रविवार, 3 अप्रैल 2011

यह जीत नहीं, भारत के लाखों करोड़ों के विदेश जाने का संकेत है


जीतना सबको अच्छा लगता है। जीत का मतलब ही होता है आंशिक उन्माद। और यह उन्माद भारत में कुछ ज्यादा ही है। हमारे यहां लोग हार को भी इसी उन्माद के साथ मनाते हैं। अगर भारत मैच हार जाये तो रोने चिल्लाने वाले लाखों लोग हैं, गाली देने वाले भी लाखों लोग हैं। लेकिन अगर जीत जाय तो इसका नशा भी लोगों पर चढ़कर नहीं ओवरफ्लो होकर दिखता है। पता नहीं यह क्या हो रहा है!
      मैं बहुतों को देश से प्रेम नहीं करनेवाला भी लग सकता हूं। लेकिन क्या करें अपनी भी बात कहने का हक तो है ही। कुछ कहना जरुरी लग रहा है। जब लोग मैच जीतने की खुशी में सड़क जाम कर सकते हैं, करोड़ों-अरबों की आतिशबाजी कर सकते हैं, फिल्मी सितारों से आम आदमी तक झंडा लपेट कर, लहरा कर, मुँह पर रंग पोत कर शोर मचा सकते हैं तो मैं भी कुछ कह सकता हूं, इतना तो अधिकार मुझे भी है। मैं कुछ दिन पहले से कहता रहा हूं भारत मैच हारे तो अच्छा होगा। यह सुनकर ही जाने कितने लोग मेरे उपर गालियों की बौछार कर देंगे, अगर मैं सड़क पर मिल गये तो मेरे खिलाफ़ असत्याग्रह छेड़ देंगे। मैं मैच जीतने से दुखी हूं ऐसा भी नहीं है लेकिन मैं कुछ दिनों से यही सोच रहा था कि भारत (इंडिया नहीं) अगर मैच जीते तो क्या होगा? सोचते-सोचते मैं इस फैसले पर पहुँचा कि इसे जीतने से कुछ देर के लिए देश के लोग पागलों की तरह खुश होंगे और उन्हें खूब-से-खूब 2-4 दिन की खुशी मिलेगी और सब कुछ फिर से सामान्य हो जाएगा। लेकिन और क्या होगा? जरा यह भी बता दूं क्योंकि यही बताने के लिए तो मैं यह सब लिख रहा हूं।
      शायद आप जानते होंगे कि चीन के लोगों को अफीम खिला-खिला कर गुलाम बनाया गया था। ऐसा सुना और कहा जाता है। यह मैच जिसे भारतीय टीम ने हमने, आपने नहीं जीता यह कुछ ऐसी ही चीज है। क्या आप बता सकते हैं कि मैच देखने के लिए कितने आदमी के पास 60 हजार रूपये थे? जिन्हें लाइव मैच देखना है वो भारत का 60 हजार रूपया एक दिन कुछ घंटों के मनोरंजन पर खर्च कर देंगे। भारत के कितने लोग ऐसे हैं जिनकी हैसियत इस लायक है, यह आप जानते हैं। खेल खेल है, व्यापार नहीं। और यहां तो बाजार की तरह खिलाड़ियों के दाम लगते हैं। खेल के प्रति जिन्हें प्रेम और सम्मान है वो अपना बल्ला या गेंद कभी नीलाम नहीं करते। उन्हें तो यह समझना चाहिए कि यह उनके जीत का प्रतीक है। अब खेल पैसों का धंधा हो गया है। यह सभी जानते हैं। दौलत और शोहरत एक साथ दिलाता है। लेकिन आइए जरा देख लें कि यह जीत क्या दिलाएगी भारत को। क्योंकि उन्माद में या खुशी के नशे में चूर होकर रहना बुद्धिमानी नहीं। यह एक बड़ा सत्य है कि बुलंदी पर पहुँचने से कठिन होता है उस  स्थान बनाये को रखना। एक तो मीडिया अलग सनकी फैला रहा है पाकिस्तान और श्रीलंका के खिलाफ़ घटिया शब्दों को इस्तेमाल कर। खेल में हार-जीत का क्रम आता और जाता रहता है। लेकिन भारतीय मीडिया भी पैसे का धंधा है इसलिए इससे कुछ अच्छा उम्मीद करना बेकार है।
