; जो हिन्दुस्तान के आधे आदमियों को बेपढ़ बनाये रखना है, तो नहीं होगा; नहीं तो इसमें अनहोनी कौन-सी बात है? बल्कि अपनी बोली पकड़ने से तो छः बरस का रस्ता एक दिन में पूरा हो जाता है।
सोहनलाल: लेकिन अपनी-अपनी बोली पढ़ाई जाने लगी, तो दरभंगा, बनारस, मेरठ और उज्जैन के आदमी एक जगह होने पर कौन-सी भासा बोलेंगे?
भैया: आज भी गौहाटी, ढाका, कटक, पूना, सूरत, पेसावर के आदमी एकट्ठा होने पर क्या बोलते हैं।
सोहनलाल: हिन्दी बोलते हैं, टूटी-फूटी हिन्दी से काम चला लेते हैं।
भैया: लेकिन इकट्ठा होने का ख्याल करके उनसे यह नहीं न कहा जाता कि तुम असामी, बँगला, उड़िया, मराठी, गुजराती, पस्तो छोड़ के हिन्दी-सिरिफ हिन्दी पढ़ो, नहीं तो कभी जो इकट्ठे होओगे तो बात करने में मुस्किल पड़ेगा। जैसे उन लोगों को अपनी भाखा में सब कुछ पढ़ाया जाता है, उसी तरह दरभंगा वालों को मैथिली, भागलपुर वालों को भगलपुरिया ( अंगिका ), गया वालों को मगही, छपरा वालों को छपरही ( मल्ली ), लखनऊ वालों को अवधी, बरैली वालों को बरैलवी ( पंचाली ), गढ़वाल वालों को गढ़वाली, मेरठ वालों को मेरठी ( खड़ी बोली या कौरवी ), रोहतक वालों को हरियानवी ( यौधेयी ), जोधपुर वालों को मारवाड़ी, मथुरा वालों को ब्रजभाखा, झाँसी वालों को बुन्देलखंडी, उज्जैन वालों को मालवी, उदयपुर वालों को मेवाड़ी, झालावाड़ वालों को बागड़ी, खँड़ुआ वालों को नीमाड़ी, छतीसगढ़ वालों को छतीसगढ़ी सबको अपनी-अपनी भाखा में पढ़ाया जाय।
सोहनलाल: पढ़ाने में तो सुभी ता होगा भैया! हर आदमी का पाँच-पाँच साल बच जायेगा और डर के मारे जो बीच ही में पढ़ाई छोड़ बैठते हैं, वह भी बात नहीं होगी लेकिन हिन्दी भाखावालों का एका टूट जायगा।
भैया: एका टूटने की बात तो इस बखत नहीं कह सकते हो सोहन भाई! इस बखत तो एका सिर्फ दिमाग में है। मध्य प्रान्त अलग है, युक्त प्रांत और बिहार भी अलग है, हरियाना भी पंजाब में है ओर रियासतों ने छप्पन टुकड़े कर डाले हैं, इसे आप देखते ही हैं।
सोहनलाल: लेकिन हम तो चाहते हैं कि सबको मिलाकर हिन्द का एक बड़ा सूबा बना दिया जाय।
भैया: सूबा नहीं , पंचायती राज , प्रजातंत्र। सूबा क्या हम हमेसा विदेसी जोंकों के गुलाम बने रहेंगे? और अपना राज होने पर किसी सुरुजबंसी को दिल्ली के तख्त पर बैठायेंगे? हमारा पंचायती राज रहेगा, जो एक नहीं बहुत से पंचायती-राजों का संघ होगा। जो लोग चाहेंगे तो दरभंगा से बीकाने र, और गंगोत्तरी से खँडवा तक का एक बड़ा प्रजातंत्र-संघ काय म कर लेंगे जिसके भीतर पचीसों प्रजातंत्र रहेंगे।
सोहनलाल: तो भैया! मल्ल प्रजातंत्र की बोली मल्लिका रहेगी और मालव प्रजातंत्र की मालवी, यौधेय (अंबाला कभिश्नरी) प्रजातंत्र की हरियानवी; फिर जब वह हिन्द प्रजातंत्र संघ की बड़ी पंचायत (पार्लामेण्ट) में बैठेंगे, तो किस भाखा में बोलेंगे?
