यह सबको मालूम है कि ईसा पूर्व   1750 के आस-पास  आर्य भाषा-भाषी कबीले भारत आने लगे और  यहाँ बसने लगे। आर्य भाषी कबीलों का धर्म प्रकृति शक्ति के देवताओं पर आधारित था और  यह धर्म भारत का भी  धर्म बन गया। ईसा पूर्व  800-900 के आसपास  लोहे के हल  से  खेती  शुरू हुई, और  ईसा पूर्व 500 के आसपास  जैन और  बौद्ध धर्म नए धर्म के रूप  में  पैदा किए गए जो आर्य धर्म से  अलग  थे। बौद्ध धर्म पूरे देश  में  फैल गया, और  देश से बाहर चीन, जापान, बर्मा, दक्षिणपूर्व एशिया से  इन्डोनेशिया तक फैल गया। चन्द्रगुप्त, अशोक, हर्षवर्धन जैसे  बड़े-बड़े सम्राटों ने इस धर्म को  अपनाया। यह धर्म लगभग  1500 वर्षों तक भारत का धर्म रहा। मगर  900-1000 ईसा पश्चात  तक आते-आते बौद्ध धर्म बाहरी  दुनिया में  फला-फूला मगर  भारत में मिट गया। क्यों?
      यह एक  प्रख्यात ऐतिहासिक रहस्य  है जिससे कई  विद्वान  समय-समय पर जूझते रहे हैं। एक  ऐसे विद्वान  हुए हैं- डी.डी.कोसांबी, जो आधुनिक  भारत में इतिहास  शास्त्र के जनक माने जाते हैं। इस किताब  में उनका इस विषय  पर एक महत्वपूर्ण  लेख दिया जा रहा है।
      इस किताब  को  पढ़कर हमें  भारत में बौद्ध धर्म की क्षय  को समझने में मदद तो मिलेगी ही, साथ ही साथ धर्म की बुनियाद  और  आजकल के धर्मयुद्धों के असली  कारणों  का भी  पता  चलेगा।
      हम शायद यह भी  समझ  पाएँगे कि वर्तमान  धर्मयुद्ध मानव  इतिहास  के आखिरी धर्मयुद्ध  हैं, क्योंकि  ये युद्ध असल में  धर्म के मुखौटे लगाए हुए, भौतिक युद्ध  हैं और  समाज  में  भौतिक टेढ़ेपन को  समाप्त करने के बाद  ही ये युद्ध समाप्त होंगे।
संपादक
भारत में  बौद्ध धर्म की क्षय
      बाद में  सम्राट  अशोक के अंतिम  वंशज पूमावर्मन ने उस बोधिवृक्ष की एक  टहनी  का पता  लगाया और  उसे लगाकर पल्लवित और  पोषित किया। इसी प्रकार सम्राट हर्ष ने बंगाल के शासक  शशांक को  पराजित  करके बौद्ध धर्म से  संबंधित नष्ट  हुए प्रतिष्ठानों का पुनरूद्धार किया तथा कई  नए मठों और  विहारों का निर्माण  किया। हजारों बौद्धभिक्षु इन्हीं मठों में  रहा और  पढ़ा करते थे। उच्चस्तरीय शिक्षा प्रदान करने वाला समृद्ध  नालंदा विश्वविद्यालय  अपनी प्रतिष्ठा के चरम पर था। सब  ठीक  लगता था।
      क्षति अन्दरूनी कारणों से  हुई। धीरे-धीरे  बौद्ध धर्म के पतन की शुरुआत होने लगी। चीनी  यात्री   ह्वेन सांग की रिपोर्ट की बातें सच साबित  होने लगी। हालांकि स्वयं  ह्वेन सांग को  भी  इस बात का भान नहीं  होगा कि उसकी भविष्यवाणी  इतनी जल्दी  सच होगी, जब उन्होंने लिखा था- 
      "इस काल  में , ऐसे  बौद्ध विद्वान  जो बौद्ध धर्म की पावन  रचनाओं की तीन शिक्षाओं की व्याख्या  कर  सकते थे, उनकी सेवाओं के लिए  विभिन्न प्रकार के सेवकों  को नियुक्त किया जाता था। उसे हाथी  वाहन  दिया जाता था। जो छह शिक्षाओं की व्याख्या करता था उसे सशस्त्र  रक्षक  दल  दिया जाता था। जो सभासद  परिमार्जित भाषा  में अपने विचार  (तर्क-वितर्क) प्रस्तुत  करता था, सघन  अध्येयता होता था तथा  अपने विषय   मेंबहुमूल्य  आभूषणों से सजे हाथी में बिठाया जाता था। उसके लिए मठों के द्वार  सदा  खुले रहते थे। इसके विपरीत  यदि  कोई व्यक्ति अपने तर्कों में असफल हो जाता था, तुच्छ  और  अश्लील  मुहावरों का प्रयोग  करता था या तार्किक नियमों की अवहेलना  करता था तो उसके चेहरे पर लाल तथा सफेद रंग  पोत दिया जाता था और उसके शरीर  पर धूल  तथा मिट्टी  का लेप  लगा दिया जाता था। या उसे रेतीली जगह  पर गहरे खंदक में छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार योग्य  और अयोग्य, बुद्धिमान  तथा मूर्ख  की पहचान  की जाती थी।" यह किस हालत के लक्षण थे?
