शनिवार, 31 दिसंबर 2011

भाषा पर एक बातचीत ... 'भाषा एक प्राथमिक सवाल क्यों है'

एक मित्र से हुई बातचीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

'भाषा एक प्राथमिक सवाल क्यों है'

हम: एक उदाहरण देखिए। 

मित्र: हाँ। 

हम: पूँजीवादी कितने है ? कितने प्रतिशत ? 

मित्र: पाँच फीसदी के करीब। 

हम: अंग्रेजी वाले कितने हैं ? 121 करोड़ में से कितने ?

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

हिन्दी.blogspot.com या हिन्दी.tk लिखिए जनाब न कि hindi.blogspot.com या hindi.tk


हाल ही में अनिल.blogspot.com से गुजरा। अचंभित था कि ब्लॉग का नाम तो हिन्दी में दिखता है, लेकिन ब्लॉग का पता जिसे यू आर एल कहते है, वह हिन्दी में, अपनी लिपि नागरी में! फिर वहाँ अपनी प्रतिक्रिया में भी यह पूछ बैठा कि यह कैसे होगा? अगले दिन अपने फुरसतिया जी फेसबुक पर फुरसत में मिल गये। उनसे पूछा और बस धीरे-धीरे काम हो गया। अब आप भी देख लीजिए कि कैसे होता है ये सब! उम्मीद है कि बहुत कम लोग जानते होंगे। तो क्यों न हिन्दी ब्लॉगों के आधे पते, जिनपर हमारा बस चलता है (क्योंकि ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम तो रहेगा ही। मालिक हम नहीं, ब्लॉगर है, गूगल है), उनको अपनी भाषा हिन्दी के साथ-साथ अपनी लिपि नागरी में कर दिया जाय। लेकिन लफड़ा यह है कि ब्लॉग तो बन चुका है। फिर तरीका तो एक ही है कि नया ब्लॉग बनाया जाय। कौन-सा पैसा लगता है! और फिर उस ब्लॉग के साथ अपने वर्तमान ब्लॉग को ऐसे बाँध दिया जाय कि नये ब्लॉग पते पर जाते ही वर्तमान ब्लॉग खुल जाय। इसे तकनीकी भाषा में रिडायरेक्ट करना कहते हैं। चलिए, यही सब यहाँ देखते-करते हैं।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में हाथ से लिखते समय झ एक जैसे...

आज बस एक इतना ही...


बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ग्यान और भाखा - राहुल सांकिर्ताएन


भाषा एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस चिट्ठे का नाम भी हिन्दीभोजपुरी है। तो जाहिर है कि भाषा सम्बन्धी लेख यहाँ अक्सर पढने को मिलेंगे ही। राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ या ‘भागो नहीं बदलो’ से एक अध्याय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस किताब पर एक विस्तृत लेख इसी महीने पढने को मिलेगा। फिलहाल यह अध्यायजो किताब का सत्रहवाँ अध्याय हैयहाँ प्रस्तुत है। इस किताब की भाषा बड़ी लचकदार है। शुद्धतावाद के पक्षधरों के लिए यह भाषा एक चुनौती है। राहुल जी ने इस किताब की भूमिका में ही लिखा है कि यह किताब छपराबलिया इलाके की भाषा के असर के साथ हिन्दी में लिखी जा रही है। इस किताब में ‘’ के लिए ‘’, ‘’ के लिए ‘’, ‘ज्ञ’ के लिए ‘ग्य’ जैसे कई प्रयोग थे। हमारे इलाके में ऐसी ही भाषा बोली जाती है। किताब में कुछ पात्र हैं और पूरी किताब संवादात्मक शैली में लिखी गयी है। ‘भैया’ कोई गप्पी नहीं बल्कि एक प्रबुद्ध चिन्तक और विद्वान है। ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ सामान्य किसान हैं और ‘सोहनलाल’ एक पढ़ा-लिखा और शहर में रहनेवाला युवक है। किताब की भूमिका से लगता है कि ‘संतोखी’ और ‘दुखराम’ नाम के दो व्यक्ति थेऔर एक साधारण पढा-लिखा व्यक्ति जो मात्र  6-7 तक पढ़ पाया होवह भी समझ सकेराहुल जी के लिए इस किताब की भाषा को इस लायक मानने के आधार भी थे।
यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किताब 1945-46 के आस-पास की हैतो जाहिर हैकिताब पर उस समय का असर कई जगह दिखता है। बँगला और उर्दू को लेकर बंग्लादेश में चले लफड़े का पूर्वानुमान भी राहुल जी ने लगाया थाइसका अन्दाजा इस अध्याय के आखिरी वाक्य से लगता हैजो इंदिरा गाँधी के समय सच भी साबित हो गया।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है इस अध्याय को पूरी तरह टंकित भी मैंने नहीं किया है। इसे ओसीआर साफ्टवेयर की सहायता से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
राहुल जी ने इस किताब में अपना नाम ‘राहुल सांकिर्ताएन’ लिखा है। इसे अलग-अलग टुकड़ो में देना उचित नहीं लगाइसलिए पूरे अध्याय को एक ही बार में यहाँ रखा जा रहा है। थोड़ा अधिक समय लगेगा पढने में। इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है