भैया: हिन्दी में बोलेंगे और किसमें बोलेंगे ? इन्हीं की बात क्यों पूछ रहे हो, मदरास, कालीकट, बेजवाड़ा, पूना, सूरत, कटक, कलकत्ता और गोहाटी के मेम्बर भी जब सारे हिन्दुस्तान के प्रजातंत्र संघ की बड़ी पंचायत में इकट्ठा होंगे, तो क्या वह अंगरेजी में लेच्चर देंगे। अंगरेज जोंको के जुवा के उतार फेंकने के साथ ही अंगरेजी भाखा का जोर हिन्दुस्तान में खतम हो जायगा तब हिन्दुस्तान में एक दूसरे के साथ बोलने-चालने और सारे देस की सरकार के काम-काज के लिये एक भाखा की जरूरत होगी, तो वह भाखा हिन्दी ही होगी!
सोहनलाल: तो भैया! हिन्दी भाखा को तो तुम उजाड़ना नहीं चाहते हो न?
भैया: हम उजाड़ेंगे कि उसे और मजबूती से बसावेंगे। सारे हिन्द प्रजातंत्र संघ की वह संघ भाखा होगी। मदरसों में जैसे अंगरेजी के साथ दूसरी भाखा पढ़ाई जाती है, वैसे ही बारह बरस की उमर से 3-4 साल तक लड़कों को हर रोज एक घंटा हिन्दी पढ़नेका काय दा बना देंगे। उस बखत हिन्दी का जोर और बढ़ेगा कि घटेगा?
सोहनलाल: आज तो हिन्दी ही हिन्दी सब कुछ है, फिर तो ब्रिज, मालवी, मैथिली न अपने घर की मालकिन बन जाऐंगी? फिरर बेचारी हिन्दी को जब कोई बुलायेगा तभी न चौखट के भीतर आयेगी।
भैया: आज-कल यह कहना तो गलत है कि हिन्दी सब कुछ है, काहेसे कि सब कुछ तो अंगरेजी है। दूसरे हिन्दी के चौखट के भी तर बैठाने की बात भी ठीक नहीं है। मेरठ कमिश्नरी के साढ़े-तीन जिले, ( मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून .5, बुलंद सहर 1/4 की भी तो जनम भाखा वही है। उसके बाद सारे हिन्दुस्तान में घर-घर मे उसकी आव भगत रहेगी।
सोहनलाल: तो लोग अपनी-अपनी भाखा का प्रजातंत्र बना लेंगे, फिर तो हिन्दुस्तान सौ टुकड़ों में बँट जायेगा।
भैया: सोवियत की आबादी हम लोगों से आधी है, 20 करोड़ ही है, लेकिन वहाँ तो 182 भाखा बोली जाती है और सबका अपना छोटा-बड़ा पंचायती-राज है। तुम चाहते हो कि पाँचों उगुँलियों को खुला नहीं रखा जाय बल्कि मिलाके सी दिया जाय, लेकिन इससे हाथ मजबूत नहीं होगा सोहन भाई! सोवियत 182 प्रजातंत्र वाला होने पर भी एक बड़ा प्रजातंत्र है। हिन्दुस्तान भी 100 प्रजातंत्रों वाला, एक बड़ा प्रजातंत्र हो तो कौन-सी बुरी बात है?
सोहनलाल: अच्छा तो यही होता कि सारे हिन्दुस्तान का एक ही प्रजातंत्र होता?
भैया: अच्छा तो होता जो हिन्दुस्तान के लेग एक ही बोली बोलते होते, लेकिन वह तो अब हमारे हाथ में नहीं है। क्या सारे हिन्दुस्तान का तुम एक सूबा बनाना चाहते हो?