      बुद्ध के समय में  योग्यता  निर्धारण की यह प्रक्रिया  नहीं  अपनाई जाती थी। हमेशा  भ्रमण  करने वाले बौद्ध भिक्षुओं का कार्य  सरल  शब्दों में तथा  आम  भाषा  में धर्मपरायणता  (सदाचार-संयम) का प्रसार करना   था। समृद्ध  मठ  उन साधारण  ग्रामीणों की चिंता  नहीं करते थे जिनके श्रम  के उत्पादों पर ही इन मठाधीशों की ऐय्याशी चलती थी, और  आडंबरी शास्त्रार्थ होते थे।
      बुद्ध द्वारा  संचालित नियमों, संयमों और  उनके अनुपालन  को  ध्यान  में  रखते हुए बौद्ध भिक्षुओं को साधारण  वेश-भूषा  में रहने की अनुमति  थी। उन्हें सोने और चांदी  के आभूषणों  को छूने तक की मनाही  थी। जबकि, बाद में  अजंता की बुद्ध मूर्तियों के सिर  पर आभूषण दिखाए गए हैं, या उन्हें बहुमूल्य  आसन  पर बैठा दिखाया गया है! 
      बौद्ध धर्म के विचारों से  प्रभावित होकर ही सम्राट  अशोक ने रक्त-पात का रास्ता  छोड़ दिया था और  वह  शांति-प्रिय हो गया था। उसने फरमान निकाल  दिया था कि आगे  सेना  का उपयोग  सिर्फ समारोह  और परेड के दौरान ही किया जाएगा। धर्मपरायण सम्राट हर्ष  ने बौद्धवाद के साथ किसी तरह अपनी युद्धनीति यों के समाधान  की व्यवस्था  की थी। उसी तरह वह बाद में   भगवान  सूर्य और महेश्वर, दोनों  काउत्तरोत्तर  वृद्धि  होती गई। उसकी सेना में 60 हजार  हाथी, 1 लाख  घुड़सवार  तथा  बड़ी संख्या  में पैदल सेना  थी। वह बौद्ध था, यहाँ तक कि उसकी खुद की हत्या  करने आया हत्यारा  पकड़ा गया , और दरबारी लोग  एकत्र  होकर उसके लिए  मृत्युदंड  की सजा  की माँग  रहे थे, तो सम्राट हर्ष उसे छोड़ देने के हिमायती थे। जबकि  आम  जनताजान  देने के लिए मजबूर थी और चाहती थी कि लड़ाइयां कम लड़ी जाएँ, ताकि  जन-धन की क्षति न हो हर्षवर्धन का इनसे  कोई वास्ता नहीं  था।
      दूसरे शब्दों में , बौद्धवाद बहुत  खर्चीला  साबित  हुआ। असंख्य  मठ  और  उनमें रहने वाले ऐय्याशों पर, और सैनिकों  पर, दोहरी लागत आने लगी। अपने प्रारंभ  काल  से  ही बौद्धवाद एक  सार्वभौमिक राजतंत्र के विकास   का हिमायती था जो छोटे-मोटे युद्धों को रोकता था। स्वयं  बुद्ध चक्रवर्ती थे, वे राजा  के अध्यात्मिक प्रतिरूप  थे। किंतु  ऐसी महान  विभूतियों ने जिन साम्राज्यों को चलाया वे बहुत महँगी व्यवस्था एँ साबित हुई। भारत में हर्ष  इस प्रकार के अंतिम  सम्राट  थे। इसके बाद   छोटे-छोटे टुकड़ों में राज्यों का विभाजन  हो गया। यह प्रक्रिया  नीचे  से उपजी सामंतवादी व्यवस्था के उदय  तक चलती रही। धीरे-धीरे  प्रशासन सामंती तंत्र के हाथों में चला गया। इस व्यवस्था का जन्म, भूमि पर संपत्ति के नए उपजे अधिकारों को लेकर हुआ।