कुछ पन्ने पलटते समय कुछ नोट किए गए शेर-वेर मिल गए। उन्हें साझा कर रहा हूँ। पिछली बार सन्दर्भ की चर्चा हुई थी। गजल तो है ही एक फालतू किस्म की विधा। कोई भी बात दो पँक्तियों में कहकर मिला देते हैं इसमें। यहाँ फालतू का अर्थ सही परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। यहाँ गजलों से लिए गए शेर-अशआर (अशआर ठीक से पता नहीं कि क्या है) प्रस्तुत हैं। शुरूआत पद्मश्री गोपालदास नीरज से-

मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-3)


योद्धा संन्यासी का जीवन 


पहला भाग यहाँ पढ़ें     दूसरा भाग यहाँ पढ़ें

अपने सत्तर वर्ष के जीवन में वे निरंतर सक्रिय रहे और एक साथ कई मोर्चों पर! हर मोर्चे पर उनका एक खास मकसद दिखाई देता है। भारतीय इतिहास के अत्यंत महत्वपूर्ण कालखंड में उन्होंने अपना लेखन कार्य शुरू किया। भारत की स्वाधीनता का आंदोलन प्रथम विश्व युद्ध के बाद तेज हुआ और उसमें विभिन्न धाराओं का संघर्ष ज्यादा स्पष्ट दिखाई देने लगा। समाज सुधार की धारा बंगाल से विकसित हुई जिसका प्रभाव संपूर्ण देश के बुद्धिजीवियों पर पड़ा। राहुल ने अपना जीवन समाज सुधारक संन्यासी के रूप में शुरू किया; यह महज एक संयोग नहीं। वे प्रेमचंद की तरह आर्यसमाज के प्रभाव में आए और फिर कांग्रेस से भी प्रभावित हुए। लेकिन प्रेमचंद की ही तरह उनका इन धाराओं से मोहभंग भी हुआ। फिर उन्होंने पतनोन्मुख भाववाद के विरुद्ध बौद्ध दर्शन को एक वैचारिक-आधार के रूप में ग्रहण किया। भारतीय समाज की संरचना, जाति, वर्ण और वर्ग की विशिष्टता एवं शोषण के विभिन्न रूपों की जटिलता आदि तमाम सवालों से लगातार जूझते रहे। इनका समाधान उन्हें मार्क्सवादी दर्शन में दिखाई पड़ा। वैज्ञानिचेतना और समग्र विश्वदृष्टि के लिए अनवरत आत्मसंघर्ष उनकी प्रारंभिक रचनाओं में खुलकर व्यक्त हुआ है। ज्ञान की पिपासा और निरंतर कार्य करने की बेचैनी उनके व्यक्तित्व की विलक्षण विशेषताएँ हैं। उनका मानना था कि ज्ञान, विचार द्वारा वस्तु को जानने की एक चिरंतन तथा अंतहीन प्रक्रिया है और ज्ञानात्मक चेतना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व से निर्धारित और प्रभावित होती है।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

आईने में नेता (कविता)


आईने में चेहरा देखते ही
डर जाता है आईना।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

