कौन बनते हैं डाक्टर और शिक्षक ?
विभिन्न प्रकार के सिस्टम्स पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के अनुसार, किसी भी कार्य या सिस्टम के तीन आउटपुट होते हैं- एक तंत्र (System), सेवा (Service) या फिर कोई उत्पाद (Product)। इस सिद्धांत के आधार पर फैक्ट्रियाँ, दुकानें आदि चीजें अंत में उत्पाद पैदा करती हैं (ये अलग बात है कि कभी-कभी उत्पाद भी एक पूरा का तंत्र होता है) या पैसा। प्रशासन एक तंत्र है और इसका अंतिम उद्देश्य सेवा है। इसका काम पैसा कमाना नहीं होता है। इसी तरह शिक्षा और स्वास्थ्य एक स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय या अस्पताल के रूप में सिस्टम बनकर सामने आते हैं। हमारे राज्य में ये माना जाता है कि पटना में दो ही लोग कमा रहे हैं, पहले शिक्षक या कोचिंग संस्थान और दूसरे डाक्टर। यही बात कमोबेश लगभग सभी शहरों के लिए भी है।
पहले चर्चा डाक्टर और चिकित्सा की।
मुझे ऐसे लोगों से अक्सर मुलाकात हो जाती है जो कहते हैं कि अगर डाक्टर ने सालों पढाई की है, पैसे खर्च किये हैं तो कमाना किसी तरह गलत नहीं। मैंने कब कहा कि कमाना बंद कर दो। आज लगभग सभी डाक्टरों के निजी क्लिनिक या नर्सिंग होम हैं जिनका काम जनता के मेहनत की कमाई को अपने लिए होम करवाना ही रह गया है। डाक्टरों की सिर्फ देखने की फीस 400-500 रूपये या इससे भी ज्यादा तक पहुंच गयी है। एक मरीज पर दो मिनट भी समय कई डाक्टर नहीं देते। डाक्टरों के बात करने के तरीके को भी इलाज का एक आवश्यक अंग मान जाता है। पर कई डाक्टर बातें ऐसे करते हैं जैसे स्कूल का हेडमास्टर छात्रों से करता है। आपरेशन की फीस इतनी ज्यादा है कि सिर्फ़ अमीरजादे ही उसे चुकाने में समर्थ हैं। एक आपरेशन जिसका चार्ज 10000 है सारी चीजों को लेकर उस आपरेशन में शायद ही 2000 खर्च होते हों। ग्रामीण क्षेत्रों में जिस आपरेशन की फीस 2000 रूपये है पटना या अन्य शहरों में उसकी फीस 10000-15000 तक या इससे भी ज्यादा है। ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं जिनकी मासिक आमदनी लाखों या करोड़ों तक है। करोड़ों की बिल्डिंगें ऐसे ही नहीं दिखतीं। क्या यही चिकित्सा व्यवस्था देश को स्वस्थ रखने के लिए चाहिए ?
मुझे ऐसे लोगों से अक्सर मुलाकात हो जाती है जो कहते हैं कि अगर डाक्टर ने सालों पढाई की है, पैसे खर्च किये हैं तो कमाना किसी तरह गलत नहीं। मैंने कब कहा कि कमाना बंद कर दो। आज लगभग सभी डाक्टरों के निजी क्लिनिक या नर्सिंग होम हैं जिनका काम जनता के मेहनत की कमाई को अपने लिए होम करवाना ही रह गया है। डाक्टरों की सिर्फ देखने की फीस 400-500 रूपये या इससे भी ज्यादा तक पहुंच गयी है। एक मरीज पर दो मिनट भी समय कई डाक्टर नहीं देते। डाक्टरों के बात करने के तरीके को भी इलाज का एक आवश्यक अंग मान जाता है। पर कई डाक्टर बातें ऐसे करते हैं जैसे स्कूल का हेडमास्टर छात्रों से करता है। आपरेशन की फीस इतनी ज्यादा है कि सिर्फ़ अमीरजादे ही उसे चुकाने में समर्थ हैं। एक आपरेशन जिसका चार्ज 10000 है सारी चीजों को लेकर उस आपरेशन में शायद ही 2000 खर्च होते हों। ग्रामीण क्षेत्रों में जिस आपरेशन की फीस 2000 रूपये है पटना या अन्य शहरों में उसकी फीस 10000-15000 तक या इससे भी ज्यादा है। ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं जिनकी मासिक आमदनी लाखों या करोड़ों तक है। करोड़ों की बिल्डिंगें ऐसे ही नहीं दिखतीं। क्या यही चिकित्सा व्यवस्था देश को स्वस्थ रखने के लिए चाहिए ?