      मध्यकाली न भारतीय परिस्थितियों में  खाद्य  और  कच्ची सामग्री  को  दूरस्थ  स्थानों में पहुँचाने के लिए  परिवहन की व्यवस्था  नहीं  थी। सम्राट  हर्ष  ने अपने पूरे साम्राज्य  का भ्रमण  किया था, उसके दरबारी और सैनिक  भ्रमण में साथ होते थे। चीनी  तीर्थ यात्री  ने लिखा है कि भारतीय लोग  व्यापार  में सिक्कों का उपयोग  नहीं करते थे। इस काल में वस्तु  विनिमय प्रथा  थी। प्रमाण के तौर पर देखा जा सकता है कि हर्ष काल के कोई सिक्के  उपलब्ध  नहीं हैं। इसके विपरीत  मौर्यकालीन पंचमार्का वाले सिक्कों की भरमार पाई जाती है।
      प्रारंभ में  बौद्धधर्म बहुत  सफल रहा, क्योंकि  तत्काली न समाज  की आवश्यकता ओं की पूर्ति करने में यह सफल रहा। ईसा पूर्व   छठी शदी के गांगेय क्षेत्र  का समाज अपने में परिपूर्ण शांतिमय गाँवों के रूप  में संगठित नहीं  था। आबादी बहुत कम  थी। किंतु  वह  भी  आपस में  लड़ते हुए अर्ध  जनजातीय प्रदेशों में बंटी हुई थी। कई  जनजातियां ऐसी थी जो हल  जोत कर कृषि  उत्पादन  काम  नहीं करती थी। वैदिक ब्राह्मणवाद चरागाही संस्कृति  वाले आसपास  के पड़ोसी  कबीलों के साथ लगातार  युद्ध  में लगे कबीलों के लिए  उपयुक्त  था। उभरती कृषि अर्थव्यवस्था   के विकास   में पशुबलि की प्रथा  बाधक  हो गई थी। मौर्यपूर्व व्यवस्था में धातु, नमक  और  कपड़े  का व्यापार  लंबी दूरी तक अपेक्षित  था किंतु सक्षम  राज्य के संरक्षण के बिना ऐसा संभव नहीं था। अतः आदिवासी  समूहों और सार्वभौमिक साम्राज्य  के बीच  की दूरी को  तय करने के लिए एक  नए सामाजिक  दर्शन  की आवश्यकता थी।
      सार्वभौमिक राजतंत्र और  सार्वभौमिक समाजिक धर्म समानांतर थे, यह इस बात से  साबित  हो जाता है कि उसी समय मगध का उदय  हुआ। न केवल  बौद्धधर्म बल्कि मगध राज्य के कई  समकाली न मत- चाहे  वे जैन हों, आजीविक हों, सभी वैदिक यज्ञों और पशुबलि का विरोध  कर  रहे थे। बौद्धधर्म वन्य  देश  और जंगली  आदिवासियों के क्षेत्रों में  बढ़ते व्यापार  को  संरक्षण दे रहा था। प्राचीन  व्यापार मार्गों जूनार, कार्ला, नासिक, अजंता के स्मारक और अवशेष इस बात को प्रमाणित  करते हैं।
      बौद्धधर्म का सभ्यता-निर्माण का काम  ईसा की सातवीं सदी तक खत्म  हो गया था। अहिंसा  का सिद्धान्त  सार्वभौमिक रूप  से  स्वीकार तो कर  लिया गया था किंतु  व्यवहार  में  उसका  पालन  नहीं  हो रहा था। वैदिक पशु  बलिप्रथा समाप्त हो गई थी। कुछ  छोटे-छोटे राज्य इसके अपवाद थे किंतु इन पुनर्जागरणवादी प्रयासों का सामान्य  अर्थव्यवस्था  पर बहुत  कमप्रभाव  पड़ रहा था।
