गुरुवार, 30 जून 2011

ज़िंदग़ी(कविता)


कल मुझे मिला
    एक दवा का दुकानदार
    उसने कहा मुझसे
    साहब! नज़र नहीं आ रहे काफ़ी दिनों से
         दवा नहीं ले जा रहे मेरी दुकान से
       घर में सब ठीक तो हैं?

(यह कविता 2009 में लिखी गई थी। हो सकता है इसका शीर्षक उतना उचित नहीं जान पड़े।)

बुधवार, 29 जून 2011

आर्य सचमुच कहीं बाहर से आए थे?


मुझे इतिहास का ज्यादा पता नहीं, भविष्य में इसपर कुछ अध्ययन और सम्भव हुआ तो शोध का विचार है लेकिन इस बार आपको एक बहुत बड़े विद्वान और आलोचक रामविलास शर्मा की कही बात पढ़वा रहा हूँ, जो निश्चित रुप से सोचने को मजबूर करती है। यह एक साक्षात्कार का अंश है जो आप यहाँ पढ़ सकते हैं। आप यह साक्षात्कार अवश्य पढ़ें क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण है।

महाभारत का सबसे मूर्ख पात्र कौन? कृष्ण या अर्जुन

महाभारत की घटना कभी हुई है, इसमें मुझे संदेह है। लेकिन जगह-जगह जीवन के अलग-अलग मौकों पर महाभारत की कहानी से कुछ उपमाएँ हमारे यहाँ दी जाती रही हैं। या फिर मौके-बेमौके पात्रों की तुलना हम लोगों से भी करते रहते हैं जैसे हमारे यहाँ चुप्पी से भीष्म का, कुटिलता से शकुनी मामा का, मोह से धृतराष्ट्र का, ताकत या ज्यादा खाने या विशाल शरीर से भीम का तो सीधा संबंध ही मान कर चला जाता है। इसी क्रम में मैं आज महाभारत और उस युद्ध में शामिल एक प्रमुख पात्र अर्जुन पर कुछ विचार रखना चाहता हूँ। यद्यपि यह मैं मानता हूँ कि यह कहानी वास्तविक नहीं है, फिर भी इस पर अपने ये विचार रख रहा हूँ।

मंगलवार, 28 जून 2011

भगतसिंह के नास्तिक होने की बात को ही झुठलाने की कोशिश

भगतसिंह और नास्तिकता का मुद्दा अभी भी जोरों पर है। कल वाली पोस्ट के बाद भी टिप्पणियों का शोर थमा नहीं है। मैं खुद चकित हूँ कि इस तरह टिप्पणियाँ होती रहीं, तो कुछ ही दिनों में किताब का रुप अख्तियार कर लेंगी। फिर मैं आपके सामने आगे की टिप्पणियाँ दे रहा हूँ। कुछ चीजें जो व्यक्तिगत हैं, उन्हें देने की कोई जरूरत तो नहीं है लेकिन उन्हें हटाने से कुछ बातें स्पष्ट नहीं हो पाएंगी और वैसे भी चिट्ठा यानि ब्लॉग है तो कुछ कुछ डायरी जैसा भी। 

पहले की टिप्पणियों के लिए पिछली पोस्ट देखें। इस बार दो नए लोग बहस में शामिल हुए हैं। पहले आते हैं अमर कुमार जो कुछ देर के लिए अपनी बात या कहिए आपत्ति रखते हैं और बाद में स्मार्ट साहब अपनी बात कह जाते हैं। थोड़े गुस्से में हैं। तभी आगमन होता है इस नाटक के एक नए पात्र ग्लोबल अग्रवाल का जो भगतसिंह के नास्तिक होने पर ही सवाल खड़ा करता आलेख थमा जाते हैं। मैंने उनकी हर बात का जवाब अपनी समझ से देने की कोशिश की है। यह बहस अभी चलती रहेगी या समाप्त भी होगी, यह नहीं कहा जा सकता। 

