मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।
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आप परियों के उसे ख़्वाब दिखाते रहिए।
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मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
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यूँ तो हम मौत से भी मर नहीं सकते ‘नीरज’
बात लग जाये तो बेमौत भी मर सकते हैं।
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ग़र चिरागों की हिफ़ाजत फिर उन्हें सौंपी गई
रौशनी मर जाएगी, खाली धुआँ रह जाएगा।
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ये हिन्दू है वो मुस्लिम है, ये सिख वो ईसाई है
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जो हिमालय की तरह तन के खड़ा था इक रोज
सारे संसार की आँखों में खटकता हूँ मैं
तुमको आना हो आना मेरे घर चुपके से।
(नीरज)
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हममें
आईना हमें देख के हैरान-सा क्यों है
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारों।
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हमराह कोई और न आया तो ग़िला क्या
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी।
(शहरयार)
मैं अपने आपको छोड़ूँ कहीं तो पाऊँ उसे।
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तुम न कर पाओगे अन्दाज़ा तबाही का मेरी,
तुमने देखा ही नहीं कोई खण्डहर शाम के बाद ।
(कृष्ण बिहारी ‘नूर’)
मैं उसे दुश्मन कहूँ या दोस्त, जिसने ऐ ‘कुँअर’
पर दिये, लेकिन परों से फड़फड़ाहट छीन ली।
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तेरा हाक़िम सज़ा दे के ख़ुद रो पड़े
अपने सर कोई ऐसा भी इल्ज़ाम ले।
(डॉ. कुँअर बेचैन)
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा,
किसी चराग़ का अपना मक़ाँ नहीं होता।
(वसीम बरेलवी)
ये आग घर को लगी है तो क्या ताज्जुब है
गयी थी रौशनी मुझसे मेरा पता लेकर।
(मन्ज़र भोपाली)
अपना घर लगने लगा अब तो कचहरी हमको।
(डॉ. उर्मिलेश)
बन गया एक और शीशमहल
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ये अंधेरे कहाँ शरण लेते,
(शिवओम अंबर)
कोई पानी भी पिलाएगा, तो मज़हब देखकर।
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कौन-सा सत्संग सुनकर आए थे बस्ती के लोग,
लौटते ही दो कबीलों की तरह लड़ने लगे।
(राजगोपाल सिंह)
जिनको पकड़ा हाथ समझकर,
वे केवल दस्ताने निकले।
(विज्ञान व्रत)
मिलने को तो बहुत मकान मिले।
(राजू रंगीला)
जितनी बँटनी थी बँट गई ये जमीं
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सर क़लम होंगे कल यहाँ उनके,
जिनके मुँह में जुबान बाकी है।
(राजेश रेड्डी)
जलते रेगिस्तान पूछते सावन कैसा होता है,
फुटपाथी बच्चे क्या जानें आँगन कैसा होता है।
आधी उम्र किताबें ढोकर रोज़गार में खोकर कुछ
कल कुछ बूढ़े पूछ रहे थे यौवन कैसा होता है।
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केबिल टी.वी. का है पलना और एम.टी.वी. का झूला,
ये बच्चे क्या याद करेंगे बचपन कैसा होता है।
क्यों तुम दर्पण बेच रहे हो हम अंधों की बस्ती में,
हमको अब क्या लेना-देना दर्पण कैसा होता है।
(शंकर प्रसाद करगेती)
कभी तब्दीलियाँ आयीं न आयेंगी व्यवस्था में,
कमायेगी नदी, झोली समंदर की भरी होगी।
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कोई रुकता नहीं है कदम द्वार पर,
हारे लिख-लिखके हम स्वागतम् द्वार पर।
(हस्तीमल ‘हस्ती’)
अपनों की पहचान यही है,
वक्त पड़े तो आँख चुरा ले।
(बदर ‘मख़मूर’)
अच्छा संकलन...
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छे शे’रों का संग्रह कर रखा है आपने। मैंने तो कौपी कर लिया है।
जवाब देंहटाएंदुष्यंत कुमार के कुछ अशआर कंट्रीब्यूट कर रहा हूँ, आपकी नज़्र हैं-
जवाब देंहटाएंकहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
......
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
कमायेगी नदी, झोली समंदर की भरी होगी, बहुत खूब
जवाब देंहटाएं''फालतू का अर्थ सही परिप्रेक्ष्य में लिया''
जवाब देंहटाएंबढियां संचयन (मैं तो राम मनोहर लोहिया के किताबों वाले लेख के चक्कर में आया था ..चलिए यह भी अच्छा है !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! सुन्दर संकलन !
जवाब देंहटाएंमेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
http://seawave-babli.blogspot.com/
behtarin sanklan...par bhai ji ghazal se itni narajgi kyun..purane tamam behtarin geet bhi ghazal hain..ghazal se impect factor badhta hai..ghazal har ras ko apne me samahit kar sakti hai...lekin ek baat hai ham jindagi me jisse jyada pyar karte hain ..wo ..ya jisse ham sabse jyada nafrat karte hain ..wo..hamare dil ke jyada karib hote hain..hamare chinan me jyada hote hain..ghazal ek khoobsurat premika hai aap kitna bhee na na karein ..dekhiyega pyaar ho hee jaayega..punah itne umda sanklan ke liye hardik badhayee aaur amantran ke sath
जवाब देंहटाएंमेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
जवाब देंहटाएंमैं रहूँ भूखा तो मुझसे भी न खाया जाए।
मैंने जब सुना था तो शेर ऐसा था ....
"मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।"
चेक कर के बताएँगे
aapka sankalan bahut hi achchha hai. hindi ke sath urdu sero-shayari ka andaj hi kuch aur hai.................aabhar
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