      अब सभी समझ सकते हैं कि विश्वकप जीतने के बाद सारे क्रिकेटरों को विज्ञापन मिलेंगे, कुछ देश के कुछ विदेश के। उनकी कीमत एक दिन में ही बहुत ज्यादा बढ़ गयी है। अगर एक खिलाड़ी जो 5, 10 या 20 करोड़ रूपये लेकर एक साल के लिए विज्ञापन करता है तो अनुमानत: अगर दस खिलाड़ी ऐसे हैं तो इनकी कुल आय अधिकतम 200 करोड़ रूपये होगी और इन विज्ञापनों से देश का उच्चवर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवार दस-बीस-पचास हजार या एक-दो लाख करोड़ रूपये गवां बैठेगा। हम सब जानते हैं कि ऐसा होता आया है और ऐसा ही होगा। कुछ खिलाड़ी जो विज्ञापन नहीं करते होंगे अब वे भी विज्ञापन करेंगे। अब आप ही बताइए कि ये खिलाड़ी कौन हैं? क्या ये सब बीस करोड़ लोगों वाले देश के नागरिक हैं या 120 करोड़ लोगों वाले देश के नागरिक हैं? एक मैच, एक कप, क्षणिक उन्माद( हालांकि यह कभी-कभी स्वाभाविक होता है और शायद थोड़ा जरुरी भी) और क्या देंगे ये हमारे देश को? पहली बात हमें जिस देश ने 250 वर्षों तक गुलाम बना कर रखा है, हमारे अर्थव्यवस्था को जिसने पूरी तरह से डूबा दिया हो, जिसके चलते आज तक हमारा देश लाचारी का दंश झेल रहा हो, हम उसी का खेल क्रिकेट खेल और बेच रहे हैं। कुछ महाबुद्धिजीवी लोग होंगे जिन्हें मेरी बात ऊबाऊ लगेगी या उनको दुख होगा, मैं उनसे माफ़ी मांगता हूं। पता नहीं हमारे देश के लोगों को विदेशों और उनकी सब चीजों से जूतों से, फिल्म से, कला से, संगीत से यहां तक कि उनके कॉफी पीने के ढंग तक से क्यों इतना मोह है? अपने देश और अपनी चीजों के प्रति कोई सम्मान ही नहीं है। इन्हें लगता है अमेरिका थूकता भी है तो सोना और अमृत ही निकलता है। हर चीज नकल करते हैं अमेरिका और यूरोप की। लेकिन यही देश अंदर से हीनता से ग्रस्त होकर भी झूठा दंभ भरता दिखाई दे रहा है कि हम किसी से कम नहीं या हमने दुनिया को दिखा दिया आदि आदि भड़काऊ और दो पैसे की बात जिसका असर 365 दिन में 3 दिन भी नहीं दिखेगा, कह रहा है, गा रहा है, चिल्ला रहा है।
      और आखिर में एक बात। हमारे यहां तो एक परंपरा है कि भले हम सोने से लेकर खाने तक का काम अंग्रेजी में करते हैं लेकिन पूजा के दिन संस्कृत, नमाज के वक्त उर्दू बोलते हैं। लेकिन हमारा देश और उसके लोग तो कुछ खास हैं तभी तो 15 अगस्त को भी अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त होता नहीं होते। उस दिन भी अंग्रेजी में अखबार छपते हैं, राष्ट्रपति का संबोधन, अनेक कार्यक्रम भी अंग्रेजी में ही होते हैं। ठीक कल भी यही हुआ जिस दिन भारत विश्व चैम्पियन बन गया। पत्रकार अंग्रेजी वाला, जवाब अंग्रेजी वाला। हमारे देश के खिलाड़ियों में भारत के प्रति इतना ही प्रेम दिखता है कि क्रिकेट के मामले में यहां सनक और पैसा बहुत अधिक है। क्या जीतने और विश्व को जीतने के बाद भी हमें अपनी भाषा में बात नहीं करनी चाहिए? मेरा सवाल कितनों को गुस्सा दिलायेगा कि भारत के जीतने की खुशी में यह आदमी रोड़ा अटका रहा है! तो मैं वैसे लोगों से सिवाय माफ़ी के कुछ नहीं मांग सकता। क्योंकि यह जीत नहीं भारत के लाखों करोड़ों के विदेश जाने का संकेत है। जो लोग कभी एक करोड़ रूपये और उसकी कीमत जानते होंगे उन्हें यह बात शायद समझ में आ जायेगी और हर दिन 7000 और हर साल 25,00000(25 लाख) लोग भारत में भूख से मर जाते हैं, यह बात भी याद रहेगी। क्योंकि इस जीत की खुशी के चेहरे में और इन 25 लाख और उन करोड़ों लोगों के साल के 365 दिन तक दिखने वाले चेहरे में, जिनको रोज नरक नसीब होता है कुछ फर्क तो मालूम होगा ही। और जरा इस खेल का चमत्कार देखें कि यह एक साल में 2-3 हजार करोड़ घंटे बर्बाद करता है भारत के। जिस देश में कृषि नीच लोगों का और शर्म का काम हो वहां 3 हजार करोड़ घंटे बर्बाद करना कितना जायज है?
      

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