भाषा एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस चिट्ठे का नाम भी हिन्दीभोजपुरी है। तो जाहिर है कि भाषा सम्बन्धी लेख यहाँ अक्सर पढने को मिलेंगे ही। राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ या ‘भागो नहीं बदलो’ से एक अध्याय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस किताब पर एक विस्तृत लेख इसी महीने पढने को मिलेगा। फिलहाल यह अध्याय, जो किताब का सत्रहवाँ अध्याय है, यहाँ प्रस्तुत है। इस किताब की भाषा बड़ी लचकदार है। शुद्धतावाद के पक्षधरों के लिए यह भाषा एक चुनौती है। राहुल जी ने इस किताब की भूमिका में ही लिखा है कि यह किताब छपरा, बलिया इलाके की भाषा के असर के साथ हिन्दी में लिखी जा रही है। इस किताब में ‘ष’ के लिए ‘ख’, ‘ण’ के लिए ‘न’, ‘ज्ञ’ के लिए ‘ग्य’ जैसे कई प्रयोग थे। हमारे इलाके में ऐसी ही भाषा बोली जाती है। किताब में कुछ पात्र हैं और पूरी किताब संवादात्मक शैली में लिखी गयी है। ‘भैया’ कोई गप्पी नहीं बल्कि एक प्रबुद्ध चिन्तक और विद्वान है। ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ सामान्य किसान हैं और ‘सोहनलाल’ एक पढ़ा-लिखा और शहर में रहनेवाला युवक है। किताब की भूमिका से लगता है कि ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ नाम के दो व्यक्ति थे, और एक साधारण पढा-लिखा व्यक्ति जो मात्र 6-7 तक पढ़ पाया हो, वह भी समझ सके, राहुल जी के लिए इस किताब की भाषा को इस लायक मानने के आधार भी थे।
यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किताब 1945-46 के आस-पास की है, तो जाहिर है, किताब पर उस समय का असर कई जगह दिखता है। बँगला और उर्दू को लेकर बंग्लादेश में चले लफड़े का पूर्वानुमान भी राहुल जी ने लगाया था, इसका अन्दाजा इस अध्याय के आखिरी वाक्य से लगता है, जो इंदिरा गाँधी के समय सच भी साबित हो गया।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है इस अध्याय को पूरी तरह टंकित भी मैंने नहीं किया है। इसे ओसीआर साफ्टवेयर की सहायता से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
राहुल जी ने इस किताब में अपना नाम ‘राहुल सांकिर्ताएन’ लिखा है। इसे अलग-अलग टुकड़ो में देना उचित नहीं लगा, इसलिए पूरे अध्याय को एक ही बार में यहाँ रखा जा रहा है। थोड़ा अधिक समय लगेगा पढने में। इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।