यह संभवतः 30 जनवरी 2008 को लिखी कविता है। समय का जिक्र करना आदत-सी है। इसका यह अर्थ न लगाया जाये कि कोई ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके यह अंश मुझे भाषा की दृष्टि से बहुत पसंद हैं-
बन रहे हैं शस्त्र ऐसे
नाश का भी नाश कर दें
आदमी की शक्तियों से
जहाँ भय, भयभीत!
हो रहा हो रक्तरंजित
पिता भी जिस राष्ट्र का
बोल मेरे मीत !
क्या कहूँ उस देश को ।
बरसती हैं गोलियाँ
आज पानी की जगह
देखता है नभ कृषक को
जल के लिए, विपरीत !
क्या कहूँ उस देश को ।
बन रहे हैं शस्त्र ऐसे
नाश का भी नाश कर दें
आदमी की शक्तियों से
जहाँ भय, भयभीत !
क्या कहूँ उस देश को ।
जहाँ सपने देखने को
बच्चे नहीं आजाद हैं,
मुस्कुराहट डर रही है
ऐसे रहे दिन, बीत !
क्या कहूँ उस देश को ।
कह रहे पुरखे मनुज के
मेरी नहीं संतान ये ।
पूछा गया मुझसे जहाँ
किसने दिया अधिकार
जो ये गा रहे हो गीत !
बोल मेरे मीत !
क्या कहूँ उस देश को ।
किसने दिया अधिकार
जवाब देंहटाएंजो ये गा रहे हो गीत !
बोल मेरे मीत
बोल मेरे मीत |
पासपोर्ट की तैयारी दिखती है.
जवाब देंहटाएंकह रहे पुरखे मनुज के
जवाब देंहटाएंमेरी नहीं संतान ये ।
पूछा गया मुझसे जहाँ
किसने दिया अधिकार
जो ये गा रहे हो गीत !
बोल मेरे मीत !
क्या कहूँ उस देश को ।very nice.