सोहनलाल: नहीं सूबा तो हम अलग-अलग चाहते हैं। बंगाल, उड़ीसा, सिन्ध सबको मिटाकर एक सूबा तो बनाया नहीं जा सकता।
भैया : अंगरेजी राज में जो आज सूबा है और 12 लाख सालाना खरच पर वहाँ लाट साहब लाके बैठाये जाते हैं, वही तब प्रजातंत्र कहा जायगा, जिसका राजकाज पंचायत के हाथ में होगा, अनेक सूबा को तो तुम मानते ही हो, उसका मतलब ही है कि अनेक प्रजातंत्र हिन्दुस्तान में रहेंगे और हिन्दुस्तान प्रजातंत्रों का संघ रहेगा। अब झगड़ा यही है न कि 14 प्रजातंत्र रहे या सौ ? मैं कहता हूँ कि उतने ही प्रजातंत्र हों जितनी भाखा लोग बोलते हों और अपने-अपने प्रजातंत्र में पढ़ाई-लिखाई, कचहरी-पंचायत का सब कारबार अपनी भाखा में हो लेकिन सौ प्रजातंत्र होने का मतलब यह तो नहीं है कि अब वह एक -दूसरे से कोई वास्ता नही रखेंगे, और कछुए की तरह मूँड़ी समेटकर अपनी खोपड़ी में घुस जाएँगे। हमारे महा- प्रजातंत्र के ये सभी प्रजातंत्र हाथ-पैर, नाक -कान की तरह अंग होंगे। सबमें एक न खून बहेगा। सब एक-दूसरे की मदद करेंगे। उस बखत रेल की लाइनें आज से भी ज्यादा बढ़ जायेंगी, पक्की सड़कें गाँव-गाँव में पहुँच जायँगी। हर प्रजातंत्र में हवाई जहाज के अड्डे होंगे। लोगों की जेब में पैसा रहेगा, साल में महीने डेढ़ महीने की सबको छुट्टी मिलेगी। तो बताओ लोग कूएँ के मेढक बनकर बैठे रहेंगे या अपने महादेस में घूमने-फिरने जायेंगे?
दुखराम: घूमने -फिरने जायँगे भैया! देस परदेस देखने का किसका मन नहीं कहता, नातेदारों-रिस्तेदारों से मिलने की किसकी तबियत नहीं होती।
भैया: जनम-भाखा को कबूल कर ने से हिन्दी को नुकसान होगा यह ख्याल गलत है सोहन भाई! उस बखत बनारस वाले कान पुर वालों से बहुत नगीच रहेंगे, टेलीफून भी नगीच कर देगा, हवाई जहाज भी और जेब का पैसा भी। हिन्दी सीखना लोग बहुत पसन्द करेंगे, क्योंकि सारे देस की साझे की भाखा वही है, फिर हिन्दी में पोथियाँ सबसे अधिक निकलेगी। आज-कल देखते हैं न हिन्दी के सिनेमा-फिल्म जितने निकलते हैं, उतने बँगला, मराठी, तमिल, तेलगू सारी भाखाओं के मिल के भी नहीं निकलते। हिन्दी भाखा की किताबों की भी वही हालत होगी, उसके पढ़नेवाले देश भर में मिलेंगे। मुझे उमेद है, कि जैसे चौपटाध्याय फिल्म हिन्दी में निकल रहे हैं, वह किताबें वैसी नहीं होंगी।
सोहनलाल: चौपटाध्याय फिल्म क्या कह रहे हो भैया? जो चौपटाध्याय होते तो इतने लोग देखने क्यों जाते और फिल्म वालों को लाखों रुपये का नफा कैसे मिलता?
भैया: देखनेवाले तो इसलिए जाते है कि दूसरा अच्छा फिल्म है कहाँ? दूसरे नाच -गाना और सुन्दर मुँह के देखने की आदत लोगों की पहिले ही से है, बस वह समझते हैं कि चलो दो आना में तवायफ का नाच ही देख आएँ, लेकिन सिरिफ सुन्दर मुँह और सुरीले कंठ तक में ही फिल्म को खतम कर देना अच्छी बात नहीं है सोहन भाई। उसमें बात-चीत, हाव-भाव और तसवीरों से दुनिया का असली रूप दिखलाना होता है, साथ ही साथ लोगों को रस्ता भी दिखलाना होता है। लेकिन रस्ता दिखलाने की बात छोड़ दो, काहेसे कि जोंकों के राज में वह अनहोनी बात है। लेकिन हिन्दी फिल्मों में सब चीजों में बेपरवाही देखी जाती है। फिल्म बनानेवाले तो जानते हैं कि उनके पास रुपया चला ही आयेगा, फिर क्यों परवाह करें?
सोहनलाल: हिन्दी फिल्मों मे आपको क्या दोस मालूम होता है भैया?
भैया: पहिले गुन बताता हूँ तब दोस बताऊँगा। गुन तो यह है कि हमारे फिल्म के खिलाड़ी (अभिनेता ) और खिलाड़िनें (अभिनेत्रियाँ) अपना करतब दिखलाने में दुनिया के किसी भी खेलाड़ी-खेलाड़िनी से कम नहीं हैं। और अच्छे फिल्म के लिए यह बहुत अच्छी चीज है। वह अपनी बात-चीत, हाव-भाव गीत-नाच सब में अच्छे हैं—मैं सभी खेलाड़ी-खेलाड़िनों के बारे में नहीं कहता लेकिन अच्छे खेलाड़ी-खेलाड़िनों में यह सब गुन हैं। और इन्हीं गुनों का परताप है कि मदरास, कालीकट और बेजवाड़ा में भी लोग अपनी भाखा के फिल्मों को छोड़कर हिन्दी फिल्मों को देखने आते हैं, चाहे बेचारे फिल्म की भाखा को नहीं समझ पायें। मैं समझता हूँ कि ये हमारे खेलाड़ी-खेलाड़िनों के गुन का ही परताप है। पैसा बनानेवाले फिल्म मलिकों की चले तो सायद उसमें भी कुछ खराबी कर दें।
सोहनलाल: और दोस क्या है भैया!
