यह बच्चों के लिए रची गई एक साधारण-सी कविता है। लेकिन दूसरी तरफ़ यह एक असाधारण कविता है। कमला बक़ाया की यह कविता इस देश और दुनिया के हर बच्चे तक पहुँचाई जानी चाहिए, ऐसा हमें लगता है। यहाँ प्रस्तुत है-
क्यों - कमला बक़ाया
कहानी बहुत पुरानी है,
पर अब तक याद ज़ुबानी है।
इक छोटा-सा घर कच्चा था,
उसमें माँ थी, इक बच्चा था।
बिन बाप मड़ैया सूनी थी,
औ' माँ पर मेहनत दूनी थी।
यह बच्चा बड़ा हुआ ज्यों-ज्यों,
हर बात पे पूछा करता, "क्यों?"
है बाप नहीं मेरा -पर क्यों?
दिन-रात अंधेरा है घर क्यों?
इतनी है हमें ग़रीबी क्यों?
और साथ में मोटी बीबी क्यों?
बहुतेरा माँ समझाती थी,
हर तरह उसे फुसलाती थी,
पर बच्चा हठ्ठी बच्चा था,
और आन का अपनी सच्चा था।
यह आदत बनी रही ज्यों-त्यों,
हर बात पे पूछा करता, "क्यों?"
माँ ने कुछ काम सँभाला था,
रो-धोकर उसको पाला था।
फिर वह भी उसको छोड़ गई,
दुनिया से नाता तोड़ गई।
बच्चे को अब घर-बार नहीं,
माँ की ममता और प्यार नहीं।
बस रैन-बसेरा सड़कों पे,
और साँझ-सबेरा सड़कों पे।
वह हर दम पूछा करता, "क्यों?"
दुनिया में कोई मरता क्यों?
यूँ फंदे कसे ग़रीबी के,
घर पहुँचा मोटी बीबी के।
घर क्या था बड़ी हवेली थी,
पर बीबी यहाँ अकेली थी।
गो नौकर भी बहुतेरे थे,
घर इनके अलग अंधेरे थे।
बच्चे को बान पुरानी थी,
कुछ बचपन था, नादानी थी।
पूछा- यह बड़ी हवेली क्यों?
औ' बीबी यहाँ अकेली क्यों?
नौकर-चाकर सब हँसते थे,
कुछ तीखे फ़िक़रे कसते थे।
भोले बच्चे! पगलाया क्यों?
हर बात पे करने आया, "क्यों?"
दिन-रात यहाँ हम मरते हैं,
सब काम हम ही तो करते हैं।
रूखा-सूखा जो पाते हैं,
वह खाते, शुकर मनाते हैं।
क़िस्मत में अपनी सैर नहीं,
छुट्टी माँगो तो ख़ैर नहीं।
चलती है कहाँ फ़क़ीरों की?
है दुनिया यहाँ अमीरों की।
यह जग की रीत पुरानी है,
मत पूछो क्यों, नादानी है।
बच्चा था नौकर बीबी का,
फिर देखा मज़ा ग़रीबी का।
दिन भर आवाज़ें पड़ती थीं,
हो देर तो बीबी लड़ती थी।
बावर्ची गाली देता था,
कुछ बदले माली लेता था।
पर आदत बनी रही ज्यों-त्यों,
हर बात पे पूछा करता, "क्यों?"
नित पकते हलुवे-मांदे क्यों?
हम रगड़ें जूठे भांडे क्यों?
बीबी है चुपड़ी खाती क्यों?
औ' सूखी हमें चपाती क्यों?
यह बात जो बीबी सुन पाई,
बच्चे की शामत ले आई।
क्यों हरदम पूछा करता, "क्यों?"
हर बात पे आगे धरता, "क्यों?"
यह माया है शुभ कर्मों की,
मेरे ही दान औ' धर्मों की।
सब पिछला लेना-देना है,
कहीं हलवा कहीं चबेना है।
माँ-बाप को तूने खाया क्यों?
भिखमंगा बनकर आया क्यों?
मुँह छोटा करता बात बड़ी,
सुनती हूँ मैं दिन-रात खड़ी।
इस "क्यों" में आग लगा दूँगी,
फिर पूछा, मार भगा दूँगी।
बच्चा यह सुन चकराया यों,
फिर उसके मुँह पर आया, "क्यों?"
माँ-बाप को मैंने खाया क्यों?
भिखमंगा मुझे बनाया क्यों?
फिर बोला! पाजी, हत्यारा!
