मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

'शीला की जवानी’ बीच चौराहे पर गाइये और देख लीजिये क्रान्ति


मिस्र में होस्नी मुबारक को भगाया जा चुका है। ट्यूनिशिया की देखा देखी वहां के नागरिकों के दिमाग में कुछ खलबली मची, सेना ने भी साथ दिया और हो गया तीस सालों से चले आ रहे शासन का समापन। यमन और अल्जीरिया भी नकल करने में लगे हुए हैं। फिलहाल सरकार ने इन दोनों देशों के लोगों पर रोक लगा दी है। लोकतंत्र का शोर शुरु हो रहा है यानि एक और लोकतांत्रिक देश। वहां के जनाक्रोश का असर भारत में क्या पड़ सकता है, इसपर विचार विनिमय शुरु हो चुका है तब क्रान्ति को लेकर कुछ कहना अप्रासंगिक नहीं होगा।

     भारत में किसी किस्म की क्रांति लाने के बारे में सोचने के लिए हम थोड़ा सा देख लेते हैं कि हमारे देश में क्रांति का स्वरूप कैसा रहा है और वे कौन से हालात थे जिनमें क्रांति की जरुरत महसूस की गयी।
     भारत यानि धार्मिक भारत। मेरे समझ से धर्म के सिवाय भारत में कुछ महत्वपूर्ण था भी, इसमें मुझे संदेह है। हम आज भी चिल्लाते हैं सभ्यता! सभ्यता! संस्कृति! संस्कृति! जब मौका मिलता है, चिल्ला लेते हैं तब जाकर दिल को तसल्ली मिलती है। पर जब अपने देश को देखते हैं तो सर से लेकर पांव तक सिर्फ़ पश्चिमी देशों की सभ्यता दिखाई पड़ती है। खाने में, पहनने में, खेल में, चाल में-ढाल में यहां तक कि पढ़ने में, लिखने में, बोलने में- हर जगह। आज सैकड़ों संप्रदाय हैं और न जाने कितने धर्म हैं हमारे देश में। हमारे यहां हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई सब के सब हैं भाई-भाई का राग बहुत दिनों से अलापा जाता रहा है पर नीरज के शब्दों में-

ये हिन्दू है वो मुस्लिम है, ये सिक्ख वो ईसाई है
सब के सब हैं ये वो लेकिन कोई न हिन्दुस्तानी है