मार्क्स कहाँ गलत है? - राजेन्द्र यादव


अंग्रेजी में एक मुहावरा है प्रॉफ़ेट ऑफ द डूम यानी क़यामत का मसीहा। कुछ लोग क़यामत की भविष्यवाणियाँ करते हैं, परम-निष्ठा और विश्वास से उसकी प्रतीक्षा करते हैं और जब वह आने लगती है तो उत्कट आह्लाद से नाचने-गाने लगते हैं; देखा, मैंने कहा था आयेगी और आ गयी! अब इस आने में भले ही अपना घर-बार ही क्यों न शामिल हो। क़यामत के परिणामों से अधिक प्रसन्नता उन्हें अपनी बात के सच हो जाने पर होती है। पूर्वी-यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारें धड़ाधड़गिर या उलट रही हैं, प्रदर्शन और परिवर्तन हो रहे हैं; लोग जिंदगी को अपने ढंग से ढालने और बनाने में लगे हैं और हम खुश हैं कि हम जानते थे, यही होगा। क्योंकि कम्युनिज्म असंभव है। मार्क्स ग़लत है। मैं गंभीरता से सोचना चाहता हूँ कि इस चरम-सत्य की खोज क्यों उन्हें इतना प्रसन्न करती है? मार्क्स क्यों ग़लत है? मार्क्स ने ऐतिहासिक और तार्किक प्रमाणों से यही तो कहा था कि मनुष्य-मनुष्य के बीच शोषण, असमानता और अन्याय की जो व्यवस्थाएँ रही हैं उन्हें समाप्त होना चाहिए इन्हें जायज़ और शाश्वत सिद्ध करने के जो तरीक़े ईजाद किये गये हैं उन्हें गहराई से समझने, उद्घाटित करने और उखाड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि यह इतिहास की माँग है। अब तक के मानव-समाजों का अध्ययन हमें यही सिखाता है कि इन विषमताओं के स्वरूप या उनके विरुद्ध लड़ने के मानवीय प्रयास क्या रहे हैं? क्या मानव-विकास अंधेरे की लक्ष्यहीन दौड़ है या उसके अपने कुछ नियम हैं? अगर नियम हैं तो क्या हैं? अब मेरी समझ में सचमुच नहीं आता कि इसमें आखिर ऐसा क्या है जो अभारतीय है या मार्क्स ने ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि उसे बार-बार कब्र खोद कर सूली पर लटकाया जाना चाहिए? शायद मार्क्स का अपराध इतना है कि बाकी लोगों की तरह उसने शोषण और अन्याय को दूर करने के सिद्धांत को सिर्फ एक सपने, मनुष्य को बराबर बताने वाले श्लोक और सदाशयी आकांक्षा या ईश्वरीय आशीर्वाद के रूप में ही क्यों नहीं रहने दिया हमें क्यों यह समझाने की कोशिश की कि यह सब ऐतिहासिक, भौतिक और व्यावहारिक है। इसके स्वरूप और तरीके हमेशा बदलते रहे हैं और इन्हें बदला जा सकता है, बदलना चाहिए। जहाँ तक समझ में आता है, सिर्फ दो ही तरह के लोग इसके विरोध में होने चाहिए एक वे जिनके पैरों तले जमीन इस सिद्धांत से खिसक रही हो, दूसरे वे जो सचमुच विश्वास करते हैं कि शोषण, अन्याय या असमानता शाश्वत हैं, ईश्वरीय हैं और आवश्यक या अनिवार्य है चूँकि वे हमेशा से हैं, इसलिए वे हमेशा रहेंगे, उन्हें रहना चाहिए। इन स्थितियों का कोई भी बदलाव उन्हें अभारतीय और अप्राकृतिक लगता है। वे अगर खुद इन स्थितियों के शिकार हैं तो यह उनकी नियति है।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

100 में 99 मुस्लिम धोती नहीं पहनते। क्यों?


भारत में इस्लाम पर बोलना हमेशा से विवादास्पद रहा है। कोई कहता है कि फलाँ व्यक्ति या नेता तुष्टिकरण की नीति अपना रहा है, तो कोई मुस्लिमों का पक्ष लेने पर हिन्दुओं का विरोधी कह देता है। भारतीय इतिहास का अपना शून्य के बराबर ज्ञान जिसे ज्ञान भी नहीं ही कहना चाहिए, से मैंने फ़ेसबुक पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के नोट पर कुछ बातें रखीं। कुछ सवाल हैं, जो कई बार सोचने के लिए बाध्य करते हैं या जिनका उत्तर नहीं मिलता या मैं जिनका उत्तर नहीं खोज पाता।
      यहाँ चतुर्वेदी जी का नोट है और नीचे मेरे विचार, जो मैंने फ़ेसबुक पर रखे थे।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-2)


योद्धा संन्यासी का जीवन

महापंडित राहुल सांकृत्यायन एक महान् रचनाकार, अन्वेषी इतिहासकार और जनयोद्धा थे। भारतीय नवजागरण की चेतना के इस महान् अग्रदूत ने हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रगतिशील और प्रौढ़ वैचारिक मूल्यों से जोड़ते हुए एक नई रचना-संस्कृति विकसित की। व्यक्तित्व की तरह उनका रचना-संसार भी व्यापक और बहुआयामी है। सचमुच, आश्चर्य होता है कि किशोरवय में ही घर-बार छोड़कर संन्यासी बन गये राहुल व्यवस्थित शिक्षा-दीक्षा और समय एवं सुविधा सम्बन्धी कठिनाइयों के बावजूद इतने महान् रचनाकार और बुद्धिजीवी कैसे बने!
जिज्ञासा और संघर्ष की प्रखर चेतना ने साधारण परिवार में जन्में बालक केदारनाथ को राहुल सांकृत्यायन के रूप में विकसित किया। ग्यारह वर्ष की अवस्था से शुरु हुई उनकी ज्ञान-यात्रा स्मृति लोप होने तक जारी रही। बुद्ध के इस वचन को उन्होंने हमेशा अपने जीवन-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण सूत्र माना –“मैंने ज्ञान को अपने सफर में नाव की तरह लिया है, सिर पर एक बोझ की तरह नहीं।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