कह बीबी ने थप्पड़ मारा।
बच्चा रोया, ललकारा- क्यों?
औ' तुमने हमको मारा क्यों?
दिल बात ने इतना तोड़ दिया,
बच्चे ने वह घर छोड़ दिया।
वह फिरा किया मारा-मारा
लावारिस, बेघर, बेचारा।
न खाने का, न पानी का,
यह बदला था नादानी का।
पर आदत बनी रही ज्यों-त्यों,
हर बात पे पूछा करता, "क्यों?"
इक ग्वाला दूध लिए जाता,
भर गागर मुँह तक छलकाता।
बच्चे का मन जो ललचाया,
भूखा था, पास चला आया।
यह दूध कहाँ ले जाते हो?
इतना सब किसे पिलाते हो?
लो दाम निकालो, आओ ना।
पैसे तो मेरे पास नहीं।
तो दूध की रखो आस नहीं।
जो बच्चा पैसा लाएगा,
वह दूध-दही सब खाएगा।
यह सुन वह सटपटाया यों,
फिर उसके मुँह पर आया, "क्यों?"
दुनिया सब दूध उड़ाए क्यों?
भूखा ग़रीब मर जाए क्यों?
ग्वाला बोला- दीवाना है,
कुछ दुनिया को पहचाना है?
यह जग की रीत पुरानी है,
मत पूछो क्यों, नादानी है।
बच्चे ने मुँह की खाई तो,
पर भूख न मिटने पाई यों।
गो थककर बच्चा चूर हुआ,
पर भूख से फिर मजबूर हुआ
थी पास दुकान मिठाई की,
लोगों ने भीड़ लगाई थी।
कोई रबड़ी बैठा खाता था।
क्या सुर्ख़-सुर्ख़ कचौरी थी,
कूंडे में दही फुलौरी थी।
थी भुजिया मेथी आलू की,
और चटनी साथ कचालू की।
बच्चा कुछ पास सरक आया,
न झिझका और न शर्माया।
भइया हलवाई सुनना तो,
पूरी-मिठाई हमें भी दो।
कुछ पैसा-धेला लाए हो?
यूँ हाथ पसारे आए हो?
पैसे तो अपने पास नहीं।
बिन पैसे मिलती घास नहीं।
हम देते हैं ख़ैरात नहीं,
पैसे बिन करते बात नहीं।
यह सूरत खाने-पीने की!
अब रस्ता अपना नापो ना,
क़िस्मत को खड़े सरापो ना।
हलवाई ने धमकाया ज्यों,
फिर उसके मुँह पर आया, “क्यों?”
कहते हो मुझे कमीना* क्यों?
मेरा ही मुश्किल जीना क्यों?
बच्चा हूँ, मैं बेजान नहीं,
बिन पैसे क्या इंसान नहीं?
हट, हट! क्यों शोर मचाया है,
क्या धरना देने आया है?
नहीं देते, तेरा इजारा है?
क्या माल किसी का मारा है?
अब चटपट चलता बन ज्यों-त्यों,
नहीं रस्ते नाप निकलता क्यों?
जो बच्चा पैसे लाएगा,
लड्डू-पेड़ा सब पाएगा।
यह जग की रीत पुरानी है,
मत पूछो क्यों, नादानी है।
बच्चा थककर बेहाल हुआ,
भूखा, बेचैन, निढाल हुआ।
आगे को क़दम बढ़ाता था,
तो सिर चकराया जाता था।
तरसा था दाने-दाने को,
कुछ बैठ गया सुस्ताने को।
न हिस था ठंडे-पाले का,
न होश उस गंदे नाले का।
थी सरदी खूब कड़ाके की
औ’ तपन पेट में फ़ाक़े की।
कुछ दूर को कुत्ता रोता था,
न जाने क्या-कुछ होता था।
दिखता हर तरफ़ अंधेरा था,
कमज़ोरी ने कुछ घेरा था।
आँखें उसकी पथराई थीं,
बेबस बाँहें फैलाई थीं।
फिर मुँह पर उसके आया, “क्यों?”
आराम से कोई सोता क्यों?
कोई भूखा-नंगा रोता क्यों?
फिर जान पड़ी बेहोशी-सी,
एकदम गुमसुम ख़ामोशी-सी।
देखा कोई बूढ़ा आता है,
इक टाँग से कुछ लँगड़ाता है।
वह पास को आया बच्चे के,
सिर को सहलाया बच्चे के।
क्यों बच्चे सरदी खाता है,
यूँ बैठा ऐंठा जाता है?