सोमवार, 27 जून 2011

अब भगतसिंह के 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' पर ही उठा दी गई अंगुली

जी हाँ। अब भगतसिंह के लिखे आलेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' पर ही अंगुली उठाते हुए पिछली पोस्ट वाले स्मार्ट इंडियन अपने शक की सूई चुभोना चाह रहे हैं। इस आलेख में मैं अनवरत पर हुई चर्चा के उन अंशों को दे रहा हूँ जिनमें भगतसिंह के आलेख पर संदेह किया गया है।

मैं अक्सर अपनी टिप्पणियाँ दूसरे चिट्ठों पर करता हूँ और वह इस लायक हो जाते हैं कि उन्हें पूरे आलेख में आपके सामने रखा जा सकता है। मेरा मानना है कि इस तरह की टिप्पणियों वाले आलेखों में अच्छी बातें सामने आती हैं। अब अफसोस इस बात का है कि ऐसा करते समय किसी खास आदमी को केंद्र में रखना पड़ जाता है। और यह अच्छा नहीं लगने पर भी करना आवश्यक लगता है क्योंकि बहुत सारे सवाल-जवाब के क्रम में बहुत सी नई बातें और विचार सामने आते हैं। इसलिए आज पढ़िए यह आलेख।

रविवार, 26 जून 2011

लीजिए सुन लीजिए मेरे जवाब


(http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/06/blog-post.html पर स्मार्ट इंडियन के सवालों और हंसराज यानि सुज्ञ की बातों के जवाब जो मैंने सुज्ञ के चिट्ठे पर दिया है, यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। माफ़ी चाहता हूँ कि ऐसी चीज डालनी पड़ी लेकिन जवाब देना मेरे खयाल से आवश्यक था। यह जवाब इतना लम्बा हो गया कि इसमें 6000 शब्द लग गए।  इतने लम्बे आलेख या जवाब को पढ़ने के लिए समय तो ज्यादा लगेगा लेकिन उम्मीद करता हूं कि आप भी कुछ समझ पाएंगे इससे।)

शनिवार, 25 जून 2011

ईश्वर है ?

(आज से लगभग डेढ़ साल पहले एक आलेख लिखा था, वही आपके सामने है। मेरे विचारों में थोड़ा अन्तर भी आया है और समय के साथ आते रहना चाहिए क्योंकि यही चेतन होने का प्रमाण है। जड़ चीजों में परिवर्तन नहीं होता।

      कुछ बातें अगर किसी को दु:ख पहुँचायें तो माफी चाहूंगा।)

दुनिया के प्रायः सभी धर्म ईश्वर को ही इस संसार का रचयिता मानते हैं। ईश्वर को सर्वशक्तिमान, अत्यंत दयालु और न जाने क्या क्या कहा जाता है। कोई भी पूरी तरह से सुखी नहीं है। गरीब के दुखों के बारे में पूछना तो बेकार ही है। अमीरों के दुखों की कहानी भी कम नहीं है। किसी को औलाद नहीं है, का दुख है। कोई बेरोजगार है, इसलिए दुखी है। जिसके पास नौकरी है, औलाद है, दौलत है सब कुछ है, उसे भय है चोरी का, औलाद के बुरे हो जाने का, नौकरी छिन जाने का और न जाने और कितने ही भय से वह आक्रांत है।

शुक्रवार, 24 जून 2011

कहीं यह इलेक्ट्रान ही भगवान तो नहीं है?