भैया: भाखा तीन कौड़ी की होती है, न उसमें लचक, न कहावत और न गहराई होती है। यह क्यों होता है? बहुत से फिल्म मालिक भाखा जानते ही नहीं , लेकिन तो भी अपने को महाविद्वान समझ ते हैं। एक तो उनके भाखा लिखनेवाले भी बहुत से उन्हीं की तरह हैं और जो कोई अच्छा भी लिखता हो, तो अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने का अख्तियार फिल्म तैयार करनेवाले अपने हाथ में रखते हैं। समझ लो पूरी दमद-सोधन हो जाती है।
सोहनलाल: दमद-सोधन क्या है भैया?
भैया: किसी पंडित ने एक मुरुख से अपनी लड़की ब्याह दी। दामाद एक दिन ससुरार आया। छापाखाने से पहिले की बात है, उस वक्त किताबों को उतार नेवाले मामूली पढ़े-लिखे लेखक हुआ कर ते थे। वह मजूरी लेक र किताब उतार दिया करते थे। पंडित लोग किताब लेके फिर पढ़ते और जो असुद्ध होता उसपर पीला हड़ताल फेरते और जिसको ज्यादा ध्यान में रखना होता उसे गेरू से लाल कर देते। पंडित के दामाद ने पोथी, हड़ताल और गेरू को देखा। उन्होंने पोथी को हाथ में ले लिया। पंडिताइन को अपने दामाद पर बहुत गरव था, उन्होंने समझा कि दामाद भी बड़ा पंडित है और उससे कहा—“पंडित गेरू और हड़ताल से किताब को शोध रहे हैं तुम भी तो सोधते होगे बाबू!” दामाद कब पीछे रहनेवाले थे। उन्होंने कहा—“हाँ अइया! मैं अच्छी तरह जानता हूँ।“ फिर जहाँ मन आया हड़ताल लगाया, जहां मन आया गेरू पोथी की दमद-सोधन हो गई।
सोहनलाल: तो इसमें फिल्म पैदा करनेवालों का ज्यादा दोस है या भाखा लिखनेवालों का।
भैया : फिल्म पैदा करनेवालों का बहुत बड़ा दोस है, उनमें ख़ुद लियाकत नहीं है और न लायक आदमियों को चुन सकते हैं। भाखा लिखनेवालों में जो थोड़े से अच्छे भी हैं, उनमें भी एक बड़ा दोस है। वह हिन्दी या उर्दू की किताबी भाखा लिखते हैं। किताब से पढ़के सीखनेवाले की भाखा में जीवट नहीं होता और सहरों मे जो थोड़े-बहुत बाबू लोग अपने घरों में हिन्दी भाखा बोलते हैं, वह भी किताबी भाखा जैसी ही होती है।
सोहनलाल: तो जीवट वाली भाखा कौन बोलते हैं भैया?
भैया: मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर के जिलों के गँवार।
सोहनलाल: तब तो फिल्म की भाखा सीखने लिए इन गँवारों के पास जाना पड़ेगा?
भैया: उनके चरन में जाकर बैठना पड़ेगा। हिन्दी भाखा को किताब वालों ने नहीं पैदा किया, बल्कि इन्हीं गँवारों ने पैदा किया। हिन्दी पढ़नेवालों ने सैकड़ों बरस पहले उन गँवारों से भाखा तो ले ली, लेकि न भाखा में जीवट आने के मुहाविरे, कहावतें, सबदों का तोड़ना -मरोड़ना और उन्हें मनमाने तौर से रखना इत्तादि बातें नहीं सीखीं; इसलिए हिन्दी भाखा में वह चमतकार नहीं आ सका। किताब पढ़ने में तो किसी तरह आदमी बरदास भी कर लेगा लेकिन नाटक की बातचीत में इससे काम नहीं चल सकता।
सोहनलाल: तो भैया! तुमने कोई फिल्म ऐसा नहीं पाया, जिसमे कुछ जीवट वाली भाखा दिखाई दे।
भैया: मैंने सिर्फ एक फिल्म ऐसा देखा है जिसकी भाखा मुझे पसंद आई, वह था –“जमीन।” मैं समझता हूँ जब तक फिल्म पैदा करनेवाले अपने को सब कुछ जाननेवाला मानना नहीं छोड़ेंगे और जब तक भाखा लिखनेवाले मेरठ के उन गँवारों के चरनों में नहीं बैठेंगे, तब तक यह दोस नहीं जायेगा।
सोहनलाल: और दूसरे दोस क्या हैं भैया?