बाबा मेरा घर-बार नहीं,
करने वाला कोई प्यार नहीं।
मैं ये ही पूछा करता- क्यों?
मुझ जैसा भूखा मरता क्यों?
कहते हैं रीत पुरानी है,
मत पूछो क्यों, नादानी है।
पर ऐसी रीत पुरानी क्यों?
मैं पूछूँ- यह नादानी क्यों?
यह तो कुछ नहीं बताते हैं,
उलटे मुझको धमकाते हैं।
बुड्ढे ने उसको पुचकारा,
यूँ अपना हाल कहा सारा।
हाँ, है तो रीत पुरानी यह,
पर अपनी ही नादानी यह।
गर सब ही पूछा करते यों,
जैसे तुम, पूछ रहे हो, “क्यों?”
तो अब तक रंग बदल जाता,
दुनिया का ढंग बदल जाता।
है समझ नहीं इन बातों की,
है करामात किन हाथों की।
हम ही तो अन्न उगाते हैं।
सब काम हम ही तो करते हैं,
फिर उलटे भूखों मरते हैं।
बूढ़ा तो हूँ, बेजान नहीं,
क्या मन में कुछ अरमान नहीं?
मैंने भी कुनबा पाला था,
बरसों तक काम सँभाला था।
जब तक था ज़ोर जवानी का,
मुँह देखा रोटी-पानी का।
यह टाँग जो अपनी टूट गई,
रोटी भी हम से रूठ गई।
कुछ काम नहीं कर पाता हूँ,
यूँ दर-दर ठोकर खाता हूँ।
जोड़ों में होता दर्द बड़ा,
गिर जाता हूँ मैं खड़ा-खड़ा।
न बीबी है, न बच्चा है,
इक सूना-सा घर कच्चा है।
मैं भी सोचा करता हूँ यों,
आहे ग़रीब है भरता क्यों?
कहानी यहाँ अधूरी है,
इसकी हमको मजबूरी है।
कुछ लोग यह अब भी कहते हैं,
जो दूर कहीं पर रहते हैं,
उनको था दिया सुनाई यों,
इक बच्चा पूछ रहा था, “क्यों?”
वह सड़क किनारे बैठा था,
नीला, सरदी से ऐंठा था।
पर दोनों होंठ खुले थे यों
जैसे वह पूछ रहा था, “क्यों?”
फुलौरी- पकौड़ा, पकौड़ी, फुलौरा, पकोड़ा, पकोड़ी; घी या तेल में पकी हुई बेसन या पीठी की बरी या बट्टी।
कचालू- एक प्रकार की अरवी।
दमड़ी- पैसे का आठवाँ भाग।
इजारा- अधिकार, हक़, स्वत्व, दावा, दख़ल, अधिकृति, इख्तियार, अख़्तियार; वह अधिकार जिसके आधार पर कोई वस्तु अपने पास रखी अथवा किसी से ली या माँगी जा सकती हो।
* ऐसे शब्दों का प्रयोग असंवैधानिक है। समाज के यथार्थ प्रतिबिंबन के लिए लेखक कई बार ऐसे शब्दों का प्रयोग साहित्य में करते रहे हैं, किंतु इसे व्यवहार में नहीं लाया जाना चाहिए।
बहुत अच्छी कविता है. किताब कहाँ मिलेगी.
जवाब देंहटाएंएनसीईआरटी ने छापी है। मिलेगी कैसे, पता नहीं। वरना खरीदते हम भी।
हटाएंमाँ-बेटे की बात का, मर्म दिया बतलाय।
जवाब देंहटाएंरूखा-सूखा भूख में, अमृत सा हो जाय।।
सशक्त रचना....
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
जानदार रचना
जवाब देंहटाएंआभार
नहीं बकाया जा रहा, कमला जी आभार |
जवाब देंहटाएंयही हकीकत है सखी, है ग़ुरबत की मार |
है ग़ुरबत की मार, गरीबी हम को खाई |
चौड़ी खाई होय, विकट सत्ता अधमाई |
पैदा होते रोय, रोय फिर सारा जीवन |
मरता खपता सोय, आज भी भूखा जन जन ||
अदभुत !
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसामाजिक यथार्थ की एक सशक्त रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंयथार्थ,मार्मिक,सरल,सुन्दर अद्भुत कविता। समाज के हर वर्ग को झकझोरने वाली कविता।
जवाब देंहटाएंgood
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
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