जिन लोगों ने थोड़ा सा भी विज्ञान पढ़ा है उन्होंने निश्चय ही परमाणु संरचना पढ़ी होगी। ईश्वर की सत्ता स्वीकार करनेवालों का कहना है कि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। हवा में भी, पानी में भी, जहर में भी, शराब में भी, दूध में भी, माटी में भी, आग में भी, कुर्सी में भी, आदमी में भी, लादेन में भी, जार्ज बुश में भी, मनमोहन सिंह में भी, कांग्रेस में भी, सोनिया गाँधी में भी, भगतसिंह में भी, सैंडर्स में भी, राबर्ट क्लाइव में भी, सिराजुद्दौला में भी, कमीने मीरजाफ़र में भी, आतंकवादी में भी, सेना में भी, भ्रष्टाचार में भी, भ्रष्टाचार के विरोध में लड़ने वाले में भी, चोर में भी कोतवाल में भी यानि हर जगह। क्या अद्भुत विचार है!

कैमरा (कविता)


कैमरा
फोटो खींचकर
बचा लेता है आदमी को
कम-से-कम
एलबम में भी।

यह देखिए ब्लागर की भूल

ब्लागर कम से कम पिछले छ: सालों से हिन्दी में है, ठीक से मुझे नहीं पता। लेकिन हिन्दी में एक भूल यह हमेशा से करता आया है वह नीचे चित्र में देखिए।



गुरुवार, 23 जून 2011

आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन है 23 जून


23 जून 2011 यानि भारत के महापतन का 244 साल पूरे हो गए। जी हाँ, 23 जून 1757 के दिन ही भारत में अंग्रेजी राज्य का संस्थापक राबर्ट क्लाइव भारत में विजेता बना था। सिराजुद्दौला की हार का कारण बना था मीरजाफर। अलग अलग जगहों पर भारतीय सेना और ब्रिटिश सेना की संख्या अलग-अलग दी गई है लेकिन हर जगह एक बात साफ है यह युद्ध लालच और पदलोपुपता के चलते हारकर भारत ने अपने इतिहास में सबसे काला दिन लिख दिया। इस वजह से अंग्रेजी सरकारों और गद्दार हिन्दुस्तानियों के चलते हमारे देश के लाखों लोग मारे गए। अगर देखा जाए तो सबकी मौत का कारण है- अकेला मीरजाफर। यह दुष्ट सिराजुद्दौला की सेना का सेनापति था। सिराजुद्दौला जिसने सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ने की ठानी लेकिन बेचारा देश को बेचने वालों की वजह से मारा गया।
उसी पलासी के मैदान का रेखाचित्र जहाँ 23 जून 1757 को सिराजुद्दौला के सैनिकों ने देश के लिए अपनी जान गँवाई।

एक अधूरा लेख


पिछले दो-तीन दिनों से ईश्वर पर बहस अभी ढंग से खत्म नहीं हुई कि आज पुनर्जन्म को लेकर फिर बहस छिड़ गई। सवाल पर सवाल और बस सवाल पर सवाल। वही पुराना झगड़ा ईश्वर है कि नहीं। वैसे एक बात ध्यान देने लायक है कि जब भी बहस होती है तो ईश्वर शब्द ही क्यों आ जाता है, भगवान या खुदा क्यों नहीं। इसमें कुछ बात हो सकती है। फिलहाल मैं कुछ बातें आपसे कहना चाहता हूँ। कुछ सवाल मुझसे पूछे गए थे और कुछ मैंने भी पूछे। मुझे अपने सवालों के सही जवाब की आशा नहीं है क्योंकि लालबुझक्कड़ लोग सवालों का जवाब क्या देंगे, वे और उनकी समझ खुद ही एक सवाल बन जाते हैं।

शनिवार, 18 जून 2011

देशभक्ति और ग्लोबल सिटिजनशीप

पहले एक व्यक्ति से आपका परिचय कराते हैं। एक परिचित हैं मेरे। नाम नहीं लूंगा। नेपाल के रहनेवाले हैं। मेरे साथ दो-तीन साल तक पढ़ते रहे हैं। उनका एक बार-बार दुहराया जानेवाल कथन था(शायद अब भी हो)- आई हेट हिन्दी। अंग्रेजी को खूब पसन्द करते हैं। वे हमारे देश के वासी नहीं हैं। इसलिए मुझे उनसे हिन्दी को लेकर ज्यादा बहस नहीं करनी होती है। 