प्रभात प्रकाशन मतलब भाजपा-जदयू का प्रकाशन…राष्ट्रीय पुस्तक मेला, पटना से लौटकर

इस बारह तारीख को पुस्तक मेले में गए। बहुत अच्छा तो नहीं कह सकते लेकिन अच्छा ही लगा। वैसे भी पुस्तक मेले में पाठक को किताब लेकर पढ़ने-देखने की जितनी छूट दुकानदार देते हैं, उतनी दुकान में तो देते नहीं। नेशनल बुक ट्रस्ट और बिहार सरकार ने मिलकर पुस्तक मेला आयोजित किया है। पटना पुस्तक मेला भी जल्द ही लगेगा। सरकारी प्रकाशनों की किताबें भी खूब महँगी हुई हैं। अकादमियाँ भी किताब इतने कम दाम में बेचती हैं कि आम आदमी के खरीदने का सवाल ही नहीं उठता।
      विज्ञापनबाजी और करियर के नाम पर दुकानें धीरे-धीरे पुस्तक मेले में बढ़ती जा रही हैं। और पर्चियाँ भी पाठकों को पकड़ा ही दी जाती हैं। लोगों की जेब और हाथ में पर्चियाँ कैसे ठूँस या पकड़ा दी जाती हैं, इसपर दो-तीन साल पहले का एक कार्टून जरूर याद आ जाता है, जो सम्भवत: हिन्दुस्तान में छपा था। वह खोजने पर मिल नहीं रहा। हालाँकि मैं पोस्टरों, पर्चों से दूर रहता हूँ, विज्ञापन कुछ ठीक नहीं लगता। विज्ञापन पर कुछ विचार रखूंगा कभी।

सोमवार, 14 नवंबर 2011

नेहरु और नेताजी पर भगतसिंह के विचार


बाल दिवस यानी चौदह नवम्बर के पहले जवाहर लाल नेहरु के खिलाफ़ भाई विश्वजीत सिंह जी ने एक लेख लिखा है। इन दिनों बहस का इरादा भी नहीं है मेरा, इसलिए यहाँ इस लेख को प्रस्तुत करने के बाद मैं किसी बहस में पड़ना भी नहीं चाहता। एक अक्तूबर को ही यह लेख मैंने टंकित कर लिया था। संयोग से विश्वजीत भाई ने याद दिला दिया, सो आज यहाँ लगा रहा हूँ। इसे भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज, सम्पादक - चमनलाल से लिया है। नेहरु के प्रति भगतसिंह के विचारों से मतभेद हो सकता है क्योंकि नेहरु भी 1928 में जो थे या रहे थे, वही नेहरु तो 1947 या 1962 में नहीं रहे होंगे।

नए नेताओं के अलग-अलग विचार

[जुलाई, 1928 के किरती में छपे इस लेख में भगतसिंह ने सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की है।]

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

पैसा, वेतन, बिहार सरकार, आडवाणी की यात्रा …गड्डमड्ड बातें बिहार की ( दूसरा और अन्तिम भाग )

(पैसा, वेतन, नीतीश कुमार, बिहार सरकार, प्रभात खबर, अंग्रेजी, निजी स्कूल, संसद, सांसदों के वेतन, आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी जनचेतना यात्रासब कुछ गड्डमड्ड हैं इस लेख में। इस लेख में सुसंगठित होना मेरे लिए सम्भव नहीं था। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ।)


पिछले भाग के बाद

निजी स्कूलों का पंजीयन और उनकी ताकत

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

पैसा, वेतन, बिहार सरकार, आडवाणी की यात्रा …गड्डमड्ड बातें बिहार की ( पहला भाग )


(पैसा, वेतन, नीतीश कुमार, बिहार सरकार, प्रभात खबर, अंग्रेजी, निजी स्कूल, संसद, सांसदों के वेतन, आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी जनचेतना यात्रा…सब कुछ गड्डमड्ड हैं इस लेख में। इस लेख में सुसंगठित होना मेरे लिए सम्भव नहीं था। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ।)

प्रभात खबर के तमाशे

बिहार में इन दिनों मीडिया सुशील कुमार के पीछे पगलाया हुआ है। वही सुशील जिन्होंने कौन बनेगा करोड़पति में पाँच करोड़ रूपये जीते हैं। प्रभात खबर ने तो एक दिन के लिए अतिथि सम्पादक ही बना डाला है। बिहार सरकार मनरेगा का ब्रांड एम्बेसडर बनाना चाहती है। ऐसी खबर भी सुनने में आई। वही बिहार सरकार जो छह हजार रूपये की तनख्वाह सुशील को देती है।

सोमवार, 7 नवंबर 2011

स्वेटर (कविता)

पहले
माँ बुनती थी स्वेटर
अपने बेटे के लिए ।
पत्नी, पति के लिए,
प्रेमिका, प्रेमी के लिए,
बहन, भाई के लिए ।
आज
स्वेटर तैयार हो रहे
कंपनियों द्वारा,
कस्टमर के लिए
उपभोक्ता के लिए ।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

समाजवाद ही क्यों? - अल्बर्ट आइन्सटीन


…लियो ह्यूबरमैन और पॉल स्वीजी ने समाजवादी और मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से घटनाओं का व्यापक विश्लेषण करने और उन पर टीका टिप्पणी करने के लिए एक मंच के रूप में मंथली रिव्यू पत्रिका की शुरूआत की थी। आइन्सटीन ने उस पत्रिका की नींव डाले जाने का स्वागत किया और मई 1949 में निकलने वाले उसके पहले अंक के लिए लियो ह्यूबरमैन के दोस्त नॉटो नाथन के आग्रह पर यह लेख लिखा था…लेख थोड़ा लम्बा है, लेकिन दो टुकड़ों में देने पर कुछ ठीक नहीं लगता। इसलिए पढ़ने में थोड़ा समय लगेगा।