भैया : दूसरे दोस फिल्म पैदा करनेवालों को है चाहे उन्हें उनका अंधापन कह लो चाहे, चाहे “कम दाम ज्यादा नफा” का ख्याल समझ लो, चाहे फिल्म मालिकों का अपने घर के पास ही फिल्म बनाने का हठ समझ लो। हिन्दी के फिल्म बम्बई या कलकत्ता में ही तैयार किये जाते हैं। वहीं के आस-पास के गाँवो, पहाड़ों, नदियों का फोटो खींचा जाता है। वहाँ न हिन्दी बोलने वाले गाँव हैं न हिन्दी वालों के रीति-रवाज कपड़े-लत्ते। इसका फल यह होता है कि सब चीजें बनाव टी दीख पड़ती हैं। बहुत-सी चीजों को तो वह आने नहीं देते। “जमीन” की तसवीरों में भी यह दोस मौजूद है। यह दोस बँगला, मरहठी या तमिल फिल्मों में नहीं पाया जाता, काहेसे कि उनमें उन्हीं गाँवों, नदियों, पहाड़ों और लोगों की तसवीरें ली जाती हैं, जो उस भाखा को बोलते हैं। हिन्दी-फिल्मों का यह दोस तब तक दूर नहीं होगा, जब तक देहरादून, काल सी जैसी जगहों में फिल्म वाले अपने डंडा-कुंडा उठाके नहीं आ जाते।
सोहनलाल: और कौन दोस है भैया?
भैया: हिन्दी फिल्मों की सारी तसवीरें दो-एक मील के छोटे से घेरे में घूमती रहती हैं, वह विसाल नहीं होतीं। नदियों, पहाड़ों, खेतों, गाँवों का जो विसाल रूप हमें मिलना चाहिए उसे हम नहीं पाते। क्या जाने यह पैसा बचाने के ख्याल से होता होगा।
सोहनलाल: और कोई दोस है भैया?
भैया: हस्तिनापुर के पास गंगा का विसाल कछार है, वहाँ सैकैड़ों गाएँ-भैंसे चरती हैं, चरवाहे मस्त होकर गाना गाते हैं, गंगा में मलाह नाव खेता है और अपनी तान में सारी मेहनत भूल जाता है। धोबी, कुम्हार सबके अपने-अपने गीत, अपने-अपने बाजे, चित्र विचित्र नाच हैं। सहरों में भी औरतों के ब्याह और दूसरे वक्त के अपनी खास-खास नाच और नाटक हैं। इस तरह की सैकड़ों चीजें हैं, जिनका बम्बई और कलकत्ता के फिल्मों में कहीं पता नहीं है।
सोहनलाल: और कोई दोस है भैया?
भैया: मैं अब एक ही दोस और कहूँगा। हिन्दी भाखा हिमालय की गोद में बोली जाती है। दुनिया के फिल्म वाले हिमालय के सुन्दर पहाड़ों, नदियों, झरनों, देवदार वनों और बरफीली चोटियों को पा के निहाल हो जाते, लेकिन हिन्दी फिल्म वालों के लिए वह कोई चीज नहीं। जापान के राज्य की राजधानी तोकियो है, लेकिन फिल्मों की राजधानी क्योतो है, काहेसे कि क्योतो को थोड़ा-सा हिमालय का रूप मिला है। लेकिन हमारे आज के फिल्मवालों को इसका कभी ख्याल आयेगा, इसमें सक है।
सोहनलाल: तो भैया! जो फिल्म बनानेवाले मेरठ कमिसनरी के हिमालय वाले टुकड़े में आ जायँ, तो उनके बहुत से दोस हट जायँगे?