मैंने उन्हें बताया है कि मैं अंग्रेजी के खिलाफ़ एक किताब लिख रहा हूँ। ये बात वे जानते हैं। यहाँ सबसे बड़ा मुद्दा है देशभक्ति और ग्लोबल सिटिजन होने का।


उनका एक मेल आया है मेरे पास। उसके कुछ अंश पढ़िए।

शुक्रवार, 17 जून 2011

मजेदार पत्र-व्यवहार एक ज्योतिषी से


एक दिन पहले एक ज्योतिषी की जाँच करने की इच्छा हुई। मैंने अपना नाम, जन्म तिथि और जन्म स्थान लिखकर भेज दिया। जवाब आया। मैंने फिर अपना जवाब भेज दिया। उन्हीं संदेशों को यहाँ रख रहा हूँ कि मेरी समझ में थोड़ा मजा आएगा ही।
      मैं उन ज्योतिषी महोदय का नाम यहाँ नहीं दे रहा हूँ क्योंकि वे भी चिट्ठेकार(ब्लागर) हैं। वैसे उनको वत्स शब्द से संबोधित करने की इच्छा हो रही थी।
     

सोमवार, 13 जून 2011

झूठी प्रतिभा का शोर मचाते अखबार


बिहार में इंटर के परिणाम घोषित हो चुके हैं। इसलिए इस परिणाम पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है। भारत में एक मौसम होता है परीक्षाओं का और दूसरा उनके परिणामों का। लाखों छात्र सबसे पहले परिणाम देखने के लिए बेचैन हो जाते हैं और एक होड़ शुरु हो जाती है कि पहले परीक्षा-परिणाम कौन जान जाता है? इसी बेचैनी का फायदा सारे साइबर-कैफे उठाना शुरु करते हैं। और जम कर लूटते हैं। अगर मैं हिसाब बताऊँ तो साफ हो जाएगा। छोटे शहरों में 20-25 से लेकर कभी-कभी 40 रूपये तक इस परिणाम के लिए वसूले जाते हैं। अगर एक घंटे में 40 छात्रों का भी परिणाम ये साइबर कैफे वाले देखें और अंक-पत्र छाप कर दें, तो 40 * 15(अगर पंद्रह रूपये भी लिए जाएँ तो) रूपये के हिसाब से 600 रूपये वसूल लिए जाते हैं। अब खर्च देखें तो इस एक घंटे में किसी भी जगह 60 रूपये भी खर्च नहीं हो सकते। इसमें आप उनके दुकान का किराया, बिजली का खर्च, कागज का खर्च, इंटरनेट का खर्च सब जोड़ दें तो आप देखेंगे कि लाभ 900 प्रतिशत से 1000-2000-3000 प्रतिशत तक होता है। अब इसे चोरी नहीं कहें तो क्या कहें?

शुक्रवार, 10 जून 2011

वरदान का फेर (नाट्य रुपांतरण, तीसरा और अन्तिम भाग)



पहला भाग       दूसरा भाग                      


तीसरा दृश्य

( मंच पर एक चारपाई है। उसपर महात्माजी आराम कर रहे हैं। )
वाचक: चारपाई में बहुत अधिक खटमल थे। इनके सोते ही खटमलों ने धावा बोल दिया। इतना अधिक भोजन किया कि करवट बदलने में भी तकलीफ होती थी। खटमलों ने काटना शुरु किया। महात्माजी त्राहि-त्राहि करने लगे।) बुद्धूदेव: ब्रह्माजी! मैं अभी आपसे 3 वरदान मांगता हूँ। पहला वरदान मुझे यह दीजिए कि अभी फौरन इन खटमलों को मार डालिए। अभी मेरा पेट दुख रहा है। इसलिए मुझे दूसरा वरदान यह दीजिए कि किसी वैद्य के यहाँ से कोई पाचक की गोली मांग लाइए और तीसरा वरदान मैं यही सोचता हूँ कि जब मैं चाहूं तब आपसे 3 वरदान मांग लूं। ( ब्रह्माजी खटमलों को मारना शुरु करते हैं। फिर मंच से चले जाते हैं )

