सभी बच्चे- जी। (एक बच्चा अपवाद है, वह कहता है- ‘हँ’, ‘हँ’ भोजपुरी में ‘हाँ’ या ‘जी’ के लिए बहुप्रचलित शब्द है।)
यह वाक़या उस शिक्षिका की नज़र में ख़ास हो या न हो, हमें वह इस समाज का सच्चा प्रतिनिधि लगता है। जिस इलाक़े में बच्चा अपनी भाषा के निकट की भाषा हिन्दी नहीं बोल पाता हो, वहाँ प्राथमिक शिक्षा (कुछ देर के लिए 12वीं के बाद अंगरेज़ी माध्यम को माफ़ कर देते हैं, क्योंकि मौज़ूदा हालातों में कई जगह अंगरेज़ी बाध्यकारी तो है ही।) अंगरेज़ी में देने का प्रचलन! मुझे पहली बार लगा कि अंगरेज़ी कहाँ तक पहुँच गई है। जिन बच्चों के घर में, पास में , पड़ोस में हिन्दी भी नहीं बोली जाती, 24 घंटे में जिसका हिन्दी से 8 घंटे का भी साथ नहीं चलता, उनको प्राथमिक शिक्षा, शुरू की ही शिक्षा अंगरेज़ी में!
इन इलाक़ों में या ऐसे बच्चों के लिए अंगरेज़ी माध्यम स्कूलों में अग़र अंगरेज़ी बोलने या अंगरेज़ी में ही बोलकर पढ़ाने का चलन हो, तो बच्चे 100 वाक्य में पाँच वाक्य और पाँच शब्द के एक वाक्य तक का मतलब समझने में भी असमर्थ होंगे, यह तो तय है। अंगरेज़ी में गणित का सवाल देने पर भी वे सवाल को समझाने को कहते हैं। फिर उन्हें हिन्दी में समझाना पड़ता है, या कहिए कि हिंग्रेज़ी में या कई बार हिन्दी में अनुवाद जैसा करना पड़ता है।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन बच्चों के लिए अंगरेज़ी परायी भाषा है, उनको अंगरेज़ी में शिक्षा देना का अर्थ भी कुछ और होता है। कहने को स्कूल में ‘जी. के.’, ‘सोशल साइंस’, ‘साइंस’, संस्कृत, हिन्दी, ‘इंग्लिश’, ‘मैथ’ आदि विष य पढ़ाये जाते हैं। जबकि सच यह है कि वे हर विषय में अंगरेज़ी किताब होने के चलते शब्दों का हिन्दी मतलब पूछते हैं। शब्द या वर्ड मिनिंग लिखाना होता है शिक्षक को। हर विषय का मतलब मात्र ‘अंगरेज़ी’ पढ़ना होता है। साफ़ कहें तो ‘600 अंको की परीक्षा के विषय’ का एक ही मतलब है ‘700 अंकों की अंगरेज़ी’। यानी बच्चे सिर्फ़ अंगरेज़ी ही पढ़ते हैं। जब शिक्षकों को हर शब्द अंगरेज़ी मानकर ही, अनुवाद कर के ही, अर्थ बताकर ही पढ़ाना पड़े, तो काहे का अंगरेज़ी माध्यम, यह तो अंगरेज़ी, मात्र अंगरेज़ी का स्कूल है, जैसे कोई विदेशी भाषा का शिक्षण-संस्थान हो स्कूल! वैसे भी हम जान ते हैं कि अंगरेज़ी की क़िताब में पाठ के रूप में जीवनियाँ, सामाजिक बातें, कहानियाँ, भौगोलिक, वैज्ञानिक या ऐतिहासिक बातें पढ़ाई जाती हैं ही। यहाँ तो साफ़ है कि स्कूल में ठीक से न तो बच्चे विज्ञान, न गणित, न भाषा और न ही सामाजिक विज्ञान सीख रहे हैं, उन्हें तो बस अंगरेज़ी सिखाई (रटवाई) जा रही है। शिक्षक ख़ुद ही इतनी अंगरेज़ी नहीं जानता हमारे देश में... भारत इतना ‘अंगरेज़ी बोलो आंदोलन’ चलाने के शताब्दियों बितने पर भी एक ‘शेक्सपियर’ न पैदा कर सका।
दुनिया का कोई शिक्षाविद् पता नहीं कैसे यह कह सकता है कि प्राथमिक कक्षाओं में ही बच्चों के ऊपर पूरी ‘डिक्शनरी’ लादकर उसे रट्टू और टट्टू बना दिया जाए।
मेरे छोटे से शहर में , जो भारत का एक ग्रामीण इलाक़ा ही कहा जाएगा, नये स्कूल अंगरेज़ी माध्यम के ‘स्पेशल फ़ीचर’ के साथ खुलने लगे हैं। पहली बार मुझे भोजपुरी, हिन्दी या सभी लोकभाषा ओं और अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के प्रति निराशा (वह तो कहीं न कहीं रही है ही, आशा और सांत्वना देकर दिमाग़ को समझाना ज़ारी रहा है, शायद रहेगा ही।) होने लगी है। शहरी क्षेत्रों का हाल मालूम रहा है, इसलिए शहरों के बारे में विचार यथावत् हैं। लेकिन गाँवों में ऐसा हाल काल जैसा मालूम पड़ने लगा है। हालाँकि सत्य वही है, और निकट दशकों या शताब्दियों तक रहेगा भी कि भारत में अंगरेज़ी शोषकों की भाषा रही है, है और साधारण लोग , शोषित लोग अंगरेज़ी के उस हद तक शिकार नहीं हो सकेंगे कि हमारी भाषाएँ साफ़ मर-बिला जाएँ। इसका कारण है कि जिस देश की तीन चौथाई आबादी ढंग से खा नहीं सकती, तो वह उस देश की भाषाओं को क्या डुबाएगी या पार उतारेगी!
