21 जून को हिन्दी फ़िल्मों पर कुछ विचार लिखकर रखे, जिनमें भाषा, कथा आदि पर अपना पक्ष रखने की कोशि श थी। उसी लेख के संपादित और परिवर्धित रूप को तीन हिस्सों में यहाँ बाँट रहा हूँ। आज तीसरा और अन्तिम हिस्सा प्रस्तुत है।
भाषा को वर्तमान भारत में बहुत महत्वपूर्ण माननेवाले लोगों की संख्या कम ही लगती है। अधिकांश लोगों और चिंतक कहे जानेवाले लोगों में यह बात ज़्यादा प्रचलित हो चुकी है कि भाषा एक बिलकुल सामान्य या लगभग महत्वहीन मुद्दा है। अधिकांश तथाकथित चिंतकों को भाषा के नाम पर की जानवाली बहसें, गम्भीर विचार बेकार की लफ़्फ़ाजी ही मालूम पड़ते हैं। वहीं ऐसे लोग भी हैं, जो यह मानते हैं कि भाषा एक ज़रूरी मुद्दा तो है, लेकिन उसपर ध्यान देने की कोई कोशि श करते वे नज़र नहीं आते। भाषा को आधार मानकर फ़िल्मों पर दृष्टि डालने से यह निष्कर्ष सामने आता दिखता है कि जनसाधारण की भाषा फ़िल्मों में नहीं है, वह बुर्जुआ संस्कृति की वाहिका होती जा रही है।
फ़िल्मों पर लिखना शुरू करने पर सबसे पहले भाषा को लेकर ही लिखा था, आज भाषा पर कुछ बातें...
बुर्जुआ भाषा वालीं हिन्दी फ़िल्में
भारत में सबसे ज़्यादा फ़िल्में हिन्दी के नाम पर बनती हैं। यह और बात है कि उन फ़िल्मों में हिन्दी दाल में नमक की तरह भी हो सकती है। भाषा की दृष्टि से अगर हम इन हिन्दी फ़िल्मों पर विचार करें, तो यह बात सामने आती है कि इन फ़िल्मों का दर्शक वर्ग जिसे लक्ष्य करके फ़िल्म बनाई गई होती है, पूँजीवा दी मानसिकता और पूँजीवादी बुर्जुआ चेतना में ही जी रहा होता है। यहाँ मुख्य रूप से हम उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद बनी फ़िल्मों पर ही विचार करेंगे।
1990 के बाद बनी हिन्दी फ़िल्मों के नाम अंगरेज़ी या हिंगरेज़ी में रखे जाने लगे। 1990 के पहले भी फ़िल्मों के नाम पर अंगरेज़ी या अंगरेज़ी मिश्रित होते थे, लेकि न उनका प्रतिशत बहुत कम या नगण्य था। लेकिन यह प्रचलन 1990 के बाद जोरों से बढ़ा है। मामला सिर्फ़ नाम का नहीं है, यह मुद्दा एक संस्कृति का है, दर्शकों और निर्माताओं की चेतना का है। कहने की ज़रूरत नहीं कि अंगरेज़ी समझ नेवाले दर्शकों का प्रतिशत कितना है। फ़िल्मों में नाम के बाद अगर संवाद की भाषा पर बात करें, तो आलम यह है कि छोटे शहर में रहनेवाले सापेक्षतः थोड़ी अंगरेज़ी समझनेवाले भी इन दिनों बननेवाली किसी फ़िल्म के सारे संवाद समझने की स्थिति में नहीं कहे जा सकते। उदाहरण के लिए पटना, जो बिहार की राजधानी है और देश के प्रमुख शहरों में जिसकी गिनती की जाती है, में रहनेवाले वैसे दर्शक जो स्नातक स्तर की शिक्षा ले रहे हैं, शायद ही उनमें से दस प्रतिशत ऐसे हैं, जो किसी फ़िल्म के सारे संवाद समझ सकें। एक सच्चाई यह भी है कि यूरोप के लोगों की तुलना में भारतीयों का शब्द-ज्ञान और भाषायी चेतना का स्तर नीचा है। यहाँ हमें ऐसे लोगों से हर रोज़ मुलाक़ात होती है, जो अपना शब्द-ज्ञान बढ़ाने की जगह लेखक या पुस्तक की भाषा को, ख़ासकर अंगरेज़ी को छोड़कर हिन्दी आदि भाषाओं के मामले में तो ज़रूर ही, दोषी मानते हैं। ज़रा उनकी ‘खँचड़ई’ देखिए- ‘इसीलिए तो हिन्दी समझ नहीं आती’, ‘बड़ा भारी लिखते हैं सब हिन्दी वाले’, ‘अंगरेज़ी कितनी सरल लिखते हैं लेखक लेकिन हिन्दी वाले ऐसा लिखते हैं कि किसी को बुझाता नहीं है’। ये सारे कथन उन्हीं अंगरेज़ी समर्थकों के हैं, जो अंगरेज़ी के एक शब्द नहीं जानने पर गर्व से ‘डिक्शनरी’ खोल लेते हैं, लेकिन हिन्दी का कोई शब्द नहीं जानते तो कोई बात नहीं। उनकी सोच यह होती है कि पाँचवी कक्षा को दी जानेवाली विज्ञान की शिक्षा वाली भाषा और वैसे ही शब्दों से स्नातकोत्तर के विज्ञान की शिक्षा भी दी जाय। उनकी उदारता अंगरेज़ी के लिए दिखती है, जहाँ उन्हें शब्दों को रटने की उज्जवल संस्कृति का पक्षधर बनकर शोर मचाते देखा जा सकता है।