समाजवाद ही क्यों?
-अल्बर्ट आइन्सटीन

क्या ऐसे व्यक्ति का समाजवाद के बारे में विचार करना उचित है जो आर्थिक-सामाजिक मामलों का विशेषज्ञ नहीं है? कई कारणों से मेरा विश्वास है कि यह उचित है।

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

जेपी ही गायब थे आडवाणी की यात्रा में, हाँ…नीतीशायण चालू रही


बारह तारीख (12-10-11) को पटना आने के क्रम में सैकड़ों जगह बैनर दिखे। छपरा में एक दिन पहले ग्यारह तारीख को जयप्रकाश नारायण की जयंती पर खूब तमाशा हुआ था। छपरा से पटना लगभग 70 किलोमीटर है। लेकिन 70 किलोमीटर के रास्ते पर मुझे जयप्रकाश नारायण की तस्वीर सिर्फ़ 2-3 जगह ही दिखी। दिखे तो बस नीतीश, आडवाणी और छोटे-बड़े तथाकथित महान नेता। सुषमा स्वराज को बिहार की प्रशंसा करके बहुत सुकून मिलता है, बिहार मतलब नीतीश के बिहार की। कुछ बातें हैं बिहार के बारे में, उस दिन की यात्रा के बारे में, राजनीति के बारे में।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…


जगजीत सिंह का जाना मीडिया के लिए अमिताभ के जन्मदिन की खबर पर भारी पड़ गया। 40 साल तो दोनों ने गुजारे हैं संगीत और फिल्म जगत में। फिर भी जगजीत का अमिताभ पर भारी पड़ना उनकी हैसियत को दर्शाता तो है ही। अमिताभ ने अपने जन्मदिन की बात तो लिखी है अपने लिखाई-मशीन से लेकिन जगजीत पर नहीं लिखा कुछ। जब ट्वीट पर ही अखबार टूट पड़े हैं, तो वहीं पर अमिताभ ने भी काम चलाया है।
            जगजीत के जाने पर सबसे अलग और बहुत ईमानदारी से याद करते हुए लिखा दिनेश चौधरी जी ने। वे लिखते हैं जगजीत साहब के चले जाने की खबर एक चैनल पर देखकर झटका लगा। पर उम्मीद खत्म नहीं हुई थी, यह सोचकर कि ये चैनलवाले तो उल्टी-सीधी सच-झूठ खबरें देते ही रहते हैं, चलो किसी और चैनल पर देखें। चैनल बदल दिया। लेकिन दूसरे-तीसरे हरेक चैनल पर यही खबर।
और उम्मीद भी की थी कि जगजीत साहब अस्पताल से बाहर आकर फिर से गालिब की ग़ज़लों को गायेंगे। उनके अस्पताल में दाखिल होने के एक दिन पहले ही अखबारों में यह खबर पढ़ी थी कि गालिब की ग़ज़लों के साथ जगजीत व गुलजार साहब की जोड़ी एक बार फिर सामने आ रही है। इसी उम्मीद में मैं ग़ज़लों के पूरे सफरनामे को याद कर रहा था कि जगजीत साहब फिर से अपनी ग़ज़लों की महफिल सजायेंगे, पर अफसोस ऐसा हो न सका क्योंकि इस बार सच बोल रहे थे कमबख्त चैनल वाले! कितने बेरहम होते हैं खबरों पर काम करने वाले कि इधर जगजीत साहब गुजरे नहीं कि वे विकिपीडिया में हैंसे अपडेट होकर थेहो गये।

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र



ध्यान दें: यह लेख कुछ लोगों के लिए नहीं है। वे कौन हैं, यह पढ़कर वे स्वयं जान लें।

लीजिए हम भी अर्थशास्त्री हो गए। हम बिलायत के पीएचडी नहीं हैं भाई। इसलिए जीडीपी-फीडीपी समझा नहीं पाएंगे। इसलिए कुछ सीधी-सीधी बात कहेंगे। एक दिन खयाल आया कि भारत का अर्थशास्त्र क्या है, तो कुछ चीजें दिमाग ने मुझसे कहीं। हम वह अर्थशास्त्र रखने जा रहे हैं, जो भिखारी से लेकर किसान तक को समझ में आ सके। समझने के लिए अक्षरज्ञान होना भी आवश्यक नहीं है। हाँ, यह मेरी कोई बपौती (होती तो यह भी अपनी नहीं है।) नहीं है कि इसे मैंने ही सोचा है और दूसरे किसी ने कभी नहीं सोचा होगा, इसका दावा कर दूँ।

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)