भैया: यह मैं मानता हूँ, लेकिन यह भी समझता हूँ, कि सेठ अपना घर छोड़ तपोबन में थोड़े जाना चाहेंगे, वह पचास तरह का बहाना कर सकते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है, कि नफा तो उन्हें खूब हो ही रहा है और थोड़े ही खर्च में। लेकिन हम फिल्म की बात करते-करते बहुत दूर चले गये सोहन भाई! मैं कह रहा था हिन्दी भाखा के बारे में ।
सोहनलाल: हाँ, तो तुम समझते हो कि अपनी-अपनी भाखा को पढ़ाई की भाखा मान लेने पर हिन्दी को नुकसान नहीं होगा? लेकिन भैया! दुनिया को हमें और एक दूसरे के नगीच लाना है। मरकस बाबा तो सारी मानुख जाति को एक बिरादरी देखना चाहते थे, फिर किसी संजोग से जो हिन्दी के नाते हिन्दुस्तान के आधे लोग एक भाखा से बँध गये हैं, उनको फिर तोड़-फोड़ के अलग करना , यह तो पैर पकड़ के पीछे खींचना है।
भैया: पैर पकड़ कर पीछे खींचना नहीं है सोहन भाई ! यह हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाना है। जनम -भाखा से पढ़ाई करने पर दस बरस के भी तर ही हमारे यहाँ को ई अपढ़ नहीं रह जायगा। और एक -दूसरी जगह जाने, आपस में मिलने से हिन्दी भाखा सभी लोग थोड़ा-बहुत बोल लेंगे। और समझने में तो किसी को मुसकिल नहीं होगा, काहेसे कि इन सब भाखाओ में बहुत से सबद एक ही से हैं। कविता, कहानी, उपन्यास का ढंग भी एक-सा ही रहेगा। हिन्दी पोथियों की उतनी ही ज्यादा माँग होगी, जितनी ही अधिक इन भाखाओं के पढ़ने-लिखने वाले बढ़ेंगे। कमी इतनी होगी, कि आज जो हमारे कितने ही भाई यह समझते हैं, कि अवधी, ब्रज, मालवी, बनारसी, मैथिली इत्तादि भाखायें कुछ दिनों में मर जायेंगी, उनको जरूर निरास होना पड़ेगा। निरास वैसे भी होना पड़ेगा, क्योंकि जो जनम-भाखाओं को किताब की भाखा न भी बनाया जाय, तो भी सौ-पचास सालो में उन भाखाओं के मरते देखने की खुसी हमारे भाइयों को नहीं मिलेगी। अभी उन्हें मरना भी नहीं चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने भीतर अपनी जाति की भाखा, समाज, विचार, विकास ओगरह के इतिहास की बहुत सी अनमोल सामिगरी रखी है। मैं जानता हूँ जो दुनिया से जोंके उठ जायँगी, तो मानुख जाति जरूर एक होगी और फिर सबकी एक साझी भाखा भी होगी। हो सकता है कि एक साझी और एक अपनी जनम-भाखा दो भाखाओं का रहना मुसकिल हो जाय। लेकिन वह अभी सैकड़ों बरसों की बात है। उस बखत तक हरेक भाखा के भीतर जितने रतन छिपे हुए हैं, सब जमा करके अच्छी तरह रख लिए गये रहेंगे। इसलिए किसी भाखा के नास होने से उतना नुकसान नहीं होगा।
सोहनलाल: लेकिन भैया! यह बोलियाँ अभी ऐसी नहीं हैं कि इनमें साइन्स-विग्यान पर किताबें लिखीं जायँ। हिन्दी ने बड़ी मुसकिल से यह कर पाया है।
भैया: जो मान लें कि बनारसी बोली में साइन्स की किताब नहीं लिखी जा सकती, तो कितने ही दिनों तक हिन्दी में किताबें पढ़ेंगे, जब तक कि हिन्दी बोली नाबालिग से बालिग न हो जायगी। हिन्दी जैसी किसी भाखा की किताब पढ़ना और उसमें लिखना-बोलना दोनों में बहुत फरक है । समझ लेना बहुत सहज है। अपनी बोली के पढ़ाने का मतलब यह नहीं है, कि हिन्दी को लोग छुयेंगे नहीं। दूसरी बात यह है कि बनारसी, मालवी किसी भी भाखा में साइन्स, इन्जीरिंग की किताबों के लिखने में उतनी ही दिक्कत होगी, जितनी हिन्दी में। आखिर हिन्दी ने भी साइन्स के सबदों को संसकीरत से लिया है, बँगला, गुजराती , मराठी भी संसकीरत से ही सबदों को लेती हैं फिर बनारसी, मैथिली, ब्रिज, मालवी ने क्या कसूर किया है?