फ़िल्मों में संवाद की दृष्टि से अंगरेज़ी का प्रभाव इतना बढ़ा है कि 120 मिनट की फ़िल्म में 40 मिनट से ज़्यादा तक अंगरेज़ी बोलते देखा जा सकता है। इस ‘महान्’ परिवर्तन के बावजूद फ़िल्म हिन्दी की ही कही जाती है। और राजेन्द्र यादव के अनुसार उसे हिन्दी कहना भी होगा, और यह वास्तव में सही भी है।
अंगरेज़ी का बुर्जुआ से कितना संबंध है, यह सहज ही समझा जा सकता है। फ़िल्मों के दृश्य, उनमें दिखाए जाने वाले मक़ान, गाड़ियाँ , वस्त्र सब बता सकते हैं कि फ़िल्मों का लक्ष्य-दर्शक-वर्ग कौन है। भारत के 75 से 80 प्रतिशत लोग इस स्थिति में नहीं हैं कि वे सिनेमाघरों में जाकर अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर सकें। इसके बावजूद फ़िल्मों से होनेवाली आय निर्माता, अभिनेता और फ़िल्म वितरक या फ़िर सिनेमाघरों के मालिकों को तेज़ी से करोड़पति, अरबपति बना रही है। यही हाल अंगरेजीदाँ महात्माओं का है, वे उसी काम के लिए 10,000 पाते हैं, जिस काम के लिए हिन्दी वाले को 100 रु० या 1000 रु० मिलते हैं। आमदनी और रहन-सहन के बीच यह खाई, जिसका आधार योग्यता कम, भाषायी दुष्चक्र ज़्यादा है, हमें भाषा पर सोचने को, उसे गम्भीर और महत्वपूर्ण मुद्दा मानने को मज़बूर कर देती है।
इतना तो आसानी से समझ में आता है कि फ़िल्मों की भाषा का अंगरेज़ीमय होते जाना भारत के सबसे ज़्यादा शोषितों के समझ में नहीं आता। इक्के-दुक्के अंगरेज़ीदाँ का शोषण भी हो सकता है, लेकिन इस अपवाद से इस पूरे मामले को पलटा तो नहीं जा सकता। भारत के किसान , मज़दूर और अल्प-आय वाले लोगों को फ़िल्मों की यह भाषा कम (नहीं के बराबर। वैसे तो उन्हें फ़िल्म के लिए फ़ुरसत ही नहीं है।) समझ आती है। इससे इतना तो कह सकते हैं कि फ़िल्मों की भाषा शोषितों और सर्वहाराओं की भाषा नहीं रही है, वह तेज़ी से बुर्जुआ की भाषा में बदल रही है।
ठीक इसी मुद्दे पर लिखा यह लेख भी पढ़ सकते हैं।
''जनसाधारण की भाषा फ़िल्मों में नहीं है'' फिर फिल्में क्यों देखी जा रही हैं, चल रही हैं, ''हिट'' हो जाती हैं?
जवाब देंहटाएंजनसाधारण जिस नकली 'पाइरेसी' कैसेट के दम पर फ़िल्म देखता है, उसमें से 'हिट' होने का कोई विकल्प नज़र नहीं आता। 'हिट'तो मात्र 20-25 प्रतिशत लोग अपनी पूँजी से करा लेते हैं, जिनका हिसाब-किताब फ़िल्म वितरक और सिनेमाघर के संचालक रखते हैं।
हटाएंभाषा के प्रयोग के पीछे फिल्म को बेचने का उपक्रम भी है. पंजाबी शब्दों-वाक्यों का यहाँ-वहाँ प्रयोग करना इसी ओर इंगित करता है. विदेशों में पंजाबी का प्रयोग न केवल भारत के पंजाबियों, भारतवासियों बल्कि पाकिस्तानियों का भी मनोरंजन करने में सफल होता है. मुद्दा बढ़िया है लेकिन ऊपर राहुल जी की टिप्पणी में उठा सवाल अपने आप में जवाब भी है. लोगों के लिए मुख्य बात है मनोरंजन चाहे उसमें कुछ भी परोसा गया हो. इसे लेकर मैं कुढ़ सकता हूँ, चिढ़ सकता हूँ लेकिन सच तो मनोरंजन और टाइम पास है, डेढ़ सौ रुपए दे कर. मेरी-आपकी विचारधारा की पुस्तक तो 50 रुपए में मिल जाएगी.
जवाब देंहटाएंआजकल की फ़िल्मों में अंग्रेजी शायद इसलिये बढ़ रही है कि उनका दर्शक मल्टीप्लेक्स वाला है जहां टिकट मंहगे होते हैं और लोग अंग्रेजी टूटी-फ़ूटी जानते ही हैं। एन आर आई लोगों तक भी पहुंचना फ़िल्मों का उद्धेश्य होता है। कोई इस पर शोध करे कभी शायद।
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