हमारे देश में सबसे बड़ी क्रान्ति थी आजादी की क्रान्ति। हम वहां भी चैन से नहीं बैठ सके। हिन्दू मुस्लिम के आपसी विवादों को आजादी के पहले ही शुरु कर हमने 1947 में जाकर आजादी पाई। भारी दंगों के बीच हमने आजादी हासिल कर ली। भगतसिंह  नामक एक युवक ने सोचा कि उसके फांसी चढ़ जाने से बहुत से भगतसिंह पैदा हो जायेंगे और देश बहुत जल्द ही आजाद हो जायेगा। पर दूसरा भगतसिंह फिर पैदा नहीं हुआ। और 16 साल बाद हमें आजादी मिली। सही मायनों में हम अभी भी गुलाम ही हैं। सिर्फ झंडा फहराने का हक मिल जाने से हम आजाद नहीं कहला सकते। क्रान्ति देखा देखी पैदा नहीं हो सकती। हो सकता है कि दूसरों की देखा देखी हम थोड़ा सा सावधान हो जायें पर हम क्रान्ति नहीं कर सकते। क्रान्ति के लिए हमें अंदर से तैयार होना पड़ता है। जब एक आदमी महसूस करता है कि क्रान्ति अब जरुरत बन रही है तभी वह क्रान्तिकारी बन सकता है। उपदेश और दूसरे देशों की क्रान्ति से हम पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता क्योंकि बहुत गर्म किया हुआ पानी भी ठंढा हो ही जाता है। जबरदस्ती कविता लिखने वाला कवि नहीं होता। कविता अपने आप पैदा होकर कलम से उतर जाती है। रूसी और फ्रांसीसी क्रांति कोई देखा देखी वाली क्रांति नहीं थी। लोगों को वह क्रान्ति करनी पड़ी। भारत जैसे देश में गरीबी, भूख आदि के लिए आप पांच लाख आदमी एक जगह इकट्ठा कर सकते हैं, इसमें मुझे संदेह है। पर अयोध्या जैसे एकदम बेकार और घटिया मामले को लेकर आप पच्चीस लाख लोगों को एक जगह ला सकते हैं वो भी थोड़े से प्रयत्न से। कुछ महानुभावों ने कहना शुरु किया है कि भारत में अब लोग इन चीजों पर ध्यान नहीं दे रहे। ये महान लोग भारत को सिर्फ 5 से 10 करोड़ लोगों का देश मानते हैं जो शहरों में रहते हैं और एक घड़ी खरीदने के लिए भी हजारों मजदूरों की मजदूरी एक समय में ही खर्च कर डालते हैं। हमारे देश में नेताओं और उद्योगपतियों के पास इतनी बुद्धिमानी है वे जब चाहें तब लोगों को किसी भी फालतू से मुद्दे पर पटक कर लोगों के दिमाग में क्रान्ति की जगह ही नहीं उसके जन्म लेने की थोड़ी भी गुंजाइश रहने नहीं देते। क्रान्ति की भ्रूण हत्या करना हमारे देश का सबसे बड़ा इतिहास रहा है। मेरे खिलाफ कितने विद्वान लोग इतिहास के पन्नों को रात-रात भर टटोल कर सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत कर देंगे कि मैं गलत हूं, भारत तो जगतगुरू रहा है, यहां के हरेक चीज में सर्वश्रेष्ठता है तो भाई साहब चोर भी जब रात को चोरी करने चलता है तब रास्ते के कांटों को हटा देता है ताकि उसे वापस आने में या भागने के दौरान कोई परेशानी नहीं हो। क्या इसे आप चोर का महान कार्य कह कर इतिहास में जगह देंगे? अंग्रेजों ने भारत में रेल का जाल फैलाया, वैसे मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भारत में जितनी लम्बी रेल लाइनें हैं उसका दस-बीस प्रतिशत भी आज तक नहीं बन पाता, लेकिन क्या अंग्रेजों ने भारत को विकसित करने के लिए रेल के जाल बिछाये! मेरी गारंटी है कि उन्होंने अपने फायदे के लिए, सामान ढोने के लिए यह सब किया। हम आज चाहे जैसे भी इस काम को महान ठहरा लें पर यह असल में स्वार्थपूर्ण कार्य था। हां उसका फायदा हम लोगों को आज भी मिल रहा है।
     अब क्रिकेट विश्व कप शुरु होने वाला है। वैसे यह बता दूं कि भारत के नेताओं और उद्योगपतियों के लिए क्रिकेट एक वरदान से कम नहीं जो लोगों का ध्यान और सब चीजों से हटा कर रख देता है। यहां के लोग अपने अरबोंखरबों घंटे इस खेल के पीछे बर्बाद करते हैं सिर्फ मनोरंजन के नाम पर। इनके लिए शहीदों की जान और कुर्बानी की कीमत पब, पार्टियां, क्रिकेट, मॉल आदि चीजें ही हैं। भगतसिंह ने जान देकर इनका मनोरंजन किया, इनको सर्कस का खेल दिखाया जैसे मौत का कुआँ दिखाया जाता है। जब लोग सिर्फ क्रिकेट-क्रान्ति, दिखावा-क्रान्ति, फैशन-क्रान्ति जैसे महान क्रान्तियों में इतनी मेहनत कर रह रहे हैं तो जाहिर है बेचारों के पास भगतसिंह की क्रान्ति बहुत कमजोर पड़ जाती है। मैं बहुत से लोगों को पिछड़ा, पुराना, ओल्ड फैशन्ड लगूंगा, यह तो लगभग तय है।
