आज से करीब दो सौ साल पहले जब अंग्रेज भारत पर अपनी शासन व्यवस्था लादना शुरु कर रहे थे तब भारत की जनसंख्या कितनी रही होगी? मुझे लगता है पंद्रह करोड़ के आस-पास जबकि उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल थे। भारत में तथाकथित आजादी के बाद जो भी व्यवस्थाएं की गईं उनमें कोई भारतीयता नहीं थी। शुरु करते हैं- शिक्षा से। आज शिक्षा व्यवसाय है। लेकिन उस समय शिक्षक समाज का सबसे ज्यादा सम्मानित हिस्सा हुआ करता था। शिक्षा के क्षेत्र में पैसे का प्रचलन नहीं था। गुरुकुल हुआ करते होंगे। इस समय उनकी क्षमता या प्रासंगिकता मेरा आलोच्य विषय नहीं है। राजा या अमीर लोग दान देते होंगे और विद्यालय चलते होंगे। यानि हमारी शिक्षा व्यवस्था को सेवा से पेशा बनाने का काम इन अंग्रेजों ने किया जो आज पूरी तरह पेशे में बदल चुकी है। यहां तक कि सरकार के यहां भी शिक्षक अब सेवा नहीं नौकरी करता है और तनख्वाह सबसे प्रमुख विषय बन गयी।
क्या आपने कभी सोचा है कि भ्रष्टाचार और कदाचार, परीक्षा में नकल आदि कहां से शुरु हुए हैं? मैं जहां तक समझता हूं सिर्फ़ अंग्रेजी शासन और शिक्षा व्यवस्था से। हमारे यहां पहले इस तरह नम्बरों का महत्व और परीक्षाएं नहीं होती थीं तो फिर न पैरवी, घूस और न ही नकल की कोई सम्भावना थी। घूस या रिश्वत भी भारत के मूल के नहीं हैं। यह सारी करामातें विदेशी शासन और व्यवस्था की देन हैं। एक नहीं बहुत सारे क्षेत्रों में सारी गलत व्यवस्थाएं अंग्रेजों की देन हैं।
इसी तरह का एक क्षेत्र है चिकित्सा। कोई सोच नहीं सकता कि यह जो भ्रम फैलाया गया है कि पहले हमारी औसत उम्र 30-32 साल होती थी, यह पूरी तरह से एक जालसाजी है। कारण यह है कि पहले के अधिकांश लोगों ने अपने दादा-दादी को देखा है, उनके साथ उनके कई साल गुजरे हैं। फिर ये कैसे सम्भव है कि औसत उम्र 30 या 32 साल ही थी। आप चाहें तो किसी भी राजा या कवि को, जो इतिहास में पढ़ाये जाते हैं, देख सकते हैं। अधिकांश की उम्र ज्यादा है। उदाहरण के लिए- वीर कुंवर सिंह, तुलसीदास, कबीर, शाहजहां, चाणक्य आदि। पहले चिकित्सा क्षेत्र भी सेवा का ही हुआ करता था क्योकि कोई चिकित्सक पैसा कमाने के लिए कभी चिकित्सक नहीं बना। सबूत ये है कि आप किसी शिक्षक या चिकित्सक को नहीं जानते जो आज से दो सौ वर्ष पहले होता था और उसकी दौलत ज्यादा थी या जो अमीर था। यह दुष्टता भी अंग्रेजों के समय से आई। स्वाइन फ्लू, एड्स जैसी एक से एक खतरनाक बीमारी इस देश में कहां से आयी?
एक क्षेत्र है कानून। जब से ये न्यायालय बने तब से मुकदमों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई और आज तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अदालतों में लंबित हैं। एक फालतू पेशा शुरु किया गया था वकीलों या बैरिस्टरों का। यह अंग्रेजो का है या मुगलों का, पता नहीं। लेकिन यह पेशा झूठ के लिए ही शुरु किया गया था। यह मानव और उसकी स्वतंत्रता के अधिकार को खारिज करता है। यह मुझे गलत मालूम होता है। जब ये न्यायालय और वकील नहीं होते थे तब न्याय में बीस साल नहीं लगते थे। मान लें कि मेरे और आपके बीच कुछ विवाद हुआ तो हम दोनों जाकर सब कुछ सरकार या राजा को बतायेंगे कि ये वकील? आखिर क्यों इन्हें लाया गया। वैसे भी वकील को कुछ भी बता दें सच्चाई और सबूत तो आप या मैं ही देंगे। और मेरा दावा है कि वकील सारे प्रश्नों का जवाब भी नहीं दे सकता लेकिन वादी और प्रतिवादी अपने मुकदमे या शिकायत से सम्बंन्धित सारे प्रश्नों का जवाब दे सकता है। इसलिए मेरा यह मानना है कि इन वकीलों को जान बूझकर शोषण करने के लिए कानून के नाम तैयार किया गया है। अगर आज से सौ साल पहले शिकायतों की संख्या दस हजार थी तो आज दस लाख है यानि जनसंख्या तो सिर्फ़ तीन या चार गुनी बढ़ी लेकिन शिकायतें सौगुनी या हजार गुनी तक या उससे भी ज्यादा बढ़ीं। फिर हमारे देश में संविधान निर्माताओं ने किस आधार पर इन फालतू व्यवस्थाओं को दूसरे देशों से नकल कर अपनाया?