सोहनलाल: हिन्दी-उर्दू के बारे में तुम्हारी क्या राय है भैया?
भैया: मेरी राय क्या पूछ रहे हो, मैंने तो पहिले ही कह दिया है कि जिसकी जो जनम-भाखा हो उसको उसी भाखा में पढ़ाना चाहिए। बनारस में बहुत से बंगाली भी रहते हैं, उन्हें बँगला में पढ़ाना होगा। मराठे भी हैं, उनको मराठी में पढ़ाना होगा। हाँ, कोई दो भाखा बोलनेवाला हो तो वह चाहे जिस पाठसाला में जाय। इसी तरह बनारस में जिस लड़के की जनम-भाखा हिन्दी है, उसके लिए हिन्दी की पाठसाला काय म करनी होगी, जिसकी जनम भाखा उर्दू है उसके लिए उर्दू का मदरसा कायम करना होगा।
सोहनलाल: तो भैया, तुम हिन्दी-उर्दू को मिलाके एक भाखा नहीं करना चाहते।
भैया: मिलाना हमारे बस की बात नहीं है, दस पाँच आदमी बैठकर भाखा नहीं गढ़ा करते। हिन्दी-उर्दू के बनने में सैकड़ों बरस न जाने कितनी पीढ़ियों ने काम किया है। मैं मानता हूँ कि हिन्दी और उर्दू भाखा मूल में एक ही भाखा है। “का, में, पर, से, इस, उस, जिस, तिस, ना, ता, आ, गा” दोनों ही में एकसे हैं, खाली झगड़ा है उधार लिए सबदों का। हिन्दी ने संसकरित से सबदों को उधार लिया है और उर्दू ने अरबी और कुछ-कुछ पारसी से भी; लेकिन दोनों ने इतना अधिक उधार लिया है, कि अकबाल की कविता को समझनेवाला सुमित्रानन्दन पन्त की कविता को बिलकुल नहीं समझ सकता और सुमित्रानन्दन पन्त की कविता जाननेवाला अकबाल को बिलकुल नहीं समझ सकता। इसलिए मूल में दोनों एक हैं, कहने से काम नहीं चलेगा। अकबाल और पन्त दोनों के समझने के लिए दोनों भाखाओं को अच्छी तरह पढ़ना होगा।
सोहनलाल: तो हिन्दू-मुसल्मानों की भाखाओं के मिलने का कोई रस्ता है?
भैया: चोटियों पर तो नहीं मालूम होता, लेकिन जड़ में उसका झगड़ा ही नहीं है,
सोहनलाल: जड़ क्या है भैया?
भैया: जड़ यही है कि, जिसे जनम-भाखा कहते हैं, अवधी बोलनेवाले गाँव में चले जाइये, वहाँ चाहे बाभन देवता हो चाहे, मोमिन जोलाहा, दोनों एक ही बोली बोलते हैं। बनारस, छपरा, गुड़गाँवा, थानाभवन के पास किसी गाँव में चले जाइये, किसानों-मजूरों की भाखा एक है, चाहे वह हिन्दू हो या मुसल्मान।
दुखराम: वही जोंकों से जिनका बेसी रिसता-नाता नहीं है।
भैया: देखा न सोहन भाई! जड़ में अपनी एक भाखा तैयार है, हिन्दू-मुसल्मान दोनों कमेरे उसी भाखा को बोलते हैं और फिर उनका न संसकीरत के साथ पच्छपात है न अरबी फारसी के साथ। यही दुक्खू भाई ने जो अभी कहा, “बेसी रिसता-नाता” इसमें बेसी और रिसता पारसी भाखा से आया है और नाता अरबी भाखा से। रिसता-नाता कहने से बिलकुल निपढ़, गँवार बुढ़िया भी समझ लेगी, लेकिन “सम्बन्ध” कहने से उतना नहीं समझ पायेगी। हमने भी अपने इतने दिनों के सत्संग में पाँच-छ सौ अरबी-फारसी सबदों को लिया है, और हिन्दी में उनकी जगह अब सिरिफ संसकीरत के सबद ही लिखे जाते हैं। मै समझता हूँ कि कोई अदमी समरकन्द बुखारा से सात पीढ़ी पहिले आया हो, लेकिन अब उसकी भेख-भाखा सब हिन्दुस्तान की है, तो वह हिन्दुस्तानी है। वह अपने पुरखा के सहर समरकन्द-बुखारा में जायगा, तो वहाँ भी उसे लोग हिन्दुस्तानी कहेंगे –आजकल समरकन्द, बुखारा, उजबेकिस्तान सोवियत प्रजातन्त्र के अच्छे सहर हैं। उसी तरह जिन अरबी, पारसी सबदों को निपढ़ गँवारों ने अपना लिया है और उसको वह अपने ढंग से तोड़-मरोड़ के बोलते हैं, वे सबद अब बिदेसी नहीं, सुदेसी हैं। जिन संसकीरत सबदों को हमारे “गँवार” छोड़ चुके हैं, उनको फिर से लादना भी ठीक नहीं।