हमेशा की तरह आज दो अक्तूबर को गाँधी जी अधिक, लाल बहादुर शास्त्री कम ही याद किए जाएंगे। हम भी गँधियाते थे पहले। कई बार गाँधी जी कविताई का विषय बनते रहे थे। लेकिन अब यह सब 2004-05 के बाद बन्द है। विवेकानन्द भी इसी तरह कई बार अपने विषय होते थे। अभी थोड़े दिनों पहले ही आपने गाँधी जी पर जय हे गाँधी! हे करमचंद!! कविता पढ़ी थी यहाँ। आज गाँधी जी के प्रति सम्मान तो है लेकिन पहले जितनी श्रद्धा तो नहीं ही रही। उनपर एक कविता या गीत जो कहें, गाँधी जयंती, 2004 पर गाने के लिए ही मानिए, लिखा था। क्योंकि गाँधी जी लोकप्रिय क्यों विषय पर भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई थी, तो सोचा कि एक गीत भी हो जाए। हालांकि इसे गाया नहीं जा सका और बाद में 26 जनवरी, 2005 को इसे गाया गया। अब इन दिवसों में रुचि तो है नहीं। …इस रचना में भावनाएँ हैं, अब थोड़ा रूखा हूँ। पहले की अधिकांश मान्यताएँ एकदम बदल गईं है। फिर भी मेरी सबसे प्रिय खुद की रचनाओं में यह रचना आज भी शामिल है। अगर आप मोहम्मद रफ़ी का गाया क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे या इधर चलने वाला गीत कलियुग बैठा मार कुंडली की तर्ज पर इस रचना को गाकर देखें, तो आपको पसन्द जरूर आएगा। मुझे इसकी कुछ पँक्तियाँ बहुत पसन्द हैं, अब यह अपनी प्रशंसा ही सही, लेकिन सच है।

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

भगतसिंह नास्तिक और कम्युनिस्ट थे, थे और थे ( भगतसिंह पर विशेष )


भगतसिंह का लिखा एक लेख है- युवक, बलवन्तसिंह के नाम से। यह मतवाला के 16 मई, 1925 के अंक में छपा था। आलोचना के 32वें वर्ष के अक्टूबर-दिसम्बर, 1983 अंक में, इस बात की पुष्टि आचार्य शिवपूजन सहाय ने की थी। युवक शीर्षक लेख में भगतसिंह अमेरिका के युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी के अमेरिका के युवकों में की गई ज्वलन्त घोषणा “We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government.” अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है, को उद्धृत करते हैं। अफसोस है कि आज के अमेरिका की स्थिति एकदम 180 डिग्री पर उल्टी है। उस वक्त अमेरिका, इटली, रूस, आयरलैंड, फ्रांस आदि देशों के अनेक लेखकों-चिन्तकों से भगतसिंह प्रेरणाएँ लिया करते थे, क्योंकि इन सब देशों में क्रांतिकारी आन्दोलन हुआ करते थे या ईमानदार नेता भी अधिक थे।

रविवार, 25 सितंबर 2011

हिमालय किधर है?


केदारनाथ सिंह की एक कविता है। पता नहीं पूरी है या अधूरी है? उसका शीर्षक क्या है, यह भी पता नहीं। कल वह पढ़ने को मिली। बहुत छोटी कविता है। ऐसा लिखा था वहाँ कि, वह दिशा: प्रतिनिधि कविताएँ से ली गई थी। यहाँ पढ़ते हैं उस कविता को, फिर उनकी दो कविताएँ और पढ़ते हैं। मुझे तो यह कविता पूरी लगती है।

हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

जय हे गांधी ! हे करमचंद !! (कविता)

गाँधी जी …मैंने 5-6 कविताएँ-गीत उनके ऊपर लिखे हैं। अन्तिम बार आज से पाँच-छह साल पहले। अब कविता लिखना कम हो गया है। पुरानी कविताएँ यहाँ पढ़वाता रहा हूँ। फिर एक पुरानी कविता लेकर हाजिर हूँ। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो वसन्त' हमारी पाठ्यपुस्तक में पढ़ने को मिली थी। उसी तर्ज पर गाँधी जी पर कविता लिखने का खयाल हुआ था। दसवीं कक्षा में था, तब इसका एक-दो अंश लिखा था। बाद में सारी कड़ियाँ पूरी हुई थीं। हालांकि छूटी हुई रचनाएँ शायद ही पूरी हो पाती हैं। गाँधी जी पर लिखी अन्य कविताओं को भी यहाँ रखूंगा। दो अक्तूबर को अपनी प्रिय रचना जो मूलत: गीत है, गाँधी जी के ऊपर लिखी गयी है, वह भी रखूंगा। आइये, देखिए क्या बकवास किया था कभी। प्रवाह कहीं कहीं टूटा भी है। 


कर रहे नमन हम बार-बार
युग करता फिर तेरी पुकार
बापू तेरी महिमा अपार
युग के विकास की गति मंद ।
जय हे गांधी ! हे करमचंद !!

