हाल की एक कविता जिसके कुछ भाव आजादी कविता से मिलते हैं...
दस रुपये में चार किताबें
बेच रहे थे बच्चे
उस दिन
रेलगाड़ी में
जिनकी उम्र दस साल भी नहीं थी।
जिसमें
गाँधी की जीवनी
मुझे याद है
जिसमें बच्चे खेलते-कूदते-हँसते-गाते
उछलते हुए दिखते थे।
संसद की अलमारी में
किसी मोटी-सी फ़ाइल में
पड़ा है निः शुल्क शिक्षा का अधिकार
हर रोज दिखते हैं
जिन्हें मालूम नहीं
कि
100-100 रुपये की किताबें
नर्सरी के बच्चों को दी जाती हैं
जो दुकानों पर नहीं
विद्यालयों में ही मिल जाती हैं,
जो विद्यालय कम
दुकान ज़्यादा है
किताबें, कॉपियाँ
जूते-मोजे
टाई-बेल्ट
बैच-बैग
उन ‘बेवकूफ़ों’ को
यह पता नहीं
कि
हर वह चीज़ जो
बीते ज़माने की हो चुकी है
उन्हें ही मिलती है।
‘म’ का भी अता-पता नहीं है उन्हें
हाँ, वे दस रुपये का नोट
ज़रूर पहचानते हैं।
मैं यही देखता रहा
कि
दस रुपये देकर
मैं बड़ा हो गया हूँ अब।
... और वे रेल के डिब्बे बदलकर
दस रुपये में चार किताबें
कभी-कभी दिखता है मुझे
कि
कल के हिंदुस्तान हैं यही
‘मनोहर पोथी बेचते बच्चे’।
सुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबच्चे बड़ी आसानी से कविता में तब्दील हो जाते हैं.
जवाब देंहटाएं‘मनोहर पोथी बेचते बच्चे’- पेक्ति प्रभावी है.
शिक्षा के अधिकार से शिक्षा के व्यापार और अशिक्षा की मार तक की कहानी आपकी कविता कह गई है. बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंवो जो बीज है पनप रहा,खाद के बिना
जवाब देंहटाएंबन भी गया खजूर तो करेगा देश क्या!
बदलते भारत की दास्तान सुनाने हेतु आभार ...
जवाब देंहटाएंजिस भाव के साथ कविता को प्रस्तुत किया ,वह समय सोचने का अनमोल था ,,आज भी गरीब,,,यतीम बच्चे शिक्षा के लिए तरस रहे है ,,,और शिक्षा का अधिकार लालफीताशाही में पड़ी जंग खा रही है ,,हर वर्ष करोडो रूपये की किताबे सर्व शिक्षा अभियान में छपी जाती है ,फिर भी उन जरुरतमंदों तक किताबे नही पहुच प रही है ,,मात्र स्कूल में नाम दर्ज कर लेने से शिक्षा का अधिकार पूरा नही हो जाता ,,की जब तक उनके घर के लोगो को कोई रोजगार नही मिल जाता ,,यही बच्चे स्कूल छोड़ देते है ,,फिर उन्हें शाला त्यागी बच्चो के रूप में कई संस्थाओ में दर्ज कर लिया जाता है ,,और किताबो को कबाड़ में ,,,छात्रवृति में भी बंदरबांट हो जाती है ,,स्कूल कागजो में बड़े ही बखूबी ढंग से चलता है
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