सरकारी मेडिकल कालेजों सह अस्पतालों के डाक्टर खासकर जूनियर डाक्टर आये दिन अपनी मांगों के लिए जब जी में आता है हड़ताल कर देते हैं। क्या उन्हें इस बात की चिंता है कि जो मरीज अस्पताल में भर्ती है उसकी हालत क्या हो रही होगी ? कितने मरीज जिंदगी और मौत से लड़ते-लड़ते मर जाते हैं, उनकी जान जाने का गम कितने डाक्टरों की चैन छिन लेता है ? शायद ही कोई नजर आये जिसे इन बातों की चिंता करते देखा जाता है। आखिर क्या वजह है कि मरीजों की हालत का कुछ भी असर अधिकांश डाक्टरों पर नहीं पड़ता है ? चिकित्सा के धीरे-धीरे व्यापार बनते जाने की वजह क्या है ?
चिकित्सा का आउटपुट है –सेवा (Service)। अमीर बनने के साधन के रूप में इसका प्रयोग, अध्ययन और अनुसंधान सब कुछ पूंजीवाद को बढावा देने के लिए ही सीढी का काम करते हैं। जिन युवाओं के मन में अमीर बनने की इच्छा हो वे अगर इस पेशे को अपनाते हैं तो इसका बड़ा भारी असर देश की चिकित्सा व्यवस्था पर पड़ता है। यह सेवा का क्षेत्र है और इसमें सेवा के सिवाय पैसे की कोई अहमियत नहीं होनी चाहिए। जिनके पास सेवा या चिंता जैसे पुराने विषय जो ग्लैमरस नहीं हैं, का समय नहीं उन्हें इस क्षेत्र से दूर ही रहना चाहिए। ऐसा मेरा मानना है।
यह सच है कि लोगों की बिमारी का इलाज या आपरेशन चाहे जैसे भी डाक्टर ही कर रहे हैं। पर चिकित्सा सुविधाएं सिर्फ़ रईस लोगों के लिए ही बनती जा रहीं हैं। अभी हाल में बिहार में जिन मरीजों की मौत हुई उसका जिम्मेदार कौन है यह पता लगाना और इसपर सैकड़ों पन्नों पर स्याही उड़ेलना, एसी रूम में बैठकर चैनलों पर भाषण झाड़ते कई लोगों का दिखना, किसी फिल्मकार को अपना फायदा देखते हुए इस पर फिल्म बना डालना, किसी साहित्यकार का उपन्यास या कहानी लिखना, सेमिनारों और कांफ्रेसों में फैशनेबल ड्रेसों के नकाब को पहन कर चिल्लाते समाज सेवियों का प्रदर्शन या धरना, ये सारी चीजें न तो लोगों की जान लौटा सकती हैं न ही इस घटना के मूल कारणों की ईमानदारी से जांच-पड़ताल कर सकती हैं। सब राजनीति का अलग-अलग फंडा है।
एक डाक्टर का पहला काम मरीजों की जान बचाना और उनका उचित इलाज है, इस बात को चिकित्सा क्षेत्र का ब्रम्हवाक्य मान कर अपनी मांगों और अपनी सुविधाओं के लिए दूसरों की जान लेना किसी तरह से इंसानियत का उदाहरण नहीं है।
अब शिक्षकों की बात पर आते हैं।
पहला सवाल यह है कि कोई भी आदमी इस क्षेत्र में क्यों आता है – व्यापारी बनने के लिए या शिक्षा सेवा के लिए। पटना बिहार में शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण जगह है। यहां आई आई टी, बैंक, रेलवे, एस एस सी, यू पी एस सी, बी पी एस सी, मेडिकल, अन्य इंजीनियरिंग के लिए कोचिंग संस्थानों की कमी नहीं है। ज्यादा जोर इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी पर है। बोरिंग रोड में कुछ ऐसे ट्यूशन गुरु हैं जिनकी फीस एक विषय के लिए 15000 से 20000 रूपये है। कोर्स की अवधि अक्सर अठारह महीने से कम की होती है। पटना के शिक्षकों में कुछ की सालाना आमदनी करोड़ों में भी है। कौन कह पाएगा कि ये पढाते हैं या व्यापार करते हैं। इसमें सारा दोष उन लोगों का है जो यह समझते हैं कि जिसकी फीस ज्यादा है वह बहुत अच्छा पढाता है। जो लखपति हैं या करोड़पति हैं उन्होंने ही फीस में इजाफा किया है। लेकिन जब ग्रामीण क्षेत्र से कोई होनहार या सामान्य छात्र यहां पढने आता है तब उसके घर वालों पर फीस चुकाने के लिए क्या-क्या बीतती है यह वही जानते हैं।
