शुक्रवार, 10 जून 2011

वरदान का फेर (नाट्य रुपांतरण, तीसरा और अन्तिम भाग)



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तीसरा दृश्य

( मंच पर एक चारपाई है। उसपर महात्माजी आराम कर रहे हैं। )
वाचक: चारपाई में बहुत अधिक खटमल थे। इनके सोते ही खटमलों ने धावा बोल दिया। इतना अधिक भोजन किया कि करवट बदलने में भी तकलीफ होती थी। खटमलों ने काटना शुरु किया। महात्माजी त्राहि-त्राहि करने लगे।) बुद्धूदेव: ब्रह्माजी! मैं अभी आपसे 3 वरदान मांगता हूँ। पहला वरदान मुझे यह दीजिए कि अभी फौरन इन खटमलों को मार डालिए। अभी मेरा पेट दुख रहा है। इसलिए मुझे दूसरा वरदान यह दीजिए कि किसी वैद्य के यहाँ से कोई पाचक की गोली मांग लाइए और तीसरा वरदान मैं यही सोचता हूँ कि जब मैं चाहूं तब आपसे 3 वरदान मांग लूं। ( ब्रह्माजी खटमलों को मारना शुरु करते हैं। फिर मंच से चले जाते हैं )
वाचक: ब्रह्माजी यमलोक पहुँचकर वैद्यजी के यहाँ गए। उनसे पाचक की गोली मांगकर बुद्धूदेव को खिलाई। तब ब्रह्माजी अपने लोक पहुँच सके। ऐसे महात्मा के ऊपर महामूर्ख कवि बकलोलानंद बुद्धू ने एक महाकाव्य की रचना की। ( मंच पर बुद्धूदेव एक धोती पहने ( हजामत बनवा लिया। दाढ़ी नहीं है। ) घूम रहे हैं। तभी राजा का साईस( साईस कहते हैं घोड़े की देखभाल करने वाले को यानि अश्वपालक या अश्वरक्षक) आता है। साईस घसकटे को ढ़ूंढ़ रहा है। अचानक उसकी नजर बुद्धूदेव पर पड़ती है।) साईस: तू घसियारा है? बुद्धूदेव: (क्रोधित होकर) मुझे कौन घसियारा कहता है? देखता नहीं है, मैं महात्मा हूँ? साईस: अच्छा, अगर तू घसियारा नहीं है तो जरा चलकर घोड़े की लीद तो उठा ला। (महात्माजी तिलमिला गये।) वाचक: देखने में इनकी सूरत ही ऐसी थी कि इन्हें महात्मा समझना मुश्किल था। बुद्धूदेव: ब्रह्माजी! अभी तुरत इस पाजी को 3 घूंसा मारिये, फिर इसको पटक कर सिर मूंड दीजिये और तीसरा वरदान यह दीजिये कि मैं जब चाहूँ तब आपसे 3 वरदान मांग लूं। (ब्रह्माजी ने सोचा) ब्रह्माजी: (धीरे से) अजब बुद्धू है। कोई बढ़िया वरदान तो मांगता नहीं, मुफ़्त में हैरान किया करता है। दुनियाँ में यह वरदान का झमेला न रहता तो कितना अच्छा था? ( साईस को 3 घूंसे मारकर उन्होंने सिर मूंड़े) वाचक: आइए अब हम सब महात्माजी कि एक नयी करामात देखें। ( बुद्धूदेव जी खा रहे हैं। एकाएक सोचते हैं)- बुद्धूदेव: आज बैंगन की पकौड़ी और कुछ दही-बड़े होते तो कितना अच्छा था! (फिर दोनों हाथ जोड़ते हैं) हे प्रभो, कृपा करके कहीं से पाव भर बैंगन की पकौड़ियां लेते आइए। मेहरबानी करके 2-4 दही-बड़े भी लेते आइएगा और तीसरा वरदान यह दें कि जब मैं चाहूं 3 वरदान और मांग लूं। वाचक: इस प्रकार बुद्धूदेव को जिस चीज की जरुरत होती ब्रह्माजी को पुकार कर उसी का वरदान मांग लेते। आख़िर एक दिन ब्रह्माजी को चालाकी सूझी। ( मंच पर बुद्धूदेव बैठे हैं। ब्रह्माजी आते हैं। हाथ जोड़कर महात्माजी प्रणाम करते हैं।) ब्रह्माजी: वत्स, क्यों परेशान होते हो इस संसार में? चल आज तुमको मैं स्वर्ग ले चलता हूँ। वहाँ किसी चीज की कमी नहीं होगी। (बुद्धूदेव मान गए। साथ ही मंच पर से चले जाते हैं।) वाचक: स्वर्ग में कुछ दिन रहने के बाद एक दिन ब्रह्माजी से बुद्धूदेव जी ने अपना निर्णय सुनाया। बुद्धूदेवजी:( मंच पर ब्रह्माजी, इंद्र, बुद्धूदेव जी बैठे हैं) अब मैं दुनिया में जाना नहीं चाहता। वाचक: ब्रह्माजी तो यही चाहते थे। इन्हें स्वर्ग में रख दिया। उसी दिन एक कानून बना। ब्रह्माजी: केवल भगवान् के नाम पर तपस्या करनेवालों को उसकी मनचाही चीज वरदान में नहीं मिलेगी। अगर उन्हें शौक हो तो वे उसके लिए परिश्रम करें। ( सब चले जाते हैं)वाचक: तब से देवलोक में यही नियम चलता है, और किसी को भी वरदान नहीं दिया जाता। केवल वास्तविक परिश्रम का पुरस्कार दिया जाता है।
(समाप्त)

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