गुरुवार, 9 जून 2011

काहिल अधिकारियों के भरोसे है मढौरा बिजली आफिस

मढौरा, सारण।


जनता की सुविधाओं के प्रति सरकार कितनी लापरवाह है इसका एक उदाहरण सारण जिले के मढौरा के बिजली आफिस में हो रही भयंकर लापरवाही है। हुआ कुछ यों कि 18 मई की रात को आँधी-तूफान आने के बाद स्टेशन रोड का ट्रांसफार्मर जल गया और पूरे इलाके में अंधेरे का राज कायम हो गया। लाइनमैन ने अगले दिन अधिकारी को सूचित कर दिया। मढौरा बिजली आफिस के एस डी ओ लम्बे समय से अपना प्रभार ओवरसियर को सौंप कर छुट्टी पर हैं। लेकिन ओवरसियर और अन्य कर्मचारियों की लापरवाही का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इन लोगों ने छपरा कार्यालय को 30 मई तक कोई सूचना नहीं दी। इसी बीच यह सुनने में आया कि ट्रांसफार्मर के लिए चन्दा इकट्ठा किया जा रहा है और 200 केवीए क्षमता के ट्रांसफार्मर के लिए लगभग 15-20 हजार रूपयों की जरूरत है। लोगों ने सरकार की देरी से तंग आकर चंदा देकर ही ट्रांसफार्मर लगवाने की सोची।

