आज से करीब दो सौ साल पहले जब अंग्रेज भारत पर अपनी शासन व्यवस्था लादना शुरु कर रहे थे तब भारत की जनसंख्या कितनी रही होगी? मुझे लगता है पंद्रह करोड़ के आस-पास जबकि उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल थे। भारत में तथाकथित आजादी के बाद जो भी व्यवस्थाएं की गईं उनमें कोई भारतीयता नहीं थी। शुरु करते हैं- शिक्षा से। आज शिक्षा व्यवसाय है। लेकिन उस समय शिक्षक समाज का सबसे ज्यादा सम्मानित हिस्सा हुआ करता था। शिक्षा के क्षेत्र में पैसे का प्रचलन नहीं था। गुरुकुल हुआ करते होंगे। इस समय उनकी क्षमता या प्रासंगिकता मेरा आलोच्य विषय नहीं है। राजा या अमीर लोग दान देते होंगे और विद्यालय चलते होंगे। यानि हमारी शिक्षा व्यवस्था को सेवा से पेशा बनाने का काम इन अंग्रेजों ने किया जो आज पूरी तरह पेशे में बदल चुकी है। यहां तक कि सरकार के यहां भी शिक्षक अब सेवा नहीं नौकरी करता है और तनख्वाह सबसे प्रमुख विषय बन गयी।
"कैसा प्रदर्शन, क्या सिर्फ पुलिस की गालियाँ और मार खाने के लिए…हरगिज नहीं! इस तरह का कोई भी कदम मैं उस समय तक नहीं उठाऊंगा, जब तक मेरे पास एक अदद बंदूक न हो" - चे ग्वेरा
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल( भाग-2)
युद्ध कभी भी राजनीतिक कारणों के लिये नहीं बल्कि आर्थिक कारणों के लिये ही लड़े जाते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह बात एकदम शीशे की तरह साफ नजर आती है कि इन विशालकाय कम्पनियों के आपसी हित जब टकराते हैं तो उसका परिणाम पूरी मानव जाति को झेलना पड़ता है। अमेरिका ने प्रथम विश्व युद्ध में दखल देने का निर्णय तभी लिया जब उसने देखा कि अमरीकी कम्पनियों के आर्थिक हित चौपट होते जा रहे हैं।
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राजीव दीक्षित
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल( भाग-1)
प्रस्तुतकर्ता : चंदन कुमार मिश्र
इन विदेशी कम्पनियों ने देश में कम्पन पैदा कर दिया है। पूरे देश में लाखों-करोड़ों लोगों के अस्वस्थ बनाने, रोजगार छीन लेने, भारत को कमजोर बनाने, पूरे देश को जकड़ कर जोंक की तरह पकड़ कर रखने में इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कोई प्रयास नहीं छोड़ रखा है। इसी विषय पर आइए एक शानदार किताब पढ़ते हैं जो कुछ कड़ियों में आपके सामने प्रस्तुत की जायेगी जिसका नाम है- ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल’। इसके लेखक हैं राजीव दीक्षित। इस किताब में आप निम्न अध्यायों को पढ़ेंगे।
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राजीव दीक्षित
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
किसी को याद न आये शहीद
23 मार्च 2011 को हमारे देश की संसद में यह तय किया जा रहा था कि कौन सा पक्ष ज्यादा दोषी है। मनमोहन सिंह सरकार और विपक्ष भाजपा में यह हल्ला था कि कौन बेदाग है। हमारी संसद के सारे लोग आरोप-प्रत्यारोप में जी-जान से लगे हुए थे। उन्हें याद ही नहीं आ सका कि आज 23 मार्च 2011 है यानि भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहीद होने के अस्सी साल पूरे हो रहे हैं। अब कोई भी आदमी सोचें कि इनकी हरकतों को क्या कहा जाए? हमारा देश क्रिकेट, सिनेमा, चुनाव को कितने जोर-शोर से याद करता है! लेकिन 23 मार्च में न तो ग्लैमर है, न मार्केट वैल्यू, न कोई टी आर पी है फिर क्यों कोई याद रखे। अपनी क्षणिक खुशी के लिए क्रिकेट के पीछे साल के पचासों दिन खर्च करने वाले युवा, कभी सोचते ही नहीं कि वे चैन से खेल देख पाते हैं तो इसके पीछे भी कितनी बड़ी बात है। सवा अरब का शोर हर तरफ़ हो रहा है। मीडिया कमीनेपन की हद पार कर चुका है। भगतसिंह के अरबवें हिस्से में नहीं आने वाले इस देश के ऊपर शासन करते हैं। बीस पेज के अखबार में बीस लाइन में हर साल भगतसिंह को निपटा देने वाले मीडिया को क्या कहा जाए, आप खुद सोच लें। लेकिन यही मीडिया अखबार में साल में क्रिकेट के पीछे हजार पेज, सिनेमा के पीछे हजार पेज बहुत आसानी से खर्च करता है। और खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहता फिरता है। लेकिन हकीकत में यह लोकतंत्र के चौकी की एक कील तक नहीं है।
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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011
जन लोकपाल बिल में रेमन मैगसेसे पुरस्कार की बात क्यों ?
