हाल में फेसबुक पर लिखा था....
फेसबुक पर निजी बातें नहीं लिखता रहा हूँ। समाज से बातों का जुड़ाव रहे, ऐसी कोशिश रही है। लेकिन आज एक निजी बात......
मई, 2006 में मुझे कृष्ण पर कुछ लिखने का (सच कहूँ तो महाकाव्य लिखने का, भले ई बुझाय चाहे नहीं बुझाय कि महाकाव्य क्या है :) ) मन हुआ। जमकर भक्तिभाव से चौपाइयाँ, दोहे लिखा। पहला दोहा था।
अतिप्रिय राधाकृष्ण को करूँ नमन कत बार।
कौन पूछता है मुझे थक गये जब कर्तार॥
फिर उसी साल दो-चार पन्ने लिखे तब तक धर्म और भगवान से विश्वास उठ गया और फ़िर आज मैं वह नहीं हूँ, जो पहले था।
कैसे भक्ति के 'महान' गाने रवीन्द्र की गीतांजलि बन जाते हैं, या विनय पत्रिका, इसका गवाह मैं स्वयं हूँ! सब बस एक पागलपन है, कोरी कल्पना है। भक्ति गीत गाने से कैसे आँसू बहने लग सकते हैं, यह भी आस्तिकता के समय मैंने महसूस किया।
चलिए वह रचना यहाँ रख देते हैं। आस्तिकता के लगभग सभी चरणों या कुछ अनुभवों से गुजरने के बाद यह रचना हुई थी। आज की बात साफ़ अलग है। खैर, छोड़िए। "श्रीकृष्ण दर्शन" नाम से लिखने का इरादा किया था इसे। तीन दिन लिखने के बाद काम बंद! सो उतना ही है।
॥ श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ॥
दोहा – अतिप्रिय राधा कृष्ण को, करूं नमन कत बार । (?)
कौन पूछता है मुझे , थक गये जब कर्त्तार ॥
चौपाई:
कोटि-कोटि वंदन महेश की । और साथ नंदन गणेश की ॥
देवराज औ’ पावक अक्षर । जन्मभूमि औ’ जननी भाष्कर ॥
पवन पवनसुत श्रीहनुमत की । वसुंधरा गोकुल भारत की ॥
वेद पुराण ग्रंथ गीता की । वृंदावन औ’ मां सीता की ॥
छंद : भारती तुलसी गुरु से, विनती अब चंदन करे ।
वाल्मीकि धनदेव की , भाँति विविध वंदन करे ॥
भूधर नदी पंकज सुमन, जो सृष्टि का श्रृंगार है ।
और जलधि जल जलद को, नमन शत-शत बार है ॥
चौपाई:
सूर मनोज अन्न अंबर की । संत सकल तरुवर हिमकर की ॥
दुर्गा मीरा गोपी सब की । मारे कृष्ण नदी में डुबकी ॥
वास करो मन में नारायण । लगे कृष्णमय हर क्षण हर कण ॥
दोहा: ‘रा’ निकले ज्योहिं मुख से, त्योहिं मिले आनंद ।
‘म’ कहते मुख बंद हुआ, राम नाम सुख कंद ॥ (i)
यमुना को मैं कर रहा, अगणित बार प्रणाम ।
गंगा को सुमिरण करूं, जो है श्रीसुख धाम ॥
-04.05.06
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चौपाई:
कलि सत त्रेता युग द्वापर औ’ । नवरस नभचर छंद अमर औ’ ॥
मीन कमठ शूकर वामन की । दसावतार विष्णु भगवन की ॥
परशुराम राघव हलधर की । कृष्ण बुद्ध कल्कि नरवर की ॥
छंद: वंदना मेरी सुनो हे, ध्यान दे केशव जरा ।
है ये मस्तक क्या करूं, अज्ञान सागर से भरा ॥
तेरे बिना इस मूढ़ का, क्यों चित्त रमता है यहाँ ॥
चौ.
कवि भाषाविद् कितने आये । अंश अरब भी कह क्या पाये ॥(?)
कृष्ण कन्हैया अंतरयामी । क्षमा चाहता नीचा कामी ॥
दो.
इसने दु:साहस किया, क्षमा करो घनश्याम ।
लीला तव गाने चला, जिसका चंदन नाम ॥(2)
तुम ही मेरे इष्ट हो, तुम ही मेरे तात ।
तुम ही मेरे हो सभी , पिता प्रभु भी मात ॥
-05.05.06
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चौ.
धन्य धन्य मेरा विद्यालय । शिक्षादाताओं की जय-जय ॥
मिले जहाँ चिंतन के डैने । भाषा सीखी जिनसे मैंने ॥
हे हिंदी भाषानिर्माता ! औ’ संस्कृत हे भाषामाता ॥
नमस्कार सब भाषाओं की । सभी ज्ञान के दाताओं की ॥
छं. यंत्र के निर्माणकर्त्ता, और सभी वैज्ञानिकों ।
इस जगत के रत्नगृह के, हे अमूल्य श्रीमाणिकों ॥
कविता जगत के नरवरों, रचना तुम्हारी अमर हो ।
देवगुरु वाचस्पति के, श्रीचरणों में ये सर हो ॥
चौ.
सृष्टिसहायक जन्म मरण की । दुराचार औ’ सदाचरण की ॥
दुराचार अगर नहीं रहते । प्रभु-महिमा सब कैसे कहते ॥
धरती पालक सब किसान की । रसना, मानव तन महान की ॥
दो. दिशा अंक दस देश सब, धर्म अर्थ औ’ काम ।
चंदन सबको नमन है, मोक्ष सहित तव नाम ॥(3)
-08.05.06
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कविताई तो अच्छी की है।
जवाब देंहटाएंअच्छा निबह रहा है.
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी कवितायी है चंदन!
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