सोमवार, 6 जून 2011

एक साधारण आदमी की बात



मैं एक साधारण आदमी हूँ और मुझे  विदेश व्यापार, सकल घरेलू उत्पाद, आय-व्यय की कोई समझ नहीं। मुझे अपना हिस्सा चाहिए। जब मैं आठ घंटे काम करता हूँ तो मुझे अधिक से अधिक डेढ़ सौ रूपये मिलते हैं लेकिन बल्ला और गेंद लेकर मुझसे हजार नहीं लाख गुनी कम मेहनत करनेवाला आदमी एक दिन में डेढ़ लाख या डेढ़ करोड़ रूपये क्यों लेता है? सुनाई पड़ता है कि हर आदमी पर इतना विदेशी कर्ज है। यह विदेशी कर्ज मैंने नहीं लिया है। जिन्होंने लिया है वे भाजपाई भी थे, कांग्रेसी भी थे और सबने एक ही काम किया है। कर्ज चुकाने के लिए मेरे मेहनत का सामान खाकर और बेचकर ये झूठ बोलते हैं और फिर कर्ज ले डालते हैं। कब तक कर्ज लेंगे ये? कर्ज लेकर वैसे भी इन्होंने किया क्या है, अपनी सुख-सुविधा में कोई कमी न हो इसके सारे उपाय किए हैं। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मंदी आई कि नहीं, विश्व व्यापार और विदेश व्यापार में क्या हो रहा है, ये जानकर मैं क्या करूंगा? ये सब मेरे काम के नहीं हैं।
           पूरी दुनिया में भारतीय लोकतंत्र कलंकित हो गया। यह वाक्य बहुत जगह सुनने को मिल रहा है। लेकिन कब प्रशंसित था यह भारतीय लोकतंत्र ? भाजपा ने अपने जाल फैलाने शुरु कर दिए हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या 2004 से 2011 तक मात्र सात सालों में ही 400 लाख करोड़ की सम्पत्ति विदेशों में जमा कर ली गई? यह सरासर झूठ है। हो सकता है कि समूचे काले धन का अधिकतम पंद्रह-बीस प्रतिशत हिस्सा इन सात सालों में जमा किया गया हो। लेकिन 2004 से पहले, अगर हम 400 लाख करोड़ की बात करें तब, कम से कम 300 लाख करोड़ रूपये तो जमा हो चुके थे। 1998 से 2004 तक भाजपाई कहाँ थे? क्यों नहीं उठाया गया ये मुद्दा उस समय। अगर नहीं उठाया गया तो आज किस मुँह से आडवाणी, स्वराज, जेटली, राजनाथ आदि सत्याग्रह करने चले? ये सब के सब मिले हुए हैं। इन सबको देश से बाहर फेंक दिया जाना चाहिए था। वाजपेयी सरकार की उपलब्धियाँ क्या हैं? कुछ लोग सड़कें दिखाते हैं। क्या मैं सड़क चबाता हूँ? और अच्छी सड़कों की जरूरत मुझे है भी क्या जब मेरे पास गाड़ी नहीं है। और न ही मेरे पास ऐसे कपड़े हैं जिनपर बरसात में कच्ची सड़कों पर कींचड़ लगने से वे गंदे हो जाएंगे।
कुछ अर्थशास्त्र का हिसाब समझाते हैं। यह बजट बनता ही कहाँ है मेरे लिए और मुझे इस अर्थशास्त्र से क्या मतलब है जिसमें बड़ी-बड़ी बातें लिखी हैं? मैं छोटा आदमी हूँ।
कुछ स्कूल, इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज, मैनेजमेंट कालेज दिखाते हैं। मैं क्या करूंगा इन सबका। मुझे और मेरे जैसे लोगों के लिए इसमें जगह है कहाँ? और अगर जगह मिल भी जाय तो क्या है, किया क्या है उन लोगों ने जो इन कालेजों में पता नहीं क्या-क्या पढ़ते थे।
 कभी-कभार कुछ हम जैसे घुस जाते हैं इन कालेजों में तो ये शोर मचाते हैं कि देखो किसान का बेटा, मजदूर का बेटा आई ए एस बन गया। ये अखबार जिनकी कीमत तीन-चार रूपये है, इनका मैं करुंगा क्या? ये चैनल और मीडिया हल्ला करते हैं कि देखो इस खिलाड़ी की पत्नी ने उस खिलाड़ी के साथ भोजन किया या यह फिल्मी मदारी उस हीरोइन के साथ उस पार्क में देखा गया। ये मीडिया चिल्लाता है कि देखो एक मजदूर का बेटा आई आई टी की परीक्षा में पास हो गया। जैसे यह कोई आश्चर्य हो। ये तो लगता है कि चेतावनी है कि नेताओं सावधान! कोई दूसरा हमारे घर में, हमारे हरम में घुस रहा है, सावधान हो जाओ। या इसकी खुशी है कि एक और बुद्धिशाली आदमी नेताओं के काम में आएगा और ये उसे चोरी की नई-नई तरकीबें सिखाकर बड़ा चोर बनाएंगे।
प्रधानमंत्री के नाम पर योजनाएँ चलती हैं। अपने घरवालों के नाम पर योजनाएँ चलती हैं लेकिन मुझे इससे क्या मिला? 1947 से 2011 तक कुल उपलब्धि क्या है मेरे लिए, मेरे जैसों के लिए? कुछ नहीं है उपलब्धि! ये सब तमाशा है। ये दिखाते हैं कि देश में पहले इतने अरबपति थे, अब इतने हैं। मुझे इन अरबपतियों से क्या लेना देना? दो रूपये की आमदनी हो तो सरकारें चिल्लाती हैं कि दो रूपये मिले हैं लेकिन जब हजारों करोड़ का घाटा होता है तब सब एसी कमरों में जश्न मना रहे होते हैं। और सब मिलाकर होता तो घाटा ही है।  
कुछ दिखाते हैं कि देखो, शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ गई है। गली-गली में कोचिंग खुल गए हैं। लेकिन ये सब के सब दस गुना फायदा लेते हैं। व्यापारी से कई गुना चोरी करते हैं ये सब।
बन्द करो ये बकवास! मुझे तुम्हारी इन बातों से कोई लेना-देना नहीं, होगे तुम बड़े अर्थशास्त्री, नाम होगा तुम्हारा देश-विदेश में। तुम्हारे नाम पर विदेश में छात्रवृत्ति दी जाती होगी, लेकिन तुमने मेरे जैसे 90 करोड़ लोगों दिया क्या है? झूठा है तुम्हारा अर्थशास्त्र, भरमाना पढ़े-लिखों को, बड़ी-बड़ी बातें करके ठगना उन लोगों को जिनके पास विलासिता के सामान हैं, जिन्होंने अपने हक से हजार गुना ज्यादा इकट्ठा कर लिया है या कहो कि चोरी कर ली है। झूठे हो तुम और तुम्हारा ये सबकुछ! बन्द करो ये पढ़ाई-लिखाई, सब के सब तमाशे देखता रहा हूँ और अब पूरी तरह समझ गया हूँ कि तुम सब एक ही खेत की मूली हो और देश को लूटो चाहे नहीं लूटो मुझे और मेरे जैसों को तो जरूर लूटा है तुम सब ने।
मैं साधारण आदमी हूँ। छोटी-छोटी बातें समझता हूँ। दो-चार रूपये के हिसाब भी समझ ले सकता हूँ लेकिन चोर तो नहीं हूँ। 