किंतु बौद्धधर्म की महत्व पूर्णशिक्षा  का ह्रास  नहीं  होना  चाहिए- अच्छे विचारों के लिए  हर व्यक्ति को  अपने दिलो-दिमाग के पोषण और  प्रशिक्षण  की जरूरत  होती है, जैसे  अच्छे गायन  के लिए गले का रियाज और अच्छी दस्तकारी के लिए हाथों का अभ्यास जरूरी  है। लेकिन विचारों का मूल्य  और महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि उनसे कितनी सामाजिक  प्रगति  हो पाती है।
भारत ज्ञान विज्ञान समिति से प्रकाशित एवं धर्मानंद दामोदर कोसांबी के पुत्र दामोदर धर्मानंद कोसांबी द्वारा लिखित किताब 'भारत में बौद्ध धर्म की क्षय', 2007

 
 
आधुनिक बौद्धिकता का एक महत्वपूर्ण मुकाम है यह.
जवाब देंहटाएं"हम शायद यह भी समझ पाएँगे कि वर्तमान धर्मयुद्ध मानव इतिहास के आखिरी धर्मयुद्ध हैं, क्योंकि ये युद्ध असल में धर्म के मुखौटे लगाए हुए, भौतिक युद्ध हैं और समाज में भौतिक टेढ़ेपन को समाप्त करने के बाद ही ये युद्ध समाप्त होंगे।..."
जवाब देंहटाएं'धर्म' अपने आप में ही बौद्धिक ठहराव का प्रतीक है. हर नए धर्म की शुरुआत बहुत क्रांतिकारी ढंग से होती है. आरंभ में उसपर उसके प्रवर्तकों के विचारों का प्रभामंडल होता है. जो उनके अनुयायियों को बांधे रखता है. धीरे—धीरे वैचारिक प्रभामंडल क्षीण पड़ने लगता है. कई बार धर्म को लोकप्रिय बनाने के लालच में उसके प्रवर्तक ही उसकी आचारसंहिता में छूट देते चले जाते हैं. उसके नाम पर खड़ी की गई संस्थाओं को व्यवस्थित रखने के लिए विचारसंपन्न के बजाय व्यवहारकुशल कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है, जो समझौता करने में माहिर होते हैं. उनके हाथों में पड़कर धर्म धीरे—धीरे एक ताकतवर संस्था का रूप ले लेता है, जिसमें विरोधों अथवा मतांतरों के लिए कोई स्थान नहीं होता. इस नियति से कोई धर्म नहीं बच पाता. दूसरे धर्म प्राय: 'आदमी—आदमी' की अपेक्षा 'आदमी—परमसत्ता' के संबंधों को श्रेष्ठ मानता है. इससे समाज में आपसी विश्वासों की कमी आती है. खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए धर्म नैतिकता का आलंबन लेता है. और वह नैतिकता को खुद में अंतनिर्हित मानता है. जबकि ऐसा बिलकुल नहीं होता. ऐसी सत्ता जिसका वजूद ही संद्धिग्ध हो, में विश्वास नैतिकता के दायरे के बिलकुल बाहर की चीज है. लोग अज्ञानतावश यह समझ नहीं पाते, इसलिए बार—बार छले जाते हैं.
जवाब देंहटाएंधर्मो रक्षति रक्षितः । ( धर्म रक्षा करता है ( यदि ) उसकी रक्षा की जाय । )
जवाब देंहटाएं"एक ऐसे विद्वान हुए हैं- डी.डी.कोसांबी, जो आधुनिक भारत में इतिहास शास्त्र के जनक माने जाते हैं। "
जवाब देंहटाएंदावा अधिक ऊँचा है जिसका आधार कोरी कल्पना है ...