एक व्यवस्था है पुलिस। जब से भारत में पुलिस बनी है तब से अपराधों की संख्या में हजारों गुनी वृद्धि हुई है। पुलिस चोरों से ज्यादा अत्याचार करती है। जिस पर मन हो लाठी या गोली चलाने का अधिकार इन लोगों दे दिया गया है। कोई बता सकता है कि आजाद भारत में अभी तक पुलिस ने कितनी बार लाठीचार्ज किया है, कितनी बार अपने अधिकारों या मांगों के लिए आगे आने वाले लोगों के उपर गोली चलाई गयी है? ये संख्या बहुत ज्यादा है। अगर एक वाक्य में कहा जाय तो ऐसा कोई सप्ताह या दिन नहीं है जब इस देश में कहीं न कहीं ये सब नहीं होता। अंग्रेजों ने जो लाठी बरसाने की परम्परा विकसित की उसे इस देश में क्यों स्वीकार किया गया? सुरक्षा के नाम पर क्या दिया है पुलिस ने? अंग्रेजों की यह क्रूर व्यवस्था हमें स्वीकार नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन इसे भी भारत के न्यायविदों ने स्वीकार कर लिया।
कितने लोग एक बात कहना शुरु करेंगे- समय बदल गया, हालात बदल गये, ये बदल गया वो बदल गया। लेकिन सत्य और न्याय कभी नहीं बदलते, ये उन्हें मालूम नहीं होता।
एक नियम है- वन संरक्षण का। जब से यह नियम आया है पेड़ों की संख्या में लगातार कमी आयी, जंगल काटे गये। वन उजाड़-उजाड़ कर भारत ने अपने ही जीवन पर कुठाराघात किया है। भूक्षरण, जमीन का बंजर होना, वर्षा की कमी, स्वच्छ हवा की कमी, भीषण गर्मी ये सारी समस्याएं तब से बहुत बढ़ीं जब से यह कानून अंग्रेजों ने बनाया।
भारत में गणित जिस स्थिति में आज से कुछ सौ साल पहले था या भारत का जो योगदान गणित में हुआ करता था उसकी तुलना में आज यह कितना रह गया है? क्या आप जब गणित पढ़ते हैं तब जार्ज कैंटर, बूली, न्यूटन, लेबनिज, पाइथागोरस, राफ्शन, टेयलर आदि के अलावा कितने भारतीय गणितज्ञों के नाम आपको बताये जाते हैं। और सारे क्षेत्र भले ही विवाद के विषय रहे हों या हैं लेकिन अंतरिक्ष विज्ञान और गणित में भारत की उपलब्धि कौन नहीं जानता। फिर भी क्यों सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के नाम हमें बताये जाते हैं? ऐसी विधि भी भारत में मौजूद थी जो बिना घड़ी देखे लगभग सही समय बता सकती थी और यह विधि आज भी मौजूद है, यह तकनीक जिसमें न कोई ऊर्जा, न कोई मशीन, न कोई फैक्ट्री, न एक पैसा खर्च किस देश के पास है? फिर भी हमने अपने देश में आय-व्यय का हिसाब मिलियनों और बिलियनों में क्यों लिखते हैं?
आयुर्वेद जैसी चिकित्सा जिसमें कोई साइड इफेक्ट नहीं है और एलोपैथी जैसी चिकित्सा जिसमें ऐसी एक भी दवा नहीं है जिसमें साइड इफेक्ट नहीं है, कौन सी बेहतर व्यवस्था है?
हमारी डिग्रियां आज भी अंग्रेजी नामों की ही हैं? क्यों भारत के विश्वविद्यालयों ने इन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया? ऐसा क्यों है कि संसार के किसी देश में कभी ऐसा नहीं होता कि कोई छात्र अपने देश की भाषा बोले तो उसे उसी देश का रहनेवाला शिक्षक उसे दंड दे लेकिन यह रोज भारत में कहीं न कहीं होते रहता है और गैरों की भाषा बोलने पर शाबाशी दी जाती है। हमारे विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोह मनाये जाते हैं तो सारे लोग काले रंग का चोगा पहन कर क्या साबित करते हैं?