     आप शीला की जवानी को बीच चौराहे पर गाइये और देख लीजिये क्रान्ति। लेकिन शहीदों पर एक कितना भी बढिया गीत सुनाकर लोगों की भीड़ हजार में पहुँचा दें तो मान लूंगा। अभी आपको एक घटना बताता हूं। पिछले लोकसभा चुनाव के समय पटना में ही पाटलिपुत्र गोलम्बर के पास शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव प्रचार के लिए आने वाले थे। तब तक कुछ लोग मंच पर आकर गाने सुना रहा थे। एक आदमी ने शहीदों और देशभक्ति गीतों को गाना शुरु किया। लोगों ने मन मसोसकर सुन तो लिया। लोग चाहते थे कब ये राग अलापना बंद करेगा। पर वहां बिहारी बाबू का दर्शन सबसे ज्यादा महत्व रखता था। वैसे हमारे यहां शहीदों के नाम पर भी कम राजनीति नहीं होती। कोई उन्हें अपना पूर्वज कहना चाहता है तो कोई अपनी पार्टी का भूतपूर्व सदस्य बनाने की कोशिश करता है वहीं कई कंपनियां रिंगटोन, एसएमएस आदि को लेकर बिजनेस में भी लगी रहती हैं वह भी यह कहकर कि स्वतंत्रता दिवस पर शहीदों की याद में ये-ये आफर दिये जा रहे हैं। यही श्रद्धांजलि है उन शहीदों को!! अगले दिन इंटरनेट पर रिकार्ड आ जायेगा कि 15 अगस्त को एयरटेल, रिलायंस या किसी और के इतने लाख ग्राहकों ने ऐ मेरे वतन के लोगों को डाउनलोड या सब्सक्राइब किया।
महादलित रैली निकालिये और देख लीजिये क्रान्ति। पटना के गांधी मैदान में झंडा फहराया जाता है। मैं भी दो तीन सालों में कई बार देखने गया हूं। वहां मुख्यमन्त्री महोदय का भाषण सुनियेगा। उनकी सरकार ने कौन कौन से काम किये, उनके पार्टी की घोषणाएं सुनियेगा। लगता है हमारा झंडा उनसे कामों का हिसाब मांग रहा है जो महाशय वहां चुनावी अंदाज में भाषण देते हैं। हां बात हमेशा शुरु होती है उसी घिसी-पिटी 60-70 साल पुरानी कहानी से कि गांधी मैदान का नाम गांधी मैदान क्यों पड़ा फिर गांधीजी, बुद्ध, महावीर आदि की चमचागिरी, बिहार को श्रेष्ठ या विशेष बताने के लिए शब्दों का जाल आदि आदि।  
एक सम्पूर्णक्रांति हुई थी जिसे वास्तव में क्रान्ति कहने को मैं मजबूर हो रहा हूं। इसी क्रान्ति की देन हैं आज के कई महान विकास पुरुष जन। क्रान्ति के अगुआ जयप्रकाश नारायण की बात सुनने को मिले या न मिले पर उनके उत्तराधिकारियों की बात हर गली चौक चौराहे पर सुनने को मिल जायेगी।
हमारे देश भारत में कुछ ही क्रान्तियां सर्वाधिक सफल हैं- पहली क्रिकेट क्रान्ति, दूसरी बॉलीवुड क्रान्ति, तीसरी भूखमरी, कंगाली और गरीबी क्रान्ति, करोड़पतियों के अरबपति बनने की धन क्रान्ति, शहीदों को भूलने की विस्मरण क्रान्ति, बच्चों में कुपोषण क्रान्ति, नेताओं में भाषण क्रान्ति, जति के आधार पर जातिगत आरक्षण क्रान्ति, किसानों में आत्महत्या को चुनने की वरण क्रान्ति, पूरी व्यवस्था द्वारा आम आदमी के खुशियों की अपहरण क्रान्ति, स्वास्थ्य की अत्यधिक सुविधा से रोगियों में मरण क्रान्ति, नेताओं द्वारा (खासकर अमेरिका जैसे देशों के) अपने फायदे के लिए किसी के भी तलवे चाटने की सुप्रसिद्ध चरण क्रान्ति आदि।
मिस्र की जनता द्वारा शांति और क्रान्ति एक साथ देखने को मिली है। मुझे शांति और क्रान्ति के एक साथ होने पर संदेह हो रहा है। फिर भी इस पर मुझे और अधिक चिंतन करना पड़ेगा। जहां की जनता को एक शासक को समझने में 30 साल लग जाते हों वहां जनता ऊब कर शोर मचा रही थी न कि क्रान्ति कर रही थी। ऊब कर शोर मचाना मेरे विचार से क्रान्ति नहीं है। यह सिर्फ एक ही चेहरे को देखते देखते थक जाने की प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन अब वहां क्या होगा या भविष्य को किधर ले जाया जायेगा इसे देखने के लिए सालों इंतजार करना पड़ेगा। मेरे विचार कोई कुरान की तरह अंतिम नहीं हैं। मैं अपने विचारों को बदलने को तैयार रहता हूं।
भारत में भी कांग्रेस का शासन लम्बे समय तक रहा। देश की स्थिति अगर बदली भी तो सिर्फ इतनी ही कि जिसके न बदलने से काम नहीं चल सकता था। कुछ साल तक सत्ता दूसरों के हाथ में रही और फिर एक बार कांग्रेस के ही हाथ में आ चुकी है। यहां भी सत्ता परिवर्तन हुआ था पर हम उसे क्रान्ति नहीं मान सकते क्योंकि हम फिर उन्हीं हाथों में शासन की बागडोर सौंप चुके हैं जो पहले तीन दशक तक हमारे शासक रहे हैं। क्या मिस्र में भी ऐसा ही कुछ होगा? यह तो कोई नहीं कह सकता। एक 82 साल का राष्ट्रपति अगर सत्ता नहीं भी छोड़ता तो आखिर वह कितने दिनों का मेहमान था। अगर कोई यह कह रहा हो कि होस्नी मुबारक वंशवाद को बढावा दे सकते थे तो अभी तक उनके किसी परिवार वाले ने राजनीति में इस तरह कदम नहीं रखा था या है कि मिस्र उसके हाथों में चला जाता।

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