कुछ उदारवादी लोगों का कहना है कि अच्छी व्यवस्था के कारण कई कोचिंग संस्थानों की फीस ज्यादा है। पर उन सारे संस्थानों में अच्छी सुविधा के नाम पर ज्यादा से ज्यादा एसी क्लासरूम और कुछ स्टडी मैटेरियल के नाम पर दी जाने वाली किताबें हैं। क्या कोई यह बताएगा कि किसी सामान की क्वालिटी में दस प्रतिशत ज्यादा खर्च कर उसे दस गुने अधिक दाम में बेचा जाना कहां तक उचित है। ब्रिलिएण्ट, फिटजी, नारायणा, आकाश जैसे इंस्टिट्यूट्स की फीस एक साल के लिए एक लाख तक या उससे ज्यादा भी पहुंच चुकी है। यह रूपयों का खेल है या शिक्षा सेवा। जाहिर है ये सारे संस्थान बिजनेसमैन के बिजनेस से ज्यादा कुछ भी नहीं। प्रतियोगी परीक्षाओं में छात्रों की सफलता इनकी सफलता बन जाती है। लेकिन क्वालिटी के नाम पर यह सरेआम धोखा, छलावा और दिखावा से ज्यादा कुछ नहीं। यह बिल्कुल वही दिखावा है जो हमारी सरकार विकलांगों की ओर थोड़ा-सा ध्यान देकर करती है जिससे भावनात्मक स्तर पर जनता गुलाम बनी रहे और कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर दे।
सरकार की शिक्षा नीति या व्यवस्था कितनी शानदार है यह कहने की जरुरत नहीं है। बिना ट्यूशन के इक्के-दुक्के छात्र ही पढते होंगे। आखिर बढती हुई फीस क्या बतलाती है ? न तो सरकार का ध्यान इस ओर जा सकता है न ही फीस में कमी हो सकती है क्योंकि सरकार ही इनकी सरपरस्त बनी हुई है।
शिक्षा भी वह सिस्टम है जिसका आउटपुट सेवा यानि सर्विस ही है। फिर कौन लोग इसे व्यापार बनाने में लगे हुए हैं। जिनका उद्देश्य ज्ञान बाँटना है, क्या वे इस तरह व्यापारी बन सकते हैं ! निश्चित तौर पर इसका उत्तर होगा नहीं। फिर कोई कैसे उम्मीद करे कि देश में इन सब चीजों का विकास हो पायेगा या इसका लाभ आम जनता तक पहुंच पायेगा। जहां 80 करोड़ से ज्यादा लोग खाने के लिए तरसते हों वहां शिक्षक जिसका पेशा सर्वाधिक पवित्र माना जाता है वो भी आम आदमी को लूटने में लगा हुआ है। लगता तो यही है कि वही लोग इस क्षेत्र को विशुद्ध व्यापार बनाने में लगे हुए हैं जिन्होंने मजबूरी में या अमीर बनने के लिए यह क्षेत्र चुना है। यह क्षेत्र उन लोगों के लिए है ही नहीं जो अमीर बनना चाहते हैं। इसलिए जो युवा इस क्षेत्र में आता है उसका मूल उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों तक शिक्षा का प्रसार करना होना चाहिए न कि पैसे बटोरना। सब नफा बटोरने में लगे हुए हैं। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में –“नफा चोरी का एक परिष्कृत नाम है।”
सुंदर व्यंग्य!
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