जब हमारी भाषा अपनी नहीं, शिक्षा अपनी नहीं, चिकित्सा अपनी नहीं, शासन अपना नहीं, न्याय अपना नहीं तो आखिर किस मामले में हम आजाद हैं? आजादी सिर्फ़ तन से नहीं होती। गाय का बछड़ा भी जब महसूस करता है तब मोटी से मोटी रस्सी वह एक झटके में तोड़ डालता है लेकिन हाथी जैसा विशालकाय और शक्तिशाली जानवर भी पतली रस्सी को नहीं तोड़ सकता अगर वह इसको समझे नहीं कि वह गुलाम है, वह चुपचाप बैठा रहता है। यही मानसिक गुलामी का उदाहरण है।
आप गांधी जी के लिखे को पढ़ें या किसी भारतीय ( इंडियनों के नहीं) के लिखे को आप देखेंगे कि आज से सौ-डेढ़ सौ साल पहले जो अंग्रेज करते थे वे ही सारे तौर-तरीके और काम आज भी अपनाये जाते हैं। भारत में लोकतन्त्र के नाम पर क्या थोपा गया? अंग्रेजों की सरकार जिस तरीके से चलती थी एकदम वैसे ही आज भारत की सारी व्यवस्थाएं चलती हैं। उनके बनाये हुए न्यायालय और पुलिस, कलक्टर सब वैसे ही हैं। संसद तो उन्हीं की बनायी हुई है। स्कूल से लेकर अस्पताल, सड़क से लेकर जमीन तक सभी मामलों में हमने उन अंग्रेजों की ही व्यवस्था को अपनाये रखा है, यह कौन सी व्यवस्था है?
हमने विकास और लोकतंत्र के नाम पर नकल और नकल के अलावे कुछ नया नहीं किया। आज भी जो भारतीय दंड संहिता है वह अंग्रेजों द्वारा 1860 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरु होने के बाद यानि 1857 के बाद लोगों और क्रान्तिकारियों पर अत्याचार करने के लिए बनायी गयी थी। कितने शर्म की बात है जिस कानून से हमारे क्रान्तिकारी और देशवासी कुचले जाते थे वे सारे कानून हमने अभी लागू कर रखे हैं। कहा जाता है कि हमारे संविधान को बनानेवाले बहुत विद्वान और महान लोग थे, फिर ऐसा क्यों हुआ कि वे कोई मौलिक या उच्च स्तरीय व्यवस्था नहीं दे पाये। नकलची लोगों को न तो महान कहा जा सकता है न कोई क्रान्तिकारी। कुछ डिग्रियां और कागजी प्रमाण-पत्र किसी को विद्वान और महान नहीं बना सकते और यह महान या विद्वान समझने की परम्परा भी अंग्रेजों ने ही दी है। हमने इस कृत्रिमता को क्यों स्वीकार किया? जब व्यक्ति सामने है फिर भी उससे क्यों उसका प्रमाण-पत्र मांगा जाता है। यह तो अंग्रेजों के जमाने में हुआ करता था ताकि किसी तरह से भारत के लोगों को ऊंचे पदों पर न पहुँचने दिया जाय। हमने प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था भी उन्हीं की अपना रखी है। काम चपरासी का हो तो भी अंग्रेजी में आवेदन मांगे जाते हैं। प्रश्न पूछे जाते हैं भूगोल और भौतिकी के। बहाना सामान्य ज्ञान का। जिन लोगों के पास कोई ज्ञान नहीं वे दूसरों के सामान्य ज्ञान की जांच करते हैं। एक उदाहरण देखिए भारतीय प्रशासनिक सेवा का। यह सेवा अंग्रेजों की बनायी हुई है। भारत में किया क्या गया, बस इतना ही कि परीक्षा का माध्यम कुछ और भाषाओं को बना दिया गया। दो विषयों की परीक्षा होती है औ वे विषय प्रशासन से कोई संबन्ध नहीं भी रख सकते। केवल सैद्धान्तिक सूचना जिन्हें भ्रमवश ज्ञान कहा जाता है, रखने से आप किसी योग्य नहीं बन जाते या दस मिनट के नौटंकी के साक्षात्कार से आपकी जांच दुनिया का कोई इंसान नहीं कर सकता। साक्षात्कार एक ऐसी परीक्षा पद्धति है जिसमें आपकी योग्यता दूसरे की नजर से तय होती है। किसी भी फालतू प्रश्न को आपसे पूछा जा सकता है। और जवाब सही है या नहीं, ये मायने भी नहीं रखता। महत्व इस बात का है कि आप प्रश्न पूछने वाले को पसंद आये या नहीं, उसने आपके उत्तर से सहमति रखी थी या नहीं। अब कोई यह बताये कि इस परीक्षा में अभ्यर्थी की योग्यता की जांच होती है क्या?
और इस परीक्षा में अंग्रेजों के समय में माध्यम ही अंग्रेजी थी और सिर्फ़ शोषक किस्म के लोग इसमें जाते थे, वे अक्सर अंग्रेज ही होते थे। आज भी इस परीक्षा का माध्यम नाम के लिए हिन्दी या अन्य भाषाएं हैं, अंग्रेजी की परीक्षा अनिवार्य है।
इन सब चीजों को देखकर तो यही कहना है कि कौन सी व्यवस्थाएं हैं ये? क्या हम आजाद हैं और हैं तो किस मामले में?
श्री चन्दन जी अच्छा लेख लिखा है और बात भी बिलकुल सही कह रहे है. हम आजाद होते हुए भी मानसिक रूप से अंग्रेजो के गुलाम ही है.
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