शनिवार, 17 सितंबर 2011

नीतीश कुमार के ब्लॉग से गायब कर दी गई मेरी टिप्पणी (हिन्दी दिवस आयोजन से लौटकर)


मैं किसी ऐसे आयोजन में शामिल नहीं हुआ था जो हिन्दी दिवस पर हुए। फिर वहाँ से लौटने की बात क्यों? कारण है भाई। पिछले कुछ दिनों से लगातार हिन्दी पर पढ़ने को मिलता रहा है। आयोजनों में भाषण-पुरस्कार-शपथ आदि के अलावा कुछ होता तो है नहीं, इसलिए हम ब्लॉग-जगत के अलग-अलग घरों में पैदल ही घूमते रहे। 40-50 से कम लेख-कविताएँ नहीं पढ़ी होंगी। कई जगह टिप्पणी भी की। तो मेरा यह काम भी तो आयोजन में शामिल होना ही माना जाएगा।
कुछ दिनों से हिन्दी का जोर सबमें मार रहा था। कई तो ऐसे भी दिखे जो 14 सितम्बर बीतते ही अंग्रेजिया गये, जो उनकी असली प्रवृत्ति रही है। ऐसे लोग बड़े चालू किस्म के होते हैं। पूरा का पूरा गिरगिट। जब चाहा रंग बदल लिया।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

भाषा पर नीतीश का दोहरा रवैया

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दो अलग-अलग व्यवहारों को देखिए आज, हिन्दी दिवस पर। अब बताएँ वे सरकार के पक्षधर लोग कि हिन्दीभाषी राज्य बिहार के सुशासन बाबू का यह रवैया कैसा माना जाय। 

सबसे पहले देखिए इस जगह जहाँ आप पाएंगे वही सदाबहार अपील, जो हर साल करोड़ों पन्नों को बरबाद करने के लिए छापी जाती है।

14 सितम्बर को हिन्दी के लिए अपील करते नीतीश
              
फिर दैनिक जागरण की साइट पर यह खबर देखिए, जो ऐसे शुरू होती है।

सीएम ने लिखा ब्लॉग वादा पूरा किया, लेकिन जारी रहेगी मेरी जंग

पटना, जागरण ब्यूरो : लंबे अर्से के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने ब्लाग के माध्यम से एक बार फिर राज्यवासियों से मुखातिब हुए हैं। राज्य सरकार के प्रति विश्र्वास कायम रखने के लिए जनता को धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा है कि पिछले नवंबर में बिहार चुनाव के आये नतीजों के बाद पहली बार मैं अपने विचार आप सभी से बांट रहा हूं। विश्र्व के विभिन्न क्षेत्रों से बहुतों ने मुझसे पूछा, मैंने ब्लाग पर लिखना क्यों छोड़ दिया। सच यह है कि मैं आप सभी से जुड़ने के लिए किसी बेहतर मौका के इंतजार में था। अब, वह समय आ गया। पिछले सप्ताह हमारी सरकार ने वह कर दिखाया जिसके बारे में मैं अर्से से बेचैन था। हमने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में लिप्त एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के घर में प्राथमिक विद्यालय खोल दिया। उनका घर पिछले साल बने विशेष न्यायालय कानून के तहत जब्त किया गया है। इस भवन में स्कूल का खुलना कोई साधारण ल्ल शेष पृष्ठ 21 पर
     
यह खबर आज पटना से प्रकाशित अन्य अखबारों में भी प्रकाशित है।
इस खबर के उल्लेख करने का अभिप्राय सिर्फ़ इतना ही है आप यह देख सकें कि मुख्यमंत्री ने अपना ब्लॉग कैसे लिखा है। यहाँ पढ़िए उनका लिखा।

13 सितम्बर को अंग्रेजी में लिखा लेख
     
तो श्रीमान अंग्रेजी में लिखते हैं और अपील हिन्दी के लिए। वह भी कल और आज, अलग-अलग भाषा में। यही नहीं इनके ब्लॉग पर लेखों के हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद एक साथ रहते हैं। कुल बारह लेखों में से सात अंग्रेजी में हैं। साफ समझना है कि ये लेख वे अमेरिका-इंग्लैंड-न्यूजीलैंड-आयरलैंड-कनाडा आदि देशों में पढ़े जाने के ही लिख रहे हैं। यहाँ यह बता दें कि कुछ दिन पहले इन्होंने एक किताब लिखी थी, वह भी अंग्रेजी में।
      इसे नीतीश का कौन-सा व्यवहार कहें? क्या यह नहीं हो सकता था कि आज बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी को बन्द करने का ऐलान कर दिया जाता?

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सिर्फ़ एक बार (हिन्दी दिवस पर विशेष)


सब जानते होंगे कि ब्लागर ने पोस्ट के लिए संदेश शब्द अपनाया है। यह हिन्दी में ब्लागर का इस्तेमाल करने वाले लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन हमने पोस्ट को ही माना। ठीक यही हाल चिट्ठा शब्द का हुआ। जब पहली बार ब्लॉग के लिए इस शब्द का इस्तेमाल हुआ तब हिन्दी के कई नए शब्द उभरे जैसे- चिट्ठाकारी या चिट्ठेकारी, चिट्ठा-जगत, चिट्ठेकार आदि। लेकिन जैसा कि हम हिन्दी लोगों की आदत है, हमने अंग्रेजी शब्द को ऐसे स्वीकारा जैसे वह अमृत हो। शब्द तो कोई बुरा नहीं होता। लेकिन मैंने सुना है कि अंधे को सूरदास कहना अधिक सम्मानजनक है और उचित भी। आज कितने प्रतिशत ब्लॉगर चिट्ठा शब्द इस्तेमाल करते हैं? शायद बहुत कम। मैं स्वयं भी अधिकांशत: ब्लॉग शब्द का इस्तेमाल करता हूँ, चिट्ठे का कम। इसका कारण मैं स्वयं भी हूँ और अन्य लोग भी। शब्दों का भाषाओं में आना-जाना लगा रहता है लेकिन वह स्वाभाविक होता है। हमने जानबूझकर इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया है। उदारवाद हमेशा मूल रूप से खतरनाक साबित होता आया है, क्योंकि वह कहीं-न-कहीं नाव में छेद कर देता है। चाहे वह भाषा के मामले में हो या सुरक्षा के मामले में। उदार होने के साथ-साथ स्वयं के अस्तित्व को बनाए रखना भी अनिवार्य है।