रविवार, 5 जून 2011

दोलन बन गया बाबा रामदेव का आंदोलन


पिछले आलेख में मैंने लिखा था कि बाबा रामदेव के साथ क्या-क्या हो सकता है। लेकिन वह आलेख सभी बातों और संभावनाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया था। मेरे मन में तो पहले से ही था कि बाबा का यह अनशन बेकार होनेवाला है और आखिरकार पुलिस ने बाबा और उनके साथियों को समझा दिया कि अंग्रेजों से लड़ने का मतलब क्या होता है?

शनिवार, 4 जून 2011

लालू और नीतीश की तरह बेवकूफी कर रहे हैं बाबा रामदेव

निस्संदेह बाबा रामदेव दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाले लोगों में से एक हैं या संभव हो सबसे तेजी से बढ़ने वाले ही यही हों। कोई आदमी अभी तक इस रफ़्तार से न तो अमीर बन सका है और न ही किसी के आन्दोलन के शुरुआत में ही इतने लोगों ने किसी का साथ दिया है। लेकिन अभी ठीक उसी तरह की बेवकूफी यह कर रहे हैं जैसी बिहार में लालू और नीतीश करते रहे हैं। कहने का मतलब यह कि इन सभी के पास जो जनसमर्थन था या है, वह इन सबको इतिहास के निर्माताओं में जगह दिला सकता था। लेकिन बिहार में लालू और नीतीश दोनों नशे में चूर हो गए और इन्होंने अपने अल्पकालिक लाभ या सनक के लिए अपना सुंदर भविष्य एकदम नष्ट कर डाला। जब तक घटना घट रही होती है या समय गुजर रहा होता है, सभी हल्ला मचाते हैं लेकिन इतिहास उपलब्धियों और हारों का होता है, युग-निर्माताओं का होता है, युद्धों का होता है।

गुरुवार, 2 जून 2011

सुशासन के बिहार में अपराध का सच


कौन कह रहा है कि बिहार में अपराध में कमी आई है। जी हाँ, जब बिहार सरकार खुद यह नहीं कहती तब औरों के कहने से क्या होता है? बिहार सरकार की पुलिस विभाग की वेबसाइट पर 2001 से लेकर फरवरी 2011 तक के अपराधों और पुलिस के संज्ञान में आने वाली सभी घटनाओं की संख्या दी गई है।