अंधी यह सरकार बहुत है
यह जनता लाचार बहुत है
यह जनता लाचार बहुत है
कहाँ माँगते एसी कमरे चाहे मोटरकारें
फिर भी गोली चलवाती हैं ये अंधी सरकारें
दो रोटी ही मिल जाए बस
इतना ही आधार बहुत है
करते दौलत की खातिर जो हरदिन मारामारी
हमसे ये सब क्या बोलेँगे मुल्ले और पुजारी
मस्जिद में दीनार बहुत है
मंदिर में व्यभिचार बहुत है
दास बनाया जिसने तुमको खुद को तुलसीदास कहा
छल-प्रपंच से भरा हुआ यह भारत का इतिहास रहा
तुम ताड़न के अधिकारी हो
उसकी जय जयकार बहुत है
दस करोड़ का तोहफा अगर मित्तल बुलाए घर
रईसों, मंत्रियों के साथ यह सत्ता का आडंबर
चावल, मिट्टी-तेल तनिक-सा
हमपर यह उपकार बहुत है?
एक बेहतरीन जनवादी कविता।
जवाब देंहटाएंज्ञान की प्रकृति | Nature of knowledge
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