सोहनलाल: लेकिन भैया, इन गँवारों ने तो हजार बारह सौ संसकीरत के सबदों को निकाल कर अरबी के सबद लिए है। ‘हमेसा’, ‘दिक्कत’, ‘मुसकिल’, ‘मवस्सर’, ‘अरज’, ‘गरज’, ‘लेकिन’, ‘बेसी’, ‘अमहक’ ( अहमक ), ‘इफरात’, ‘जमीन’, ‘हवा’, ‘तुफान’, ‘सहर’, ‘नौबत’, ‘जुलुम’, ‘परेसानी’, ‘मेहरबानी’, ‘वगैरह’ सबदों को उन्होंने लेकर संसकीरत के सबदों को छोड़ दिया है। जो संसकीरत के सबद रखे हैं, उनके बोलने में भी लाठी से पीट के ठीक-ठाक कर डालते हैं। और आप इसी भाखा को अपनाने को कहते हैं?
भैया: दोनों बातों को एक में न मिलाओ सोहन भाई! जहाँ तक जनम-भाखा की बात, है उसके लिए न रामसरूप पंडित की बात मानी जायगी न कुतुबुद्दीन मोलबी की; उसके लिए तो धनिया भौजी—गाँव की बेपढ़ अहिरिन को ही परमान माना जायगा। दोनों सबदों को उसके सामने रखा जायगा, जो अरबी वाले सबद को वह समझेगी तो उसे ले लिया जायगा, संसकीरत वाले को समझेगी तो उसको। बोलने में कठिन सबदों की धनिया भौजी कपाल-कीरिया करे हीगी, और उसकी कपाल किरिया को भी मानना पड़ेगा। हिन्दी-उर्दू को मिलाने का काम भी यही जनम-भाखायें करेंगी, क्योंकि जनम-भाखाओं में हिन्दू-मुसल्मान का झगड़ा नहीं है। जड़ वालों का रस्ता साफ है, चोटी वालों का झगड़ा है। उनमें जो अपनी जनम-भाखा उरदू मानता है, वह उरदू में लिखे-पढ़ेगा जो हिन्दी मानता है वह हिन्दी में। मेरठ कमिसनरी के साढ़े तीन जिले में भी कौन भाखा माननी चाहिए। इसका फैसला वहाँ कोई जाट की धनिया भाभी के हाथ में होगा।
सोहनलाल: और जो हिन्दुस्तान के संघ की भाखा हिन्दी होगी, उसमें हिन्दी-उर्दू का झगड़ा कैसे मिटेगा ?
भैया: पहिले तो हिन्दी के अपने साढ़े तीन जनम जिलों की भाखा के मुताबिक उसको मानना पड़ेगा। जिसके कारन बहुत से संसकीरत के सबद छूट जायँगे, और बहुत से अरबी फारसी के भी। फिर यह प्रजातन्त्रों के ऊपर छोड़ दिया जायगा कि वह कौन भाखा पसन्द करेंगे। जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दो तरह के प्रजातंत्र हमारे देस में बनेंगे, तो हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ में हिन्दी संघ भाखा होगी और पाकिस्तान में उरदू। मैं यह भी जानता हूँ कि आज की उरदू को जो बंगाल वाले पाकिस्तान पर लादा जायगा, तो बहुत मुसकिल होगी।
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लगा जैसे घर-दुआर में बैठकर गप-शप सुन रहे हैं।
जवाब देंहटाएंअफसोस,कि भाषा अब हमारे लिए केवल राजनीति का विषय है। इसके प्रति असंवेदनशील रवैया हमारी संस्कृति पर भी चोट करेगा।
जवाब देंहटाएंभाषा संस्कारों का वाहिका के रूप में कम और राजनीतिक मुद्दे के रूप महत्व पा गई. अफसोस होता है.
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