किसी के आग्रह पर कविता लिखना उचित नहीं मालूम पड़ता। लेकिन यह गलती एक-दो बार कर ही गया हूँ। जून, 2005 में लिखी यह कविता उसी तरह की एक गलती का परिणाम है। वसंत ऋतु का आना-जाना पता नहीं कैसा होता है! बाद के दिनों में सनकी या लिखते जाने की आदत घटी तब एक हाइकु कविता वसंत ऋतु पर लिखी थी, पहले वह पढिए फिर 'ऋतुराज वसंत आया देखो' शीर्षक कविता पढिए।
वह हाइकु कविता:
वसंत क्या है
गिरनेवाले पत्ते
तुम बताओ।
अब 'ऋतुराज वसंत आया देखो' कविता:
ऋतुराज वसंत आया देखो।
सब के दुखों का अंत आया देखो।
हर कली दुल्हन बनी, इस ऋतु के आगमन से।
देवता भी देखते हैं, और उस विस्तृत गगन से।
इंद्र को देखो ज़रा, वे
कह रहे हैं मुस्कुरा कर।
त्याग क्यों ना स्वर्ग को दें,
घर बना लें इस धरा पर।
वसंत के गुण गा रहा वह संत आया देखो।
ऋतुराज वसंत आया देखो।
प्रसन्नता सब के हृदय में
हर तरफ़ है दिख रही।
हरीतिमा की लेखनी है
ख़ुद की कथा को लिख रही।
गर्मी, जाड़ा और वर्षा
गये ना जाने कहां।
पेड़-पौधे; जीव-जंतु
आ गये गाने यहां।
इसके मनोहर चित्र को बनाने के लिए
इसके मनोहर चित्र को बनाने के लिए
वह चित्रकार श्रीमंत आया देखो।
ऋतुराज वसंत आया देखो।
देखो इधर, देखो उधर,
है हर तरफ़ हरियाली।
नये पत्तों से भरी हैं,
तरुवर की हर डाली।
इधर कोयल कूकती है
उधर पंछी गा रहे।
हर्षोल्लासित जीव सारे
एक साथ जा रहे।
वसंत के वर्णन से हारा-थका
वसंत के वर्णन से हारा-थका
प्रकृति का सुकुमार कवि पंत आया देखो।
ऋतुराज वसंत आया देखो।
कविता में तत्त्व भी है और रवानगी भी. भई वाह.
जवाब देंहटाएं'गलती' ऐसी तो 'सही' कैसा?, गलत-सही का फैसला कर प्रस्तुत करना जरा अजीब लगता है.
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