सोमवार, 6 जून 2011

एक साधारण आदमी की बात



मैं एक साधारण आदमी हूँ और मुझे  विदेश व्यापार, सकल घरेलू उत्पाद, आय-व्यय की कोई समझ नहीं। मुझे अपना हिस्सा चाहिए। जब मैं आठ घंटे काम करता हूँ तो मुझे अधिक से अधिक डेढ़ सौ रूपये मिलते हैं लेकिन बल्ला और गेंद लेकर मुझसे हजार नहीं लाख गुनी कम मेहनत करनेवाला आदमी एक दिन में डेढ़ लाख या डेढ़ करोड़ रूपये क्यों लेता है? सुनाई पड़ता है कि हर आदमी पर इतना विदेशी कर्ज है। यह विदेशी कर्ज मैंने नहीं लिया है। जिन्होंने लिया है वे भाजपाई भी थे, कांग्रेसी भी थे और सबने एक ही काम किया है। कर्ज चुकाने के लिए मेरे मेहनत का सामान खाकर और बेचकर ये झूठ बोलते हैं और फिर कर्ज ले डालते हैं। कब तक कर्ज लेंगे ये? कर्ज लेकर वैसे भी इन्होंने किया क्या है, अपनी सुख-सुविधा में कोई कमी न हो इसके सारे उपाय किए हैं। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मंदी आई कि नहीं, विश्व व्यापार और विदेश व्यापार में क्या हो रहा है, ये जानकर मैं क्या करूंगा? ये सब मेरे काम के नहीं हैं।
           पूरी दुनिया में भारतीय लोकतंत्र कलंकित हो गया। यह वाक्य बहुत जगह सुनने को मिल रहा है। लेकिन कब प्रशंसित था यह भारतीय लोकतंत्र ? भाजपा ने अपने जाल फैलाने शुरु कर दिए हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या 2004 से 2011 तक मात्र सात सालों में ही 400 लाख करोड़ की सम्पत्ति विदेशों में जमा कर ली गई? यह सरासर झूठ है। हो सकता है कि समूचे काले धन का अधिकतम पंद्रह-बीस प्रतिशत हिस्सा इन सात सालों में जमा किया गया हो। लेकिन 2004 से पहले, अगर हम 400 लाख करोड़ की बात करें तब, कम से कम 300 लाख करोड़ रूपये तो जमा हो चुके थे। 1998 से 2004 तक भाजपाई कहाँ थे? क्यों नहीं उठाया गया ये मुद्दा उस समय। अगर नहीं उठाया गया तो आज किस मुँह से आडवाणी, स्वराज, जेटली, राजनाथ आदि सत्याग्रह करने चले? ये सब के सब मिले हुए हैं। इन सबको देश से बाहर फेंक दिया जाना चाहिए था। वाजपेयी सरकार की उपलब्धियाँ क्या हैं? कुछ लोग सड़कें दिखाते हैं। क्या मैं सड़क चबाता हूँ? और अच्छी सड़कों की जरूरत मुझे है भी क्या जब मेरे पास गाड़ी नहीं है। और न ही मेरे पास ऐसे कपड़े हैं जिनपर बरसात में कच्ची सड़कों पर कींचड़ लगने से वे गंदे हो जाएंगे।
कुछ अर्थशास्त्र का हिसाब समझाते हैं। यह बजट बनता ही कहाँ है मेरे लिए और मुझे इस अर्थशास्त्र से क्या मतलब है जिसमें बड़ी-बड़ी बातें लिखी हैं? मैं छोटा आदमी हूँ।
कुछ स्कूल, इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज, मैनेजमेंट कालेज दिखाते हैं। मैं क्या करूंगा इन सबका। मुझे और मेरे जैसे लोगों के लिए इसमें जगह है कहाँ? और अगर जगह मिल भी जाय तो क्या है, किया क्या है उन लोगों ने जो इन कालेजों में पता नहीं क्या-क्या पढ़ते थे।
 कभी-कभार कुछ हम जैसे घुस जाते हैं इन कालेजों में तो ये शोर मचाते हैं कि देखो किसान का बेटा, मजदूर का बेटा आई ए एस बन गया। ये अखबार जिनकी कीमत तीन-चार रूपये है, इनका मैं करुंगा क्या? ये चैनल और मीडिया हल्ला करते हैं कि देखो इस खिलाड़ी की पत्नी ने उस खिलाड़ी के साथ भोजन किया या यह फिल्मी मदारी उस हीरोइन के साथ उस पार्क में देखा गया। ये मीडिया चिल्लाता है कि देखो एक मजदूर का बेटा आई आई टी की परीक्षा में पास हो गया। जैसे यह कोई आश्चर्य हो। ये तो लगता है कि चेतावनी है कि नेताओं सावधान! कोई दूसरा हमारे घर में, हमारे हरम में घुस रहा है, सावधान हो जाओ। या इसकी खुशी है कि एक और बुद्धिशाली आदमी नेताओं के काम में आएगा और ये उसे चोरी की नई-नई तरकीबें सिखाकर बड़ा चोर बनाएंगे।
प्रधानमंत्री के नाम पर योजनाएँ चलती हैं। अपने घरवालों के नाम पर योजनाएँ चलती हैं लेकिन मुझे इससे क्या मिला? 1947 से 2011 तक कुल उपलब्धि क्या है मेरे लिए, मेरे जैसों के लिए? कुछ नहीं है उपलब्धि! ये सब तमाशा है। ये दिखाते हैं कि देश में पहले इतने अरबपति थे, अब इतने हैं। मुझे इन अरबपतियों से क्या लेना देना? दो रूपये की आमदनी हो तो सरकारें चिल्लाती हैं कि दो रूपये मिले हैं लेकिन जब हजारों करोड़ का घाटा होता है तब सब एसी कमरों में जश्न मना रहे होते हैं। और सब मिलाकर होता तो घाटा ही है।  
कुछ दिखाते हैं कि देखो, शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ गई है। गली-गली में कोचिंग खुल गए हैं। लेकिन ये सब के सब दस गुना फायदा लेते हैं। व्यापारी से कई गुना चोरी करते हैं ये सब।
बन्द करो ये बकवास! मुझे तुम्हारी इन बातों से कोई लेना-देना नहीं, होगे तुम बड़े अर्थशास्त्री, नाम होगा तुम्हारा देश-विदेश में। तुम्हारे नाम पर विदेश में छात्रवृत्ति दी जाती होगी, लेकिन तुमने मेरे जैसे 90 करोड़ लोगों दिया क्या है? झूठा है तुम्हारा अर्थशास्त्र, भरमाना पढ़े-लिखों को, बड़ी-बड़ी बातें करके ठगना उन लोगों को जिनके पास विलासिता के सामान हैं, जिन्होंने अपने हक से हजार गुना ज्यादा इकट्ठा कर लिया है या कहो कि चोरी कर ली है। झूठे हो तुम और तुम्हारा ये सबकुछ! बन्द करो ये पढ़ाई-लिखाई, सब के सब तमाशे देखता रहा हूँ और अब पूरी तरह समझ गया हूँ कि तुम सब एक ही खेत की मूली हो और देश को लूटो चाहे नहीं लूटो मुझे और मेरे जैसों को तो जरूर लूटा है तुम सब ने।
मैं साधारण आदमी हूँ। छोटी-छोटी बातें समझता हूँ। दो-चार रूपये के हिसाब भी समझ ले सकता हूँ लेकिन चोर तो नहीं हूँ। 

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