फ़िलहाल ऐसे स्कूल असफल हों, इस कामना के साथ... ... ... क्योंकि जलचर नभचर हो नहीं सकता, वह मर जाएगा, मर जाएगा और मरेगा ही अग़र जल की भाषा छोड़ नभ की भाषा बोलेगा...
हाँ, यह बता दें कि वह स्कूल चलाने वाले और उसके ‘प्रिंसपल’ भारतीय संस्कृति के बड़े पक्षधर बनते हैं।
सब अपने अपने ढंग से लगे हैं, भारतीय संस्कृति की रक्षा में.
जवाब देंहटाएंहां, प्रसंगवश ''निज भाषा'' वाली प्रसिद्ध पंक्तियों का अगला पद मार्गदर्शी है.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
प्राथमिक स्तर पर हिंदी , एक स्वतन्त्र विषय होने के अलावा अन्य विषयों की शिक्षा देने का माध्यम भी होना चाहिए | बच्चे अपनी मातृभाषा में सबसे जल्दी सीखते है और सीखे हुए को अपने शब्दों में कह भी लेते है | मनोविज्ञान भी यही बताता है | बच्चे पराई भाषा में किसी विषय को कैसे समझ सकते है जबकि वे उस भाषा को ही नहीं समझते |सीखे हुए को अंग्रेजी में बोलना उनके लिए तभी संभव हो पाता है जब वे जवाब को रट ले | कक्षा में एक प्रश्न का जवाब सारे बच्चे पराई भाषा में एकसा ही देते है | यानी बच्चे सीखते नहीं रटते है |
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है| यह वास्तव में क्षोभकारी है कि यू पी में चार लाख दस हजार बच्चे हिंदी में फेल करते हैं और गली-कूंचों में कुकुरमुत्ते की तरह अंग्रेजी माध्यम स्कूल उग आये हैं, अँगरेजी माता का मंदिर स्थापित किया जा रहा है, मैकाले की मूर्ति स्थापित की जा रही है| इस समस्या की एक झलक इस रपट में है, और भी पहलू हैं इस समस्या के, जिन पर चर्चा अपेक्षित है|
जवाब देंहटाएंमैं हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में शिक्षा देने के पक्ष में हूँ. + मैकाले के बनाए इंडियन पीनल कोड यानी IPC की वजह से भारत के लगभग 2000 साल के इतिहास में पहली बार कानून की नजर में हर इंसान बराबर हो गया। एक अपराध-एक दंड लागू हुआ। क्या इसलिए मैकाले हैं ब्रिटेश राज के सबसे घृणित इतिहास पुरुष?
जवाब देंहटाएंयह हमारी शिक्षा नीति की सबसे अधिक दुखती रग़ है. गाँधी चाहते थे कि शिक्षा पहले मातृभाषा में हो, फिर हिंदी में और उसके बाद किसी अन्य भाषा के बारे में सोचा जाए. सिद्धांतः वे सही थे. लेकिन नहीं जानते थे कि उनकी हत्या के बाद उनकी सद्भावना को भी कई तरह से मारा जाएगा. अब गाँवों के स्कूलों में टीचिंग स्टाफ़ की कमी है. सरकारी स्कूलों की शिक्षा भविष्य में सस्ते श्रम का उत्पादन ही करेगी. सरकार की नीति बहुत स्पष्ट है.
जवाब देंहटाएंaapne bahut hee jwalant mudde ko badi hee sanjeedgi ke sath peshh kiya hai...is par wakai sabhi ko sochna chahiye...hardik badhayee..aaur amantran ke sath
जवाब देंहटाएंअपनी शिक्षा व्यवस्था का सबसे दुखद पहलू है ऐसी भाषा में शिक्षा देना जिसे बच्चे समझते न हों! न जाने कब यह स्थिति सुधरेगी!
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