पता नहीं कैसे लोग मीडिया में होते हैं जिनको आंख पर पट्टी बांधकर रहना अच्छा लगता है और वे समझ ही नहीं पाते कि तहरीर चौक एक तमाशा के सिवा कोई क्रान्ति-व्रान्ति नहीं था। जिधर देखो उधर हर जगह यह शोर है कि तहरीर चौक बन जायेगा जंतर-मंतर। इस तहरीर चौक और मिस्र की क्रान्ति की नौटंकी के बारे में पहले भी लिख चुका हूं। जहां तक मैं समझता हूं कि मिस्र हो या लीबिया हो या कोई और हो जहां भी क्रान्ति की सुगबुगाहट सुनाई पड़ रही थी, वह अमेरिका के चालाकी और दुष्टतापूर्ण उपनिवेशवाद का ही दिखावटी चेहरा है। मिस्र में अलबरादेई अमेरिका के चापलूस( भले ही वे नोबेल पुरस्कार विजेता हैं) हैं, अपना कद बढ़ाने में लगे हुए हैं। वही अमेरिका जिसके बहुत से राष्ट्रपतियों को नोबेल का शान्ति पुरस्कार मिल चुका है। लेकिन भारत में कोई इस लायक नोबेल समिति को दिखता ही नहीं। अब अमेरिका जान बूझ कर क्रान्ति के नाम पर लोगों को भड़का कर अपने चापलूसों या नौकरों को इन देशों का प्रमुख बनवा रहा है ताकि अमेरिका का प्रभुत्त्व इन सब पर कायम रह सके। एक बात जरुर याद दिला दूं कि यही अमेरिका क्यूबा की मदद कर रहा था तो वहां की जनता इसकी तारीफ़ कर रही होगी लेकिन यह देश बाद में इन्हीं लोगों पर कब्जा कर बैठा था। ऐसे ही चालबाजी सहायता यह देश दूसरे देश को देता है। फिर भी अमेरिका कुछ गलत नहीं कर रह- ये कहने वाले लोग हैं। सुना है कि यही अमेरिका दूसरे देशों को सिखाता है कि ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए अन्य देश अपनी सुविधाओं में कमी लाएं लेकिन खुद उसके यहां किसी भी मिनट में 7000 हवाई जहाज उड़ते हुए पाए जाते हैं। इसी देश को लोग आदर्श और महान कहने वाले हमारे देश में मौजूद हैं।
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रविवार, 3 अप्रैल 2011
यह जीत नहीं, भारत के लाखों करोड़ों के विदेश जाने का संकेत है
जीतना सबको अच्छा लगता है। जीत का मतलब ही होता है आंशिक उन्माद। और यह उन्माद भारत में कुछ ज्यादा ही है। हमारे यहां लोग हार को भी इसी उन्माद के साथ मनाते हैं। अगर भारत मैच हार जाये तो रोने चिल्लाने वाले लाखों लोग हैं, गाली देने वाले भी लाखों लोग हैं। लेकिन अगर जीत जाय तो इसका नशा भी लोगों पर चढ़कर नहीं ओवरफ्लो होकर दिखता है। पता नहीं यह क्या हो रहा है!
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