वे
बोरियों में भरकर
ले जा रहे हैं
हमारे अक्षरों को।
क्या तुम सुन रहे हो
उनका चिल्लाना ?
उनका रोना ?
उनका गिड़गिड़ाना ?
ओह! तुम सुनोगे कैसे
जब अक्षर चोरी जा रहे हैं
तुम्हारी ही मर्जी से।
तुम्हारी ही बंदूक
किसी बच्चे की तरह
डराकर, धमकाकर
अक्षरों को चुप कराये हुए है।
और किसी जमींदार या ठाकुर की तरह
मूँछों पर ताव देते
हाथों में छड़ी लिए
तुम खुद ही खड़े हो
गाड़ी के पास
ताकि वे
किसी ईस्ट इण्डिया कंपनी की तरह
आराम से
हमारे अक्षरों को
बोरियों में कसकर लेते जायें!
जैसे घड़ी के पीछे
भागता है समय
वैसे ही एक दिन
इन चोरी जा रहे
अक्षरों के पीछे
भागते जायेंगे सारे शब्द
फिर वाक्य भी चले जायेंगे
शब्दों के पीछे-पीछे।
व्याकरण... भी जायेगा
और एक दिन जब
तुम आईना देख रहे होगे
जो वे तुम्हें बेच गये होंगे
तुम देखोगे
जा चुकी है तुम्हारी भाषा
तुम बेज़ुबान हो गये हो
और तुम
भले ही बंदर से आदमी हुए हो
फिर हो जाओगे
आदमी से बंदर
क्योंकि बंदर के पास भाषा नहीं होती।
यह कविता एक-डेढ महीने से दिमाग में घूम रही थी। सोचा कुछ था, लेकिन जब लिखना शुरू किया तब कुछ और बन गयी।
खूब लिखा है आपने. कई बार कविता एक बार में नहीं बन पाती. उसके कई मसौदे बनते हैं. जारी रखें. यह कविता मुझे भली प्रकार से संप्रेषित हुई है.
जवाब देंहटाएंबहुत देर तक सोचने को छोड देती है आपकी कविता। आपको बहुत बहुत शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंकविता ने अपनी राह पा ली.
जवाब देंहटाएंbahut khoob.
जवाब देंहटाएंजबरदस्त । आपने ज्ञनेन्द्रपति कि 'ष' वाली कविता देखी है ?
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