रविवार, 11 सितंबर 2011

स्कूल की घंटी (कविता)



घंटियां
बजती हैं
किसी के मरने पर
उसकी अर्थी के साथ
लेकिन स्कूल में
आखिर किसलिए बजती हैं घंटियां
किसके मरने पर
किसकी अर्थी पर
शिक्षा की
या
पढ़ाई के बोझ से दबे
शिक्षकों को देखते ही
सहमे-से मासूम बच्चों की
या
उनके दिलों में
जगने वाली उमंगों की । 

(शिक्षक दिवस पर नहीं लिख सका था। यह कविता आज से 5-6 साल पहले की है।)

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

हमारे समय में सही का पता सिर्फ गलत से चलता है


कुछ साल पहले पढ़ते समय कुछ नोट की गई कुछ चीजें आज साझा कर रहा हूँ। पहले लेखक का नाम है, फिर नोट किए गए अंश हैं।
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आलोक पाण्डेय

क्या यही है जिन्दगी
कोई बढ़ता हुआ गाँव
या पिछड़ा हुआ शहर

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

बिहार पर विशेष : शिक्षा में सारे घटिया प्रयोग कर रही नीतीश सरकार



बढ़ता हुआ बिहार जिन्हें देखना है, उनके लिए आज कुछ खास बातें हैं। जरा इस ओर भी एक नजर देख लीजिए ताकि आपका भ्रम भी टूटे।

बेहतर कहलाने की इच्छा अगर है, तो बेहतर काम भी तो करने चाहिए। लेकिन बिहार में नीतीश सरकार ठीक इसका उलटा कर रही है। बेहतर कहलाने की इच्छा तो बहुत है लेकिन बेहतर काम नहीं। यहाँ बात करते हैं इधर हुए शिक्षा-क्षेत्र में नए-नए खुराफ़ातों की। जैसे शिक्षक पात्रता परीक्षा, साइकिल बँटाई योजना, मैट्रिक में प्रायोगिक परीक्षा समाप्ति योजना, वित्तरहित महाविद्यालयों के लिए की गई दिखावटी योजना और दस हजारी योजना की। आइए जरा इसकी पड़ताल कर लेते हैं।

बुधवार, 31 अगस्त 2011

कहीं मजाक तो नहीं है यह लोकपाल?

एक पेड़ है। बहुत मोटा। संयोग या दुर्योग जो कहें कि वह नुकसानदेह है, फायदेमंद नहीं क्योंकि उसके फल जहरीले हैं। जब छोटा था तब सारा खाद-पानी इसी ने ले लिया और मोटा होता गया। और अब बहुत मोटा हो गया है। इस जहरीले फल को खत्म करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? आप अलग-अलग समाधान सोच सकते हैं। लेकिन इसके समाधान के कुछ और तरीके हैं। जैसे उसके चारों ओर एक रस्सी बाँध दी गई है ताकि वह पेड़ बँधा रहे। लेकिन सब जानते हैं कि इस पेड़ को बाँधने का सम्बन्ध इसके फल को या इस पेड़ को खत्म करने से बिलकुल नहीं होगा। 

लोकपाल के नहीं रहने पर



















शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

रामशलाका के बाद अब अन्ना शलाका


तो यह है अन्नाशलाका। तुलसीदास की रामशलाका तो आपने सुनी होगी। अब इस अन्नामय माहौल में जरा अन्नाशलाका भी देख लीजिए।


अन्ना शलाका का हर वर्ग नीचे की नौ चौपाइयों से संबद्ध है, जिसमें आपके लिए एक सुझाव छुपा हुआ है।  अन्ना का स्मरण कर आँखें मूंदकर (खोलकर भी चलेगा) किसी भी ख़ाने पर उंगली रखें। ध्यान रहे अंगूठा नहीं। फिर उस वर्ग यानि खाने से आगे नवें खाने पर जाएँ। उस खाने में लिखे वर्ण या शब्दांश को लिख लें या याद रख लें। मात्रा भी ठीक से ध्यान रखें। जैसे के बाद आए तो इसका अर्थ का होगा। यह नवें खाने तक जाने का क्रम तब तक जारी रखें जब तक आप शुरु के खाने तक (जिसे आपने शुरु में चुना था) वापस आ न जाएँ। यह काम पूरी श्रद्धा के साथ करें वरना